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रविवार, सितंबर 07, 2025

नवारो को इतना भी नहीं मालूम कि भारत में ब्राह्मण नहीं बल्कि वैश्य व्यापार व्यवसाय करते हैं!



 हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पूर्व व्यापार सलाहकार पीटर नवारो ने भारत पर रूस से तेल खरीदने और यूक्रेन युद्ध को बढ़ावा देने के आरोप लगाकर वैश्विक सुर्खियाँ बटोरीं। उनकी टिप्पणियों, विशेष रूप से भारत के "ब्राह्मणों" को रूसी तेल से मुनाफाखोरी का दोषी ठहराने वाले बयान, ने न केवल भारत में विवाद खड़ा किया, बल्कि अमेरिका-भारत संबंधों में तनाव को भी बढ़ाया। भारत के विदेश मंत्रालय ने इन बयानों को "गलत और भ्रामक" बताकर खारिज कर दिया। इस बीच, एलन मस्क के स्वामित्व वाले X प्लेटफॉर्म पर नवारो की पोस्ट को फैक्ट-चेक किया गया, जिसमें भारत के तेल आयात को ऊर्जा सुरक्षा से जोड़ा गया, न कि मुनाफाखोरी से। इससे नाराज नवारो ने मस्क पर "प्रोपेगैंडा" फैलाने का आरोप लगाया।

यह लेख कोल्ड वॉर के दौरान अमेरिकी नीतियों और यूक्रेन युद्ध में हताहतों के आंकड़ों के संदर्भ में नवारो के बयानों का विश्लेषण करता है, और यह बताता है कि उनकी टिप्पणियाँ ऐतिहासिक तथ्यों और वर्तमान भू-राजनीतिक जटिलताओं को समझने में उनकी कमी को दर्शाती हैं।

कोल्ड वॉर और अमेरिकी भागीदारी: हताहतों की भारी कीमत

कोल्ड वॉर (1947-1991) के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ के बीच वैचारिक और प्रॉक्सी युद्धों ने विश्व भर में लाखों लोगों की जान ली। कोरियाई युद्ध (1950-1953) और वियतनाम युद्ध (1954-1975) जैसे प्रमुख संघर्षों में अमेरिकी भागीदारी से भारी नुकसान हुआ:

अमेरिकी सैन्य हताहत: लगभग 95,000 अमेरिकी सैनिक मारे गए, जिसमें कोरियाई युद्ध में 36,574 और वियतनाम युद्ध में 58,220 मौतें शामिल हैं।

कुल हताहत: इन युद्धों में 3-5 मिलियन लोग मारे गए, जिसमें नागरिक और सैन्य हताहत शामिल हैं। हालांकि, ये सभी मौतें केवल अमेरिकी कार्रवाइयों के कारण नहीं थीं, क्योंकि सोवियत संघ और अन्य देशों की भी भूमिका थी।

प्रॉक्सी युद्धों की जटिलता: सटीक आंकड़ों की कमी और प्रॉक्सी युद्धों की प्रकृति के कारण हताहतों की संख्या अनिश्चित बनी हुई है।

कोल्ड वॉर में अमेरिका ने न केवल सैन्य बल्कि वैचारिक और आर्थिक प्रभाव का भी उपयोग किया, जिसके परिणामस्वरूप कई देशों में दीर्घकालिक अस्थिरता पैदा हुई। नवारो जैसे लोग, जो आज भी आक्रामक बयानबाजी करते हैं, ऐतिहासिक संदर्भों को नजरअंदाज करते हुए वैश्विक तनाव को बढ़ा रहे हैं।

यूक्रेन युद्ध: हताहतों का अनुमान

यूक्रेन-रूस युद्ध, जो 2014 में शुरू हुआ और 2022 में रूसी आक्रमण के बाद और तेज हुआ, ने भारी मानवीय क्षति पहुँचाई है। विभिन्न स्रोतों के आधार पर हताहतों का अनुमान निम्नलिखित है:

2014-2022 (क्रीमिया और डोनबास): लगभग 14,200-14,400 मौतें, जिनमें 3,404 नागरिक, 4,400 यूक्रेनी सैनिक, और 6,500 रूस समर्थक अलगाववादी शामिल हैं।

2022 रूसी आक्रमण: संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, 2022 से 2024 तक 30,457 नागरिक हताहत हुए, जिनमें 10,582 मारे गए और 19,875 घायल हुए।

रूसी सैन्य हताहत: यूक्रेनी दावों के अनुसार 50,000 से 6,00,000 रूसी सैनिक मारे गए, जबकि बीबीसी और मेडियाज़ोना ने 50,000 मौतों की पुष्टि की।

यूक्रेनी सैन्य हताहत: सटीक आंकड़े अस्पष्ट हैं, लेकिन हजारों में होने का अनुमान है।

