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रविवार, अगस्त 04, 2024

Eternal. | सनातनी अस्थि-पंजरों पूजन न करें..?

   बहुत दिनों से यह सवाल मेरे मित्र मुझसे पूछते थे। सनातन में अस्थि कलश विसर्जित किया जाता है। क्योंकि शरीर और प्राण दो अलग-अलग वस्तु है। कतिपय सनातनी उन स्थानों की पूजा करते हैं जहां शरीरों को प्रथा अनुसार मृत्यु के बाद भूमिगत कर दिया जाता हैं ।
 सनातनी लोगों के लिए ऐसा करना वर्जित है। 
    सामान्यतः  सनातन धर्म में देह को प्राण के देह से निकल जाने के बाद अग्नि को समर्पित कर दिया जाता है उसकी अस्थियों एवं भस्म को गंगा या अन्य पवित्र नदी को सौंपा जाता है।  मृतक के मरने के 11 दिन बाद शरीर से पृथक हुए प्राण को पूर्वजों के साथ मिलाकर ब्रह्म के अर्थात परम उर्जा में समाविष्ट करने का नियम है। तदुपरांत सवा महीने तक दिवंगत आत्मा की स्मृति में ऐसे कार्य जो विलासिता की श्रेणी में आते हैं को संपन्न करने कराने की अनुमति सनातन में नहीं है।
सनातन ऐसे किसी विषय को रुकता नहीं है जिसमें कि किसी परिवार का हित छुपा हुआ हो। उदाहरण के तौर पर विवाह संस्कार रोजगार के लिए पर्यटन इत्यादि। क्योंकि सनातन व्यवस्था में विकल्पों का महत्व है तथा जीवन चर्या के लिए विकल्प भी मौजूद है ऐसी स्थिति में मृत्यु के उपरांत उत्तर कर्मों की काल अवधि में परिवर्तन किया जा सकता है। उदाहरण स्वरूप स्थाई नियम है किसी की मृत्यु के 1 वर्ष उपरांत घर में शुभ कार्य हो सकते हैं। परंतु आवश्यकता पड़ने पर 12 माह उपरांत होने वाली बरसी की तिथि में परिवर्तन किया जा सकता है। यहां तक कि अगर विवाह जैसा कार्य संपादित किया जा रहा हो और उसी समय परिवार में कोई मृत्यु हो जाए तो उत्तर कर्म तथा विवाह समानांतर रूप में संपन्न किए जा सकते हैं। सनातन कट्टर व्यवस्था को विकल्पों के तौर पर समाप्त करने की सलाह देता है। सनातन का हर संप्रदाय अपने अपने नियम बनाता है। इससे सनातन के मूल स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। सनातन धर्म है ना कि सांप्रदायिक व्यवस्था। सनातन जिस ईश्वर की कल्पना करता है वह ईश्वर प्रत्येक जीव के साथ समानता का व्यवहार करता है। सनातन का  अनुसरण करने वाला व्यक्ति चाहे वह शैव वैष्णव अथवा शाक्त हो सभी में एक ही ब्रह्म की अवधारणा दृढ़ता से समाहित होती है।
    स्वर्ग और नर्क की परिकल्पना मूल रूप से सनातन में नहीं की गई। ऐसी मेरी अवधारणा है सर्वमान्य ग्रंथों में स्वर्ग नरक की परिकल्पना नहीं है।  ब्रह्म एक परम ऊर्जा है। हमारे प्राण उसी परम उर्जा का अंश होते हैं। प्रतीकात्मक रूप से हम सनातन धर्म के अनुयाई मृतक के पिंड अपने पूर्वजों के  पिंडों के साथ मिलाकर सहपिंडी की प्रक्रिया का निष्पादन करते हैं। यह अनुष्ठान हम निरंतर करते हैं कहीं-कहीं  पुण्यतिथि पर अथवा श्राद्ध पक्ष में।