कुल हताहत: 2014 से 2025 तक 60,000 से 1,00,000 लोग मारे गए, और लाखों लोग विस्थापित हुए।

यूक्रेन युद्ध की जटिलता और अमेरिका जैसे पश्चिमी देशों की भूमिका को देखते हुए, नवारो का भारत को "यूक्रेन युद्ध को बढ़ावा देने" का दोषी ठहराना न केवल तथ्यात्मक रूप से गलत है, बल्कि भू-राजनीतिक अज्ञानता को भी दर्शाता है।

नवारो का भारत पर हमला: तथ्यों से परे बयानबाजी

पीटर नवारो ने भारत पर रूस से तेल खरीदने और "ब्राह्मणों" द्वारा मुनाफाखोरी का आरोप लगाया, जिसे भारत ने खारिज कर दिया। उनके बयानों में कई खामियाँ हैं:

सांस्कृतिक अज्ञानता: नवारो ने "ब्राह्मणों" को मुनाफाखोरी से जोड़ा, जबकि भारत में व्यापार और व्यवसाय मुख्य रूप से वैश्य समुदाय से जुड़ा है। यह उनकी भारतीय सामाजिक संरचना के प्रति अज्ञानता को दर्शाता है।

तथ्यात्मक गलतियाँ: भारत का रूस से तेल खरीदना ऊर्जा सुरक्षा और अपने 140 करोड़ नागरिकों के आर्थिक हितों के लिए है, न कि मुनाफाखोरी के लिए। X पर कम्युनिटी नोट्स ने भी इसकी पुष्टि की।

विवादास्पद बयान: नवारो ने भारत को "क्रेमलिन की मनी लॉन्ड्रिंग मशीन" और यूक्रेन युद्ध को "मोदी का युद्ध" कहा, जिससे भारत-अमेरिका संबंधों में तनाव बढ़ा।

राजनीतिक विवाद: भारत में कांग्रेस नेता उदित राज ने नवारो के "ब्राह्मण" बयान का समर्थन किया, जिससे देश में नया राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया।

नवारो की बयानबाजी और डोनाल्ड ट्रंप की छवि

नवारो की टिप्पणियाँ न केवल भारत-अमेरिका संबंधों को नुकसान पहुँचा रही हैं, बल्कि डोनाल्ड ट्रंप की छवि पर भी सवाल उठा रही हैं। अब्राहम लिंकन के समय के अमेरिकी मूल्यों, जैसे कूटनीति और सहयोग, को नवारो जैसे लोग अपनी आक्रामक बयानबाजी से कमजोर कर रहे हैं। यदि नवारो को कोल्ड वॉर और यूक्रेन युद्ध के ऐतिहासिक और वर्तमान संदर्भों की समझ होती, तो शायद उनकी पोस्ट को X पर बार-बार फैक्ट-चेक का सामना न करना पड़ता।

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शनिवार, अगस्त 09, 2025

नोबल शांति पुरस्कार की दौड़े

विश्व का सबसे प्रतिष्ठित सम्मान नोबेल पुरस्कार है, और यह तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब यह वैश्विक शांति के लिए दिया जाए। डोनाल्ड ट्रंप इस पुरस्कार की चाहत रखते हैं और कई  बार दावा कर चुके हैं कि उन्होंने 'ऑपरेशन सिंदूर' को रुकवाया, साथ ही छह अन्य युद्धों में शांति स्थापित करने का प्रचार कर रहे हैं।
नोबेल शांति पुरस्कार शांति, सहयोग और मानवता की उन्नति के लिए दिया जाता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या युद्ध को बढ़ावा देकर या युद्धविराम का दावा करने वाली शक्तियों को यह पुरस्कार देना उचित है?
अमेरिका का सामरिक हथियार व्यापार पांच से छै ट्रिलियन डॉलर का है। पब्लिक डोमेन के आंकड़ों के अनुसार, अमेरिका छै से आठ प्रत्यक्ष युद्धों और तीस से चालीस प्रॉक्सी युद्धों में शामिल रहा है, जिसके परिणामस्वरूप लाखों लोग अपने जीने के अधिकार से वंचित हुए हैं। हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु हमले इसका ऐतिहासिक उदाहरण हैं। विश्व के हथियार व्यापार में अमेरिका की हिस्सेदारी लगभग चालीस प्रतिशत है, और प्रथम विश्व युद्ध से लेकर अब तक वह हथियारों का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता रहा है।
अमेरिका ने कभी भी निशस्त्रीकरण की दिशा में ठोस कदम नहीं उठाए। एक अच्छा राष्ट्र वह है जो अपनी और गरीब राष्ट्रों की संप्रभुता की रक्षा के लिए सामरिक सहायता दे, लेकिन अमेरिका हथियारों को व्यावसायिक रूप से उत्पादित करता है और 'अमेरिका फर्स्ट' नीति के तहत गरीब व विकासशील देशों के किसानों के हितों को नजरअंदाज करता है।
ट्रंप का दावा है कि उन्होंने 'ऑपरेशन सिंदूर' के दौरान भारत-पाकिस्तान के बीच युद्धविराम कराया। व्हाइट हाउस के प्रवक्ता ने कहा कि ट्रंप ने हर महीने एक संघर्ष समाप्त किया, जैसे भारत-पाकिस्तान, थाईलैंड-कंबोडिया, और इज़राइल-ईरान। भारत ने इन दावों को खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि 'ऑपरेशन सिंदूर' उसका स्वतंत्र रणनीतिक निर्णय था, जिसमें किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता नहीं थी
ट्रंप के पहले कार्यकाल में अमेरिका ने दो सौ बिलियन डॉलर के हथियार निर्यात किए, जिनमें सऊदी अरब और भारत के साथ सौदे शामिल थे। उनके वर्तमान कार्यकाल में भी (भारत के साथ तीन दशमलव छै बिलियन डॉलर की डील एवं एफ-पैंतीस को छोड़कर) , अन्य देशों के साथ समान स्तर के सौदे हुए हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध में अमेरिका का हथियारों का व्यापार और अप्रत्यक्ष भूमिका उसकी नीतियों को और स्पष्ट करती है।
अमेरिका भारत में अपनी कृषि सप्लाई चेन स्थापित करना चाहता है। यह भारतीय किसानों के प्रति अप्रत्यक्ष हिंसा है, जो उनकी आजीविका को प्रभावित करती है। क्या ट्रंप नोबेल शांति पुरस्कार के हकदार हैं?
अमेरिका का इतिहास शांति के बजाय हथियार व्यापार और भू-राजनीतिक हितों को बढ़ावा देने का रहा है। प्रथम विश्व युद्ध से लेकर अब तक, अमेरिका ने युद्धों को बढ़ावा देने और हथियारों के व्यापार में अग्रणी भूमिका निभाई है। ट्रंप की नीतियाँ, जैसे भारत पर टैरिफ और रूस-यूक्रेन युद्ध में हथियारों की आपूर्ति, उनकी 'शांति' की छवि पर सवाल उठाती हैं।
नोबेल शांति पुरस्कार ऐसी शख्सियतों को दिया जाना चाहिए जो वास्तव में मानवता और शांति के लिए समर्पित हों, न कि उन शक्तियों को जो युद्धों को बढ़ावा देकर युद्धविराम का श्रेय लेने का प्रयास करें। अमेरिका का 'डीप स्टेट' और पूंजीवादी हित राष्ट्रपति की नीतियों पर हावी रहते हैं, जिसके कारण शांति की स्थापना में उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध है।
मेरा मानना है कि अमेरिका का इतिहास और ट्रंप की नीतियाँ उनके शांतिप्रिय होने के दावे को खोखला साबित करती हैं। नोबेल शांति पुरस्कार समिति को चाहिए कि वह अमेरिकी राष्ट्रपतियों को डिफ़ॉल्ट रूप से इस पुरस्कार की पात्रता से बाहर रखे, क्योंकि उनकी नीतियाँ शांति के बजाय व्यापारिक और सामरिक हितों को प्राथमिकता देती हैं। 