  यह वैज्ञानिक सत्य भी है। केवल हम उन शरीरों को भस्मी भूत करते हैं। विशेष परिस्थिति में समाधि देने का भी प्रावधान है। परंतु ऐसा सामान्य रूप से नहीं होता। मित्र को मेरी सलाह थी कि-" हम अमर आत्मा की पूजन करते हैं अगर वह हमारे पूर्वज है तो अगर समकक्ष या छोटी उम्र के हैं तो उन्हें श्रद्धा सहित आमंत्रित कर उनका स्मरण करते हैं। यह परम सत्य है कि आत्मा नामक ऊर्जा का मिलन अगर प्रमुख ऊर्जा अर्थात ब्रह्म से नहीं होता तो वह या तो पुन: जन्म लेती हैं ,अथवा ऐसी आत्माएं जन्म लेने के लिए किसी भी योनि में प्रविष्ट हो  सकती है। हमारी सनातनी मान्यता है कि हमें उन आत्माओं की प्रति तर्पण जैसी प्रक्रिया करने से आत्मा जिस योनि में जन्म लेती है को आत्मिक सुख का अनुभव होता है। 
हमें किन लोगों की समाधि पर पूजन करनी चाहिए
हमें केवल ऐसी मृत समाधिष्ट    महा ज्ञानियों तपस्वियों और ब्रह्मचारीयों की पूजन करने की आज्ञा है जो ऋषि परंपरा एवं लौकिक जीवन में जीव ब्रह्म के अनुरूप आचरण कर चुके हैं। ऋषि परंपरा के दिवंगत व्यक्तियों की समाधि यों को छोड़कर अन्य किसी भी मत एवं संप्रदाय के मृतकों की समाधि की पूजा करना वर्जित है इन समाधियों में नर कंकाल के अलावा कुछ नहीं होता।
यह भी मान्यता है कि जो लोग मृत शरीरों को संभाल कर रखते हैं तथा उनकी पूजन करते हैं उससे कुलदेवी या कुलदेवता रुष्ट हो जाते हैं। क्योंकि हमारी कुल की रक्षा कुलदेवी या कुलदेवता द्वारा की जाती है। कुलदेवी अथवा कुल देवता हमारे कुल की रक्षा और उन्हें सतत आशीर्वचन देने का दायित्व निभाते हैं। किंतु हम भ्रमित होकर अन्य संप्रदायों से संबंधित व्यक्तियों की समाधि पर आराधना करना सनातन में वर्जित है। ऐसा करने से कुलदेवी अथवा कुलदेवता के प्रति आपका अविश्वास प्रकट होता है। ऐसी स्थिति में जो सनातनी व्यक्ति है उसे कभी भी किसी अन्य संप्रदाय के प्रति आस्था रखने वालों से संबंधित समाधि पर ना तो जाना चाहिए और ना ही उन पर विश्वास ही करना चाहिए। क्योंकि हम अस्थि पूजक नहीं है बल्कि हम ब्रह्म के आराधक हैं। हमारी कुल देवी या देवता के प्रति आस्था ना रखते हुए हम अगर अन्य किसी पर विश्वास करते हैं तो यह अपने ही कुल देवी या देवता के प्रति सकारात्मक श्रद्धा से खुद को अलग कर लेते हैं। जिनके घर में श्राद्ध पक्ष एवं कुलदेवी और कुलदेवताओं का पूजन किया जाता है उन्हें किसी अन्य गैर सनातनी व्यक्ति की समाधि पर जाना शास्त्र सम्मत नहीं है भले ही वे कितने महत्वपूर्ण क्यों न हों। 
   आज से ही जो भी कब्रों दरगाह अथवा ऐसे किसी स्थान पर जाते हैं जहां उन्हें भ्रम होता है कि उनकी मनोकामना पूर्ण होगी । वास्तव में यह भ्रामक प्रचार के कारण होता है। पंडितों एवं आचार्यों को चाहिए कि वे इस संदेश को हर तरफ विस्तारित करें। 
  हां यदि आप अन्य किसी संप्रदाय को मानते हैं तो आप यह सब कर सकते हैं , इसे हमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए । परंतु सनातन धर्म के माननीय वालों के लिए यह सब वर्जित है।
#YouTube पर इससे संबंधित पॉडकास्ट सुनिए 
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सोमवार, जुलाई 15, 2024

बीएसएनल टाटा कोलैबोरेशन : विश्व को भारत का संदेश

  बीएसएनल टाटा कोलैबोरेशन : विश्व को भारत का संदेश
  भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ-साथ भारत की व्यापारिक बुद्धिमत्ता को कमजोर साबित करने वाली विचारधारा को आज गहरा झटका महसूस हो रहा होगा। टाटा के साथ कोलैबोरेशन करके भारत ने विश्व को यह बता दिया है कि हम चीन पर उतना निर्भर नहीं है जितना समझा जाता रहा है।
   कॉविड-19 आने से पहले भारत लगभग यह सुनिश्चित कर चुका था कि -"चीन की कंपनियों के साथ भारत की सरकारी कंपनी का अनुबंध भारत में संचार क्रांति को एक नया स्वरूप प्रदान कर देगा..!"
    कॉविड-19 के दोनों एपिसोड के बाद चीन की संदिग्धता, विश्व व्यापी हो चुकी है। अगर भारत का बीएसएनल सशक्तिकरण का प्रोजेक्ट चीन के साथ नए स्वरूप में आता तो तय था कि हम अपनी न  केवल गरिमा को काम करते बल्कि हमारी चीन पर निर्भरता भी स्पष्ट रूप से बढ़ जाती।
     सूत्रों की मानें तो दूरसंचार के क्षेत्र में चीन की कंपनियों  के साथ भारत का करार एक नई किस्म की मोनोपोली को स्थापित कर देता। इसमें कोई शक नहीं कि चीन के साथ हमारे आर्थिक संबंध बेहद सकारात्मक हैं ।
परंतु हमें अपने अस्तित्व और भारत के वैश्विक महत्व को बनाए रखने के लिए आंतरिक रूप से मजबूत बने रहने की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता।
    जानकार बताते हैं कि भारत की सरकारी कंपनी बीएसएनएल और चीन की संचार कंपनियों के साथ हुए समझौता अगर पूरा हो जाता तो 3G के बाद सारे संचार बदलाव में चीन का हस्तक्षेप बढ़ जाता।
आपको याद होगा कि जुलाई 2020 के पूर्व भारत सरकार ने चीन के 59 ऐप्स सुरक्षा के मद्देनजर रद्द कर दिए थे। और फिर जुलाई 2020 में 4G सेवाओं को अपग्रेड करने वाले 4 टेंडर भी रद्द किए गए थे।
मुख्य रूप से चीन ने कंपनियों के जरिए विभिन्न देशों के सुरक्षा प्रबंधन पर भी निशाना साध लिया था। भारतीय सुरक्षा को लेकर उठाए गए इस कदम को एक टर्निंग पॉइंट कहा जा सकता है।
    भारत सरकार ने घाटे में चल रहे BSNL के वित्तीय स्वास्थ्य को सुधारने लगभग 8 हजार करोड़ रुपए की सहायता BSNL को देते हुए कहा था कि - भारतीय संचार क्षेत्र में उपयोग में चीन से आयातित 75% इक्विपमेंट्स का निर्माण भारत में ही हो।
अब  इक्विपमेंट्स के मामले में भारत की चीन पर निर्भरता कम होने लगी है।
    टेलीकॉम क्षेत्र को  भारत सरकार मजबूत बनाने के लिए R & D यानी  शोध एवं विकास पर खर्च करने की दिशा में तेजी से बढ़ रही है।
  भारत सरकार के उपक्रम BSNL ने टाटा के साथ किए समझौते के बाद प्रायवेट कंपनियों पर भी नकेल कसने का काम किया है
   इसके अलावा भारत के भीतर संचार क्षेत्र को एयरटेल जिओ और वी आई जैसी कंपनियों पर निर्भर रहना पड़ता।
    वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत, चौथे और पांचवें जनरेशन के स्पेक्ट्रम के मेंटेनेंस और उपभोक्ता के हितों को संरक्षित रखने का दायित्व टाटा का होगा।
  संचार क्षेत्र में टाटा की मौजूदगी से केबल ऑपरेटर को भी रोजगार मिलने की अपार संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
    कुल मिलाकर जहां एक और यह समझौता वैश्विक व्यापार व्यवस्था को भारत की आत्मनिर्भरता का संदेश देता है वहीं दूसरी ओर आंतरिक ढांचा गत सुधार को भी
मजबूत करने का प्रयास है।
    टाटा के साथ बीएसएनल के जुड़ाव का समाचार तब तक अधूरी रहेगी क्योंकि अभी तक हमने स्टार लिंक के एलॉन मुस्क की चर्चा नहीं की है। एलॉन मस्क की कंपनी स्टार लिंक हमारे देश में संचार क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण सहयोगी साबित होगा।
आप सोच रहे हैं कि स्टारलिंक , BSNL के लिए किस प्रकार से सहायक होगी ?
     स्टारलिंक सैटेलाइट अन्य जियोस्टेशनरी सैटेलाइट की तुलना में कम ऑर्बिट में हैं, जिससे तेज इंटरनेट कनेक्टिविटी देना काफी आसान हो जाता है.
टेस्ला, स्पेसएक्स एवं स्टार लिंक के सीईओ एलन मस्क (Elon Musk) अपनी स्टारलिंक (Starlink) इंटरनेट सर्विस के जरिए 80 देशों को वैश्विक इंटरनेट सेवा का विस्तार करना चाहते हैं। पिछले दिनों उनकी भारत यात्रा के सुखद परिणाम को आप अवश्य ही देखेंगे। 

शुक्रवार, जुलाई 12, 2024

क्या 2025 में सोने की कीमतें स्थिर हो जाएंगी ?