गुरुवार, मई 29, 2025

भोलाराम का राज्याभिषेक


#भोलाराम 
#भोलाराम_का_राज्याभिषेक 
#व्यंग्य: गिरीश बिल्लौरे मुकुल 

नंदनवन के हरे-भरे जंगल में एक अनोखा दौर था। जानवर इंसानों की तरह संगठित थे, और शेर की अचानक मृत्यु के बाद राजगद्दी खाली थी। सभी जानवरों ने गजराज हाथी को राजा बनाने की मांग की, लेकिन गजराज ने ठोस तर्क दिया, "मुझे और मेरे परिवार को बहुत भोजन चाहिए। राजा बनकर मैं अपने बच्चों को आलसी बना दूंगा, जो न बोलना सीखेंगे, न भोजन जुटाना।
"ऊदबिलाव ने सुझाव दिया, "जो योग्य हो, वही राजा बने! 
    हमारा नंदनवन अफ्रीका का जंगल नहीं, जहाँ एकता की कमी हो।" 
  उल्लू और छछूंदर ने इस विचार का समर्थन किया ।
 भूरी लोमड़ी, पप्पुन गधा, और भोलाराम कुत्ते मैं अपनी दावेदारी पेश की। 
सभी जानवरों ने आम सहमति से भूरी पप्पुन और भोलाराम को  राजगद्दी की दौड़ के लिए चुना गया।
   फुदक चिरैया ने समझाया कि - इसके लिए एक दौड़ का आयोजन किया जाए, सिंहासन से   15 किलोमीटर दूर  वाली टेकरी से सिंहासन तक की दूरी तय करके जो भी इन तीनों में से पहले सिंहासन तक पहुंचेगा उसे राजा घोषित कर दिया जाएगा। 
  15 किलोमीटर दूर टेकरी पर दौड़ का आयोजन तय करने के बाद  झल्ला बंदर को समय तय करने का जिम्मा सौंपा गया। 
 निश्चित तिथि पर दौड़ का आयोजन हुआ।
 दौड़ वाले रास्ते पर   मिक्की खरगोश और उसका खानदान जंगली रास्तों पर निगरानी रख रहे थे। 
  रास्ते में गाँव थे, जहाँ पालतू कुत्तों ने अपनी चौकसी बरती। ये कुत्ते इंसानों के साथ रहकर अपनी जंगली प्रवृत्ति भूल चुके थे। इस बात की जानकारी मिकी ने तीनों प्रतिभागियों को दे दी। भोलाराम भी मानसिक तौर पर तैयार था। वह जानता था कि उसकी जाति के लोग ही उसे बड़ा पहुंचाएंगे। 
 दौड़ शुरू होते ही भूरी लोमड़ी ने तेजी दिखाई, लेकिन तीसरे गाँव तक पालतू कुत्तों ने उसे घायल कर दिया।
  भोलाराम और पप्पुन गधा पीछे-पीछे दौड़ रहे थे। 
  पालतू कुत्तों का शोर चारों दिशाओं में गूंज रहा था।
  रास्ते भर पालतू कुत्तों के हमले भोलाराम पर ही हो रहे थे, लेकिन पप्पुन गधे को कोई नहीं छूता था।
कुत्तों  ने गाँव वालों से सुना था, "गधे से पंगा नहीं लेना चाहिए , गधे तो गधे हैं... जाने कब पलट के दुलती मार दें !" 
पप्पुन अपनी सामान्य से ज़रा तेज स्पीड से दौड़ रहा था। 
 पहले तो भोलाराम सबसे आगे था परंतु बाद में   दूसरे गांव को पार करते मैं उसे बहुत वक्त लग गया, अपनी बिरादरी वालों से संघर्ष करने में। तीसरा और चौथा गांव पर करते-करते तो उसकी सांस उखड़ रही थी। संकल्प लिया था तो दौड़ना जरूरी भी था। 
  जैसे तैसे भोलाराम सिंहासन से आधा किलोमीटर दूर पहुंचा तो उसे गधे की गंध मिली। फिनिशिंग लाइन पर पहुंचकर उसने देखा—पप्पुन गधा पहले ही वहाँ था! भोलाराम ने माथा पकड़ लिया। तभी तोताराम और कंपनी ने गाना शुरू कर दिया - "अपने ही गिराते हैं नशेमन पे बिजलियां..!"
(यह कहानी उन भारतीयों को समर्पित है, जो आयातित विचारधारा के प्रबल समर्थक हैं और भारत को हर वक्त नीचा दिखाते हैं)