विश्व बैंक के मुताबिक, साल 2024 में सोने की कीमत औसतन 2,100 डॉलर प्रति औंस रहेगी
   यह अनुमान इस बात पर आधारित है अंतरराष्ट्रीय तनाव की स्थिति पर।
हम सब जानते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय तनाव अथवा  संघर्ष के कारण वैश्विक रूप से पूंजी निर्माण एवं व्यापार अनिश्चितता बढ़ सकती है,
   मूल्यवान धातुओं के मूल्य में तेजी से उछाल भी इसी कारण आता है।
आईएनजी का अनुमान है कि साल 2024 में सोने की कीमत औसतन 2,031 डॉलर प्रति औंस रहेगी, जबकि चौथी तिमाही में इसका औसत 2,100 डॉलर प्रति औंस रहेगा. यह तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगाए गए अनुमान हैं। आईए भारत के संदर्भ में सोने की कीमतों के संबंध में हांबचर्चा करते हैं
*2025 के बाद आएगी सोने में स्थिरता..!*
सवाल यह है कि क्या भारत में सोने की कीमतों में भविष्य में स्थिरता आ सकती है।
यह समकालीन परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
   भारत में सोने की कीमत का अनुमान कई आर्थिक विकास एवं राजनीतिक परिस्थितियों के अधीन है।  पर निर्भर    
        विश्लेषकों का अनुमान था कि साल 2024 के अंत तक सोने की कीमतें लगभग ₹75,000 प्रति 10 ग्राम तक पहुंच सकती हैं. परंतु सोने की कीमतों में विश्लेषकों के अनुमान को गलत साबित करते हुए पहले 6 महीनों  में ही बढ़त बना ली है।
कुछ अनुमानों के मुताबिक, साल 2024 के अंत तक सोना की कीमत 80 हज़ार से एक लाख रुपये तक पहुंच जाएगी इससे स्पष्ट है कि सोना लगभग ₹100000 प्रति 10 ग्राम वर्षांत के पूर्व ही हो सकता है।
    साल 2025 तक 10 ग्राम सोने की कीमत एक लाख तीस हजार से अधिक नहीं होगा। वर्तमान में कम मूल्य वाले स्टॉक पर निवेश बढ़ाना जारी है। परंतु टैक्सेशन को देखते हुए मध्यमवर्ग  पूंजी बाज़ार विनियोग के लिए मानसिक तौर से तैयार नहीं है।
    अर्थव्यवस्था का वित्तीय विश्लेषण एवं मध्य वर्ग के पूंजी निर्माण की दर को देखकर लगता है कि - "वह अपनी बचत विनियोजित में ही विनियोजित करेगा।"
मध्य वर्ग का पूंजी निवेश तब तक सोने में होता रहेगा जब तक कि सोने की कीमतों में 2015 और 2018 के बीच बीच की स्थिरता न बने। ऐसा लगता है कि 2025 में सोने के मूल्य में स्थिरता के संकेत नहीं हैं।
आपने देखा होगा 2019 में अचानक 56% की वृद्धि के साथ सोने में उछाल आना शुरू हो गया था। सोने की कीमतों में यह वृद्धि आंशिक  उतार-चढ़ाव के साथ 2030 तक जारी रहने की संभावना है।
*वर्तमान में सोने में उछाल का प्रतिशत मासिक रूप से 3.9 रहा है जबकि वर्तमान  तिमाही में  2.4 प्रतिशत वृद्धि मापी की गई।
6 माह एवं 1 वर्ष में हुई बढ़त पर नजर डालें तो  17.9% तथा 24.7% वृद्धि दर है।*
  *कुल मिलाकर  पिछले 5 वर्षों में कीमतों में बढ़ोतरी 117.7% के साथ उच्चतम स्थान पर है।*
   अगर सरकार आयकर पर अधिकतम सीमा को बढ़ा देती है तो देखा जा सकता है कि स्वर्ण कीमतों में और अधिक वृद्धि हो सकती है।
   बहरहाल केवल अनुमान है, वास्तविकता तो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों पर निर्भर करती है। सोने की कीमतों में स्थिरता की कल्पना फिलहाल करना गलत होगा।
   समसामयिक परिस्थितियों तो यही संकेत दे रही हैं।
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मंगलवार, जुलाई 02, 2024