बुधवार, मई 14, 2025

भोलाराम का विमोचन

#भोलाराम_का_विमोचन
(व्यंग्यकार गिरीश बिल्लौरे मुकुल 
जबलपुर मध्य प्रदेश)
  सम्मान-सम्मान का यह खेल इतना मस्त है कि इसे ओलंपिक में शामिल कर देना चाहिए। ओलंपिक न सही, तो एशियाई खेलों में। और अगर वह भी न हो, तो जिला-स्तरीय तमाशे में तो जरूर!
यह खेल जेब ढीली कराता है, आत्ममुग्धता को चाँद पर ले जाता है, और भीड से़ तालियां बजवाता  है।
  अर्थात यह खेल बहुत सारे शास्त्रों पर आधारित  है।  अर्थशास्त्र, छापस-शास्त्र, दिखास-शास्त्र, और बकास-शास्त्र का गजब का कॉकटेल।   
     हर शहर में यह खेल जोर-शोर से खेला जाता है। मेरा शहर कोई अपवाद नहीं—बल्कि इस खेल का प्रयागराज, मानसरोवर, येरुशलम मक्का-मदीना है।
   वैचारिकता को ठेंगा दिखाते हुए रोज "सम्मान का ड्रामा" रचा जाता है।
  खेल तो खेल है, खेलने के लिए ही बना है। तो इसे खेलना जरूरी है—बिल्कुल जरूरी!
आयोजक इस खेल का अर्थशास्त्र बखूबी समझते हैं। आप कवि हों, शायर हों, या साहित्य के तुर्रमखाँ—जब तक इस विमोचन की भट्टी से न गुजरें, तब तक आपका नामोनिशान नहीं।
खुशी की बात यह है कि आजकल तो पद्म सम्मानों के लिए कंसलटेंसी एजेंसियाँ खुल गई हैं। दिल्ली की एक रेडियो जॉकी और एक लेखक, जिनका नाम गिनीज बुक में चमकता है, इस धंधे में सर से पाँव तक डूबे हैं।
    यूं तो ये धंधा बड़ा आराम का है, लेकिन जैसा राहत इंदौरी ने फरमाया:
हमसे पूछो कि ग़ज़ल मांगती है कितना लहू,
सब समझते हैं ये धंधा बड़े आराम का है।
  पर क्या करें, कितना भी लहू से भीगो लें कोई हमें साहित्यकार मानता ही नहीं।
  पर हमें अचानक एक दिन भोलाराम जी के टेलीफोन कॉल ने ब्रह्म ज्ञान दे दिया ! तो यह भोलाराम जी कौन है ?
वास्तव में भोलाराम परसाई जी वाले भोलाराम का पुनर्जन्म है । जो इस जन्म में कवि के तौर पर पैदा हुआ है।
  कवि भोलाराम ने जिंदगी भर पुर्जों पर कविताएँ ठूँसीं और पहुंच गए परमज्ञानी जी के दरबार। "साहब, मेरी कविताएँ छपवानी हैं," भोलाराम ने गुहार लगाई।
  परम ज्ञानी, जो ग्राहकों की टोह में बैठे थे, बोले, "कविता पढ़ने की क्या जरूरत? एक नजर में समझ गया। अरे, तुम तो मनोज मुंतशिर को पानी पिलाते हो! ये तो छपनी ही चाहिए।
परम ज्ञानी जी ने "प्रशंसा का ऐसा बम गिरा कि भोलाराम शहीद-ए-आजम हो गए। तीस दिन में किताब मुद्रणालय से बाहर।
  लेकिन सवाल था—दुनिया को कैसे पता चले कि भोलाराम छप गए? परम ज्ञानी जी ने आँख मारी, "चिंता मत करो, फार्मूला मेरे पास है।
"उनका बैकग्राउंड फार्मूला था—सम्मान बाँटो, भीड़ बटोरो। रामलाल, श्यामलाल, लल्लू, जगदर, भुनगे-बगदर—हर कोई सम्मानित होगा। और हर सम्मानित शख्स अपने साथ बीवी, बच्चे, रिश्तेदार, और शायद गर्लफ्रेंड भी लाएगा। बस, इंस्टाग्राम लाइव के लिए भीड़ जुट गई।
विमोचन का तमाशा यानि आयोजन शुरू हुआ। मंच पर मालाएँ, शाल-श्रीफल, और यशगान के फलक।
मुख्य अतिथि त्रैलोक्य स्वामी से कम नज़र न आते थे।
कुछ अतिथि तो क्षीरसागर में विष्णु की तरह विराजमान लग रहे थे। आयोजन में शहर के नामी-गिरामी और "फुर्सत के रात-दिन" वाले लोग जुटे।
हर वक्ता अपने दिमाग के जखीरे को चटखारे ले-लेकर उवाच रहा था। माइक बार-बार खराब हो रहा था, और आयोजक- सह- मंच संचालक पहली लाइन से लेकर हाल के प्रवेश द्वार तक रेकी करते हुए नजर आ रहे थे । हर आमद पर आए हुए आगंतुक के नाम का उल्लेख करते हुए , अपने कार्यक्रम से जोड़ने वाले मंच संचालक उर्फ आयोजक उर्फ परम ज्ञानी की प्रतिभा को शहर का बच्चा-बच्चा जानता है। उनके व्यक्तित्व पर मेरे जैसे अकिंचन का कुछ कहना सूरज को एलईडी लाइट दिखाने के बराबर है।
परम ज्ञानी लीलाधर कृष्ण से कम नहीं हैं तभी तो, महीने में दो-चार साहित्यिक महाभारत हो जाया करते हैं शहर में..!
इस अप्रतिम दृश्य को देखकर भोलाराम को लगा, वे इंद्र सभा में गंधर्वों के बीच बैठे हैं।