भारत का मध्यम वर्ग ही भारत का सॉफ्ट पावर है

     6 दिसंबर 2011 को अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने एक भाषण में आर्थिक विकास में मध्य वर्ग की भूमिका को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा था, “एक कमजोर मध्य वर्ग पूरे देश के आर्थिक विकास को बाधित करता है। मजबूत विकास के लिए सशक्त मध्य वर्ग जरूरी है। जब कंपनियों के उत्पाद और सेवाओं को खरीदने में मध्यवर्गीय परिवारों की क्षमता घटने लगती है, तो अर्थव्यवस्था में ऊपर से नीचे तक सब कुछ गिरने लगता है। असमानता हमारे लोकतंत्र को विकृत करती है क्योंकि इससे वे चुनिंदा लोग ही अपनी आवाज उठा पाते हैं जिनके पास लॉबिंग और प्रचार के लिए पैसा होता है।”
   उपरोक्त समाचार शायद आपने पढ़ा होगा। यदि नहीं पढ़ा तो हू बहू काफी पेस्ट किया है। 
   किसी भी राष्ट्र की समृद्धि और उसके हैप्पीनेस इंडेक्स के सकारात्मक परिवर्तन के संदर्भ में बराक ओबामा कार्य है कथन पूरी तरह सही और सटीक माना जा सकता है 
  यहां हम मध्यम वर्ग को विकास के संदर्भ में विश्लेषित करेंगे।
   मिडिल क्लास की परिभाषा क्या है
उसे जनसंख्या और प्रति व्यक्ति वार्षिक आय के पैरामीटर पर कैसे समझा जाएगा इस पर बहुत सारी पाठ्य सामग्री
पब्लिक डोमेन पर पहले से ही मौजूद है
अतः इस पर चर्चा करना जरुरी नहीं। 
   मार्क्स से प्रभावित साहित्यकारों एवं विचारकों की अवधारणा जो भी कुछ हो
बदलते परिवेश में मध्य वर्ग के प्रति सकारात्मक विचार विमर्श की आवश्यकता है। 
   दावा यह किया जा रहा है कि साल 2047 भारत मिडिल क्लास वर्ग की आबादी 100 करोड़ से भी अधिक हो सकती है। 
   मध्य वर्ग की आबादी बढ़ने से भारतीय अर्थ तंत्र आमूल चूल परिवर्तन की नज़र आएगा। मध्य वर्ग की संख्यात्मक वृद्धि से टैक्स की परिधि में संख्यात्मक एवं गुणात्मक वृद्धि भी होगी
  विश्व के मध्यवर्ग विशेषता है कि वह टैक्स पूरी इमानदारी के साथ चुकाता है
  मध्य वर्ग जहां एक ओर पूंजी पति संस्थाओं के लिए आक्सीजन है वहीं दूसरी ओर निम्न वर्ग के लिए तुरंत मिलने वाला शैल्टर भी हो जाता है।
  गरीब व्यक्तियों परिवारों के लिए फाइलों के सहारे प्राप्त होने वाली सुविधा एवं सहायता से पहले मध्य वर्ग की सहायता उस तक से पहले पहुंचती है।
    अब स्थिति यह है कि -" मध्यवर्ग कीमतों में अत्यधिक उतार चढ़ाव के कारण अपने मासिक और वार्षिक बजट में स्थिरता नहीं ला पा रहा है।"
  नरेंद्र मोदी जी ने प्रधानमंत्री बनने के पश्चात अमेरिका के मेडिसिन स्कवॉयर में अपनी भाषण में कहा था कि हम निजी सेक्टर के साथ-साथ व्यक्तिगत सेक्टर होगी संरक्षित करेंगे।