  मंच के सामने दर्शक दीर्घा में पीछे वाली पंक्ति में अपन जी और तुपन जी की कानाफूसी शुरू
हो गई थी।
अपन जी: (कान खोजते हुए) गजब आयोजन! कवि को पैसे वाला होना चाहिए है न?
तुपन जी: बिल्कुल! इसे छठी का पूजन कहां कीजिए ।
अपन जी: तुपन जी, बिल्कुल सही कहा आपने।  अब तो हिंदी साहित्य का ये प्रचंड वेग कोई नहीं रोक सकता!
तुपन जी: प्रचंड? अरे, प्रलयंकारी कहो! हां एक बात कि  तुम भी तो सम्मानित हो रहे हो?
अपन जी: (कलकतिया पान से रंगी खीस निपोरते बोले ) हाँ, भाई, दबाव था, वरना अपन अम्मान सम्मान के चक्कर में पड़ते नहीं।
तुपन जी: अरे, पिछले महीने भी तो तुझे किसी किताब की छटी पर शाल-श्रीफल मिला था?
अपन जी: हाँ, मेरा भी सम्मान हुआ था। सम्मान में मिले श्रीफल की चटनी बनवाई। पाइल्स के लिए मुफीद है, बब्बू भाई बता रहे थे।
तुपन जी: अरे, पाइल्स तो मुझे भी है! आजमाऊँगा।
तभी मंच से चीख: "संस्था ‘दो और दो पांच’ श्री तुपन जी को भी उनकी साहित्य साधना के लिए सम्मानित करती है! यह उनका संस्था की ओर से दिए जाने वाला लाइफटाइम सम्मान है । जोरदार तालियों से इनका सम्मान कीजिए। "
पूरे  हॉल में तालियों की आवाज़ गूंजने लगीं।
तुपन जी भी फट्ट से मंच पर जा पहुँचे, यह अलग बात है कि कथित तौर पर उन्हें सम्मान की दरकार नहीं रहती। खचाखच्च फोटो हैंचे गए, स्वयंभू पत्रकार पर और आमंत्रित पत्रकार वीडियो जर्नलिस्ट ने मंच का घेराव करके फोटो वीडियो रिकॉर्ड किए। तुपन जी के सम्मान की कार्रवाई 5 मिनट के अंदर निपटा दी गई। लाइफटाइम अवॉर्ड के लिए इतना टाइम काफी है।
तुपन जी, लौटते वक्त कलगीदार मुर्गे की तरह दाएं बाएं बैठे दर्शकों  के प्रति आभार प्रदर्शित करते गर्दन हिलाते आभार  जताते, वापस सीधे अपन जी के पास लौट आए।
आज  भोलाराम का साहित्यकार बन जाने का सपना भी पूरा होने वाला था परंतु उनके विमोचित होने के पहले मंच से लगभग बीस सम्मान आवंटित हो चुके थे ।
हॉल में भगदड़ मच गई। उद्घोषक चीख रहा था। सम्मान वितरण में  "कछु मारे, कछु मर्दिसी" वाली स्थिति बन गई थी।
   भीड़ सेल्फी ले रही थी, इंस्टाग्राम रील्स बना रही थी, और यूट्यूब पर लाइव बाइट्स चल रहे थे।
  इस बीच उद्घोषक ने भोलाराम जी को इनवाइट कर लिया। मंच के मध्य में गणेश जी की तरह स्थापित होने के निर्देश का पालन करते हुए  भोलाराम भावुक हो उठे। कभी  उन्हें लगा, वे साहित्य जगत में स्थापित हो गए।
   वे यह महसूस कर रहे थे गोया उनकी एक ओर दिनकर दूसरी ओर भवानी प्रसाद तिवारी जी खड़े दिखते,  यह भी महसूस किया होगा उनने कि माखनलाल चतुर्वेदी , सुभद्रा दीदी बिल्कुल आसपास मौजूद हैं ।
     कभी हॉल में मचे तमाशे देख कर उसे लगा कि वे ठगे गए हैं।
   तभी पीछे से आवाज़ आई - "काय भोलू , कवि कब बन गए रे?
झल्ले की आवाज़ सुन  भोलाराम पानदरीबा वाले भोलू बन गए ।
*****
लेकिन सच यही है साहित्यकार की प्राण प्रतिष्ठा का यह अजीबोगरीब खेल एकदम नया नहीं।
हर शहर में यह तमाशा होता रहता है।
जहां परम ज्ञानी जैसे लोग इसके सर्जनहार, और भोलाराम जैसे कवि इसके शिकार।
साहित्य के नाम पर यह "दूल्हा-दुल्हन आपके, बाकी सब हमारा" का धंधा है।
और हाँ, अगली बार विमोचन में वायरल रील्स का बजट भी जोड़ लीजिएगा।
(नोट: परसाई के शहर में व्यंग्य लिखना अपराध हो, तो यह अपराध बार-बार करूँगा!)
#डिस्क्लेमर: यह व्यंग्य है। किसी व्यक्ति, स्थान, या घटना से इसका कोई लेना-देना नहीं। समानता महज संयोग है।
#गिरीशबिल्लौरेमुकुल 

शनिवार, फ़रवरी 08, 2025

"स्व. भवानी दादा का कृतित्व गीतांजलि प्राण पूजा प्राण धारा : एक लघु पुस्तक समीक्षा"

"स्व. भवानी दादा का कृतित्व गीतांजलि प्राण पूजा प्राण धारा : पुस्तक समीक्षा"
 