  इसका संकेत यह माना जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने आर्थिक परिपेक्ष्य में  मध्यम वर्ग के सॉफ्ट पावर का एम्पॉवरमेंट की कोशिश करने का संकेत दिया था।
   किसी भी देश की इकोनॉमी का आंतरिक पक्ष तभी चमकदार हो सकता जब उसे देश का मध्यम वर्ग मजबूत होता है 
   सवाल यह है कि भारत के संदर्भ में देखा जाए तो भारत का मध्यम वर्ग क्रमशः अपनी योग्यता कार्य कुशलता और संघर्ष शीलता के कारण भारत के संपूर्ण विकास में महत्वपूर्ण स्थान दर्ज कर लिया है।
  वर्ष 2013 में मध्यम वर्ग की औसत आमदनी 4.4 लाख रुपए वार्षिक थी
लेकिन वर्तमान में यह आय बढ़कर 13 लाख से अधिक हो चुकी है।
  स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के रिसर्च से पता चलता है कि 2047 तक भारतीयों की आमदनी 49.9 लाख रुपए सालाना हो जाएगी।
   2021 तक माध्यम वर्ग 432 मिलियन भारतीयों का समूह था जो जनसंख्या का लगभग 31% है
  वर्ष 2005 में जनसंख्या के सापेक्ष 14% लोग मध्य वर्ग में थे।
  उपरोक्त आंकड़ों से पता चलता है कि 
मध्य वर्ग का आकार बढ़ रहा है।
   भारत में सबसे निम्न मध्यम वर्ग को औसत दैनिक आय 17 अमेरिकी डॉलर तथा उच्च मध्य वर्ग की 100 अमेरिकी डॉलर  महत्वपूर्ण आंकड़ा है
औसत रूप से प्रत्येक मध्य वर्गी परिवार के पास काम से कम ₹8 लाख की संपत्ति अवश्य होती है।
   देखने में यह स्थिति बेहद आकर्षक और हैप्पीनेस इंडेक्स को ऊपर प्रदर्शित करने वाली लग रही है। परंतु भारत में प्राइस इंडेक्स में निरंतर परिवर्तन से मध्य वर्ग द्वारा कैपिटल जेनरेशन करने में कठिनाई उत्पन्न हो रही है।
  मध्य वर्ग की दूसरी हम कठिनाई है आयकर जो उसे पूंजी निर्माण के लिए सबसे बड़ी बाधा बनकर तैयार है।
   मध्यमवर्ग के पास चिकित्सा और शिक्षा पर असीमित खर्च की समस्या भी चिंता का विषय है। 
  अगर मौलिक जरूरतों जैसे चिकित्सा शिक्षा को ध्यान में रखा जाए तो सामान्य मध्य वर्गी व्यक्ति को परिवार में आकस्मिक बीमारियों के इलाज के लिए कर्ज यह पारिवारिक सहायता की आवश्यकता महसूस होती है।
परंतु दूसरा पहलू यह भी है कि मध्यमवर्गीय परिवार शो ऑफ करने में पीछे नहीं होते। उनके वैवाहिक एवं रिचुअल्स के आयोजनों पर होने वाले खर्च करने की प्रवृत्ति का फायदा बाजार बाकायदा उठा रहा है।
  मध्यमवर्ग को अगर अपना पारिवारिक अर्थ तंत्र मजबूत रखना है तो यह जरूरी है कि उसे अपने अनावश्यक खर्चो को सीमित कर देना चाहिए।
   उसकी यह बचत राष्ट्रीय बचत में शामिल होगी। जो स्वयं मध्य वर्गी एवं राष्ट्र के लिए महत्वपूर्ण होती है।
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शनिवार, जून 29, 2024

भारत के लिए खतरे की घंटी : आयातित विचारधाराओं द्वारा स्थापित नैरेटिव

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क्या भारत को आयातित विचारधारा द्वारा स्थापित नैरेटिव से खतरा है ?
कुछ बिंदुओं पर विचार करने के बाद महसूस होता है कि  अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस तरह का ही प्रयास जारी है।

   श्रोताओं  नमस्कार जय भारत जय हिंद वंदे मातरम , 
   डिजिटल इनफॉरमेशन इंडस्ट्री  अब एक भयावह चौराहे पर आ चुकी है ।
कई बार तो महसूस होता है कि अब बंदरों के हाथों में उस्तरे पहुंच  चुके हैं यह स्थिति खतरनाक भी है।
न्यू मीडिया मनोरंजक कंटेंट की आड़ में  बहुत कुछ ऐसा परोस रहा है जो आम आदमी का ब्रेनवॉश करने में सफल होता है।
  यूरोप और अमेरिका ने भयानक तौर पर नस्लवाद का मंजर देखा है इन्ही  यूरोपीय देशों और अमेरिका के मीडिया संस्थान  भारत में जाति प्रथा, आदि को  लेकर सर्वाधिक नकारात्मक टिप्पणियां करते नज़र आते हैं।
सिंध एवं बलोचिस्तान के लोगों को ला पता करने वाले पाकिस्तानी प्रशासन  एवं  चीन के उइगर मुस्लिमों पर चुप्पी साधने वाले , पश्चिमी देशों के मीडिया घरानों ने
बताते फिरते हैं कि भारत आज भी जातिवाद और पिछड़ेपन की गिरफ्त में है।
  ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन यानी बीबीसी बे लगाम होकर भारत के मामलों में इस  अदा से कंटेंट परोसता है जिससे प्रतीत हो कि भारत में सामाजिक सांस्कृतिक असमानताएं आज भी मौजूद हैं।
जबलपुर में डिप्टी कमिश्नर के पद पर फुलर नामक एक प्रशासनिक अधिकारी था। वह भारतीयों से ठीक उसी तरह से घृणा करता था जैसे वेस्टर्न चर्चिल भारत के लोगों से घृणा का रिश्ता रखते थे। इसके अलावा दक्षिण एशिया देश  एवं अफ्रीकन ट्राइब को लूटने वाले अधिनायक वादी देश के मीडिया में भारत को जाति प्रथा के नाम पर लांछित किया जाता है
सब जानते हैं कि बीबीसी जैसे संचार संस्थान ब्रिटिश सरकार के वित्त पोषण से जीवंत  है। बीबीसी बी अपने मंतव्य को स्थापित करने में कभी पीछे नहीं रहता।
अब हम आते हैं नए दौर में डिजिटल मीडिया की ओर
जिसने  तूफान सा मचा दिया है
  डिजिटल एवं  इलेक्ट्रॉनिक मीडिया  शुद्ध रूप से  मीडिया एक व्यावसायिक ढांचा है । इनको विज्ञापनों के लिए  टीआरपी की जरूरत होती है।
ओटीटी पर प्रसारित होने वाले अधिकांश धारावाहिक एवं फिल्मों में सवर्ण और दलित, जैसे शब्दों को पूछा जाता है।  विशेष रूप से ब्राह्मणों को टारगेट करके नकारात्मक रूप से प्रस्तुत किया जा रहा है।
अब आप ही सोचिए भारत में जातिवादी व्यवस्था अगर आज चरम  पर है तो यह कैसे हो रहा कि आपको मिलने वाला हर दूसरा या तीसरा वैवाहिक आमंत्रण पत्र अंतरजातीय विवाह का होता है।
कभी सोचा है आपने शायद नहीं तो अब सोचिए प्रतिकार कीजिए।
ओटीटी प्लेटफॉर्म के पास या तो अच्छे लेखकों  का अकाल  है, अथवा इसके पीछे कोई अर्थशास्त्र कम कर रहा है।
   सूचना संचार माध्यमों के द्वारा इन दिनों  आपको  जो विषय वस्तु कहानी कथानक और नैरेटिव्स परोसे  जा रहे हैं उसके बदले आप उन्हें पैसा भी देते हैं और समय भी खर्च करते हैं। यदि आप पैसा कर रहे हैं तो आपको एक सलाह है कि कृपया अच्छी किताबें खरीद लीजिए और किताबों से बात कीजिए।
न्यू मीडिया में ओटीटी प्लेटफॉर्म के अलावा ऑडियो माध्यमों की दुकान से सजी हुई हैं । इन दुकानों से सूचना और समाचार खरीदने हैं ।  इंटरनेट या ओटीटी प्लेटफॉर्म  पर पैसा और समय खर्च करके। भारतीय मूल का मीडिया अंतरराष्ट्रीय मीडिया बाजार का एक हिस्सा है। वह प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ है इसमें कोई शक नहीं।
  पर जब इनके सहारे नकारात्मक मंतव्य को स्थापित करने के प्रयास होते हैं तो लगता है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर भारत में कुछ नकारात्मक करने की कोशिश की जा रही है।
 