स्वर्गीय लुकमान से जब माटी की गगरिया गीत सुनता तो लगता की है अध्यात्म की परा

काष्ठा तक पहुंचने वाला गीत किसने लिखा है ? जल्द ही पता चल गया कि यह दार्शनिक गीत पंडित भवानी प्रसाद तिवारी की लेखनी से निकाला और सीधे मेरे जैसे का जीवन का दर्शन बन पड़ा है। भवानी प्रसाद तिवारी जी यानी हमारे भवानी दादा फ्रीडम फाइटर थे इनका जन्म 12 फरवरी 1912 में हुआ था। पंडित विनायक राव के पुत्र के रूप में सागर में जन्मे इस महासागर की कर्मभूमि जबलपुर रही. पूज्य भवानी दादा का निधन 13 दिसंबर 1977 को हुआ था। वह दौर ही कुछ अलग था जब, कविताई किसी कवि के अंतस में विराजे दार्शनिक व्यक्तित्व को उजागर करता था। गीतांजलि, प्राण- पूजा, प्राण - धारा, जैसी महान काव्य संग्रह, इसी पत्थर के शहर में रहने वाले महान दार्शनिक कवि भवानी प्रसाद जी तिवारी रचे थे। आज के दौर को सीखना चाहिए अपने इतिहास से, जहां कभी अपने सम्मानों की संख्या बढ़ाने के लिए कविता लिखते हैं यह ऐसे लोगों का शहर पहले तो न था। व्याकरण आचार्य कामता प्रसाद जी स्वर्गीय श्री केशव पाठक, तथा उनकी मानस बहन देवी मां सुभद्रा कुमारी चौहान, श्री,भवानी प्रसाद तिवारी, श्री पन्नालाल श्रीवास्तव नूर, पूज्य श्री गोविंद प्रसाद तिवारी, स्व जवाहरलाल चौरसिया तरुण, गीतकार श्री श्याम श्रीवास्तव चाचा जी, परम पूज्य घनश्याम चौरसिया बादल जैसी हस्तियों का शहर साहित्य के के साथ क्या कर रहा है इससे कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। शहर साहित्य के तथा कथित सम्मान वितरण केंद्र के रूप में मेरे लिए दारुण दुख है , आपका नजरिया जो भी हो मुझे माफ करें न करें मैंने अपनी बात खुलकर रख दी है। गीत कविता शहर की तासीर को बता देते हैं कि इस शहर में किस प्रकार की हवा चल रही है। कामोंबेस प्रत्येक शहर में यही कुछ हो रहा है। खैर हम मुद्दे पर बात करें ज्यादा बेहतर होगा। डॉ अनामिका तिवारी जी ने जब पंडित भवानी प्रसाद तिवारी जी की तीन पुस्तकों का समेकन काव्य रचनावली के रूप में कर प्रकाशित कर विमोचन किया उन दिनों मैं भी एक व्याधि से संघर्ष कर रहा था। पिछले महीने ही अचानक भाई रमाकांत गौतम जी ने पूछ लिया - कि आपको काव्यांजलि की जानकारी है ! मैंने अपनी अभिज्ञता अभिव्यक्त की, और पूछा कि यह कृति कहां मिलेगी। गौतम जी ने कृति डॉ अनामिका दीदी से लेकर आने का वादा किया और वादे के पक्के जीवट गौतम जी ने मुझ पर कृपा की। शहर में बहुत से लोग बहुत वादे करते हैं, पूरे आदमी भाव से मुस्कुरा कर गार्डन में मटका मटका कर प्रॉमिस करते हैं और फिर कहां विलुप्त हैं यह वादा करने वाले और उनका अंतस ही जानता है। गीतांजलि के बहुत अनुवाद हुए हैं, इस पर टीकाएं लिखी गईं , पर रवींद्र बाबू के मानस को गीतांजलि के माध्यम से अगर हिंदी के किसी गीतकार ने पढ़ा है तो वे भवानी दादा के अलावा कोई और होगा मुझे विश्वास नहीं है। फिर भी यहां स्पष्ट करना जरूरी है कि आदरणीय भवानी दादा केवल गीतांजलि के अनुगायन के कारण स्थापित हुए ऐसा नहीं है, प्राण पूजा प्राण धारा और गद्य में उनकी मौजूदगी से वे स्थापित साहित्यकार के रूप में युगों युग तक याद किए जाएंगे। आपको याद ही होगा बांग्ला भाषा में विश्व कवि रविंद्र नाथ टैगोर जी की गीतांजलि का प्रकाशन 1910 में हुआ था। गुरुदेव ने इसका अंग्रेजी अनुवाद स्वयं किया था और उसी अंग्रेजी अनुवाद के सहारे पूज्य भवानी दादा ने गीतांजलि लिखी। 1947 में सुषमा साहित्य मंदिर जबलपुर द्वारा प्रकाशित किया गया। यही कृति 1985 में अक्षय प्रकाशन नई दिल्ली द्वारा पुनः प्रकाशित की गई। इसके अतिरिक्त प्राण - पूजा, प्राण- धारा, काव्य संग्रह 70 से 80 के बीच लोक चेतना प्रकाशन से सुधी पाठकों के पास आए थे। इन कृतियों की प्रति अब अनुपलब्ध होती जा रही थीं। बस पुत्रवधू डॉक्टर अनामिका तिवारी ने, अपने ससुर की तीनों कृतियों का समेकित रूप से प्रशासन समग्र के रूप में कराया है। राज्यसभा सदस्य नगर के महापौर तथा अनेकों उपलब्धियां उपाधियां हासिल करने वाले पंडित भवानी प्रसाद तिवारी जबलपुर के अप्रतिम सार्वकालिक हस्ताक्षर कहे जा सकते हैं। भवानी दादा पर उपलब्धियां और पदवियां कभी हावी नहीं हुई। आइए व्यक्तित्व से आप उनके कृतित्व की ओर चलते हैं। अगर हम गीतांजलि की चर्चा करते हैं तो गीतांजलि रविंद्र नाथ टैगोर जी की वैश्विक कृति है। भवानी दादा ने हम हिंदी वालों का परिचय गुरुदेव रविंद्र जी से कराया है। हम आपके इस कर्ज को चुका नहीं सकते। संग्रह को प्रकाशित करने वाली पुत्रवधू डॉक्टर अनामिका तिवारी ने अपने ससुर जी के बारे में लिखा कि वे कविता नहीं लिखते थे बल्कि कविता जीते थे। उनकी ही बात अपनी शैली में कहना चाहता हूं कि जीवन ने उन्हें कविता दी और कविता ने उन्हें उनकी अनुपस्थिति में जीवंत कर दिया। गीतांजलि के गद्य को हिंदी में अनुचित करने वाले भवानी दादा प्रोफेशनल ट्रांसलेटर के समान नजर नहीं आते बल्कि ऐसा लगता है कि गुरुदेव और भवानी दादा के मन मानस में एक ही नर्मदा प्रवाहित रही होगी। इस बात की पुष्टि बिना लाग- लपेट के भवानी दादा के व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा करने वाले आचार्य (डॉ) हरिशंकर दुबे भी करते हैं। वे कहते हैं कि दादा ने गीतांजलि को महसूस करके उसका अनुवाद किया है, । अगर कोई कभी संगीत की सरगम से भली भांति परिचित हो तो उसके गीत का गेय होना स्वाभाविक है। परंतु बंगाल से अंग्रेजी अंग्रेजी से हिंदी यानी भाषा तीसरे पड़ाव में आकर शब्द अर्थ और संगीतिक परिवर्तन कर सकती है परंतु, गीतांजलि के मामले में ऐसा कुछ नहीं है। संगीतकार अगर गीतांजलि के हिंदी वर्जन का कंपोजीशन तैयार करें तो उन्हें बिल्कुल कठिनाई नहीं होगी यह मेरा दावा है। यह दावा इसलिए भी कर रहा हूं क्योंकि माटी की गगरिया गीत सुनकर लोगों को नाचते हमने देखा है। लुकमान शेषाद्री जब इस गीत को गया करते थे पूरा माहौल भौतिक एवं आध्यात्मिक नर्तन के लिए बाध्य हो जाता। अगर यहां एक भी कविता का उदाहरण पेश किया तो आपकी पढ़ने की इच्छा कदाचित कम न हो जाए इसलिए मैं आग्रह करूंगा कि आप यदि कवि है तो इस कृति को अवश्य पढ़ें क्योंकि, आपके मस्तिष्क सार्वकालिक गीत रचना का साहस बढ़ जाएगा। फिर भी बात ही देता हूं मैं नहीं जानता मीत कि तुम कैसे गाते हो मधुर गीत ! यह तो एक उदाहरण मात्र है। भवानी दादा गीत लोक व्यवहार के गीत हैं , जिनको दार्शनिक एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण से परखें तो उनके गीत सकारात्मक जीवन दर्शन अनावरित करते हैं। पूज्य भवानी दादा का समकालीन वातावरण कुल मिलाकर केवल पॉलिटिकल नहीं था स्वतंत्रता के लिए संघर्ष और उसमें शामिल व्यक्तित्व विराट भावी हुआ करते थे। जिसका प्रभाव उनके सृजन पर देखा जा सकता है। फिर चाहे निराला फणीश्वर नाथ रेणु गोपाल दास नीरज हरिवंश राय बच्चन, जैसे महाकवि क्यों न हों? कृति पर चर्चा अंतिम नहीं है, यह एक परिचय मात्र है,। उनकी जीवनी रचनाकारों के लिए एक नया मार्ग प्रशस्त करती है जो कविताई को पुरस्कार का मार्ग बनाते हैं। उनके लिए भी जो मंच पर सस्ती लोकप्रियता के लिए आधे आधे घंटे तक चुटकुले बाजी करते हैं जिसे टोटका कह सकते हैं और फिर शब्दों की स्वेटर दिखा दिया करते हैं।






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