ओटीटी एवं social media साइट्स एवं ऐप्स के जरिए तक पहुंचने वाले कंटेंट में जातिवादी समाज, सांप्रदायिक असहिष्णुता जैसी विषय को बेहद चतुराई से प्रस्तुत किया जा रहा है।
  भूतपूर्व ट्विटर जो अब अभूतपूर्व एक्स बन चुका है, इस सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर पिछले दिनों भारत में जाति भेद फैलाने वाले मुद्दे को तेजी से हाईलाइट किया गया।  किसी एक पुस्तक के हवाले से कहा गया कि नालंदा विश्वविद्यालय को जलाने वाला बख्तियार खिलजी नहीं था बल्कि ब्राह्मण थे। वैसे इस तरह के मीडिया अपनी ऑडियंस के विस्तार के लिए ब्राह्मणों को सबसे सॉफ्ट टारगेट मानते हैं। YouTube पर तो नव बौद्धों के अलावा प्रगतिशीलता के नाम पर साहित्य प्रस्तुत करने वालों की भीड़ सी आ गई है।
यह सब आयातित विचारधारा के पुरोधाओं का मिशन है। इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता  कि सामाजिक अस्थिरता पैदा करने के लिए फाइनेंशियल सपोर्ट सिस्टम भी काम कर रहा हो।
यह सब आयातित विचारधाराओं के द्वारा किया जा रहा है इसमें कोई दो राय नहीं।
भारत में निवास करने वाली से सभी जातियों को ध्रुवीकृत किया जा सके। यानी उनका पोलराइजेशन किया जा सके। इसके अपने राजनीतिक उद्देश्य हो सकते हैं परंतु निर्वाचन के उपरांत इसका एकमात्र उद्देश्य यह समझ में आ रहा है कि आयातित विचारधारा पर आधारित इस नैरेटिव को रचने वालों ने भारत में अनरेस्ट पैदा करने की कोशिश की है ।
इतिहास के संदर्भ में यह  पूरी तरह से इरेलीवेंट नैरेटिव, है जो  एक्स  से निकलकर कई सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स पर इधर से उधर फुदकता दिखाई दे रहा है।
  सोचिए एक स्थापित और प्रमाणित इतिहास को झूठा साबित करने वाला नैरेटिव टीवी चैनलों के लिए मसाला था। समाज पर इसका क्या असर हो रहा है शायद  डिजिटल युग के मनोरंजन एवं सूचना उद्योग को कोई लेना-देना नहीं।
मनोरंजन एवं सूचना उद्योग के मालिकों के लिए यह मुद्दा केवल लाभ का स्रोत बन चुका है।
   बहुत से यूट्यूबर नालंदा विश्वविद्यालय को जलाए जाने वाले इस मुद्दे  पर विशेषज्ञ बनकर कुकरमुत्तों के रूप में विमर्श करते नजर आ रहे हैं।
   इरफान हबीब ब्रांड इतिहास करो नहीं तो चुप्पी साध ली है इस मुद्दे पर।
यही पता चलता है कि आयातित विचारधारा हम पर किस तरह से हावी है।
  ग्लोबलाइजेशन एवं डिजिटल क्रांति  के बाद  न्यू मीडिया अर्थात सोशल मीडिया को अचानक बहुत बड़ा अवसर हाथ लग गया है।
न्यू मीडिया कब भस्मासुर बन जाए कहां नहीं जा सकता।
  अपनी संप्रभुता बचाए रखने के लिए प्रजातांत्रिक सरकारों को इसे नियंत्रित करने की पहला जरूर करना चाहिए।
  आप सब जानते हैं,  यूरोपीय के  आक्रामक मीडिया  कॉन्सेप्ट  एवं  आईडियोलॉजी के बारे में ।
जिसने गरीब और प्रगतिशील देशों   पर भी प्रभाव छोड़ा है। जिसमें भारत भी शामिल है। भले यह विश्व की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था हो परंतु इस देश में एक ऐसा माइंड सेट तैयार किया जा रहा है , जो किसी भी देश के लिए  अनरेस्ट की स्थिति भी पैदा करने  वाला हो सकता है। सरकार को इस पर विचार करने की जरूरत है। और हमें भी बौद्धिक स्तर पर सावधानी बरतनी की जरूरत है।
बेशक मीडिया को स्वतंत्र होना चाहिए , परंतु उसकी स्वतंत्रता की सीमा किसी राष्ट्र की संप्रभुता से ऊपर नहीं हो सकती।
  आज के दौर में मीडिया की स्वतंत्रता का एक अर्थ यह भी है कि-"मीडिया किसी से कमिटेड न हो, हो तो केवल सच्चाई से "

  देख लीजिए आपको क्या करना है, हम तो सरकार को यही सलाह देंगे की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पुनर्विचार करने की जरूरत है।
  बेलगाम होते सोशल मीडिया पर लगाम लगाने की जरूरत है। 

गुरुवार, जून 27, 2024

रंगमंच की गिरती साख कौन जिम्मेदार

    फोटो गूगल से आभार सहित
     रंगमंच की गिरती साख कौन जिम्मेदार
                          गिरीश बिल्लोरे मुकुल
     Show must go on रंगमंच को पूरी तरह से परिभाषित करने वाला वाक्य है। रंगमंच का अस्तित्व ही प्रदर्शनों पर निर्भर करता है। यह सब जारी है और रहेगा, परंतु चिंतन इस बात पर होते रहना चाहिए कि-" रंगमंच के स्तर में गिरावट न हो सके..!'
आइए हम इसी मुद्दे पर विमर्श करते हैं। यहां रंगमंच को कुछ ढांचे के रूप में नहीं समझा जाए जो केवल नाटकों के प्रदर्शन के लिए होता है बल्कि रंगमंच संपूर्ण प्रदर्शनकारी कलाओं के लिए महत्वपूर्ण एवं आधारभूत आवश्यकता है। इन दिनों मंच के स्वरूप स्वरूप को तकनीकी तौर पर विस्तार और सुदृढ़ता मिल रहा है। इससे उलट प्रस्तुति कंटेंट के संदर्भ में विचार करें तो  ऐसा लगता है कि-" रंगमंच कमजोर हो गए हैं!"
    महानगरों मध्यम दर्जे के शहरों में कला का प्रदर्शन तादाद अथवा संख्यात्मक दृष्टि से बड़ा है परंतु इसके गुणात्मक पहलू को अगर देखा जाए तो गुणवत्ता में गहरा प्रभाव पड़ा है। सबसे पहले  आपको स्पष्ट करना जरूरी है कि हम यहां रंगमंच पर अभी नाट्य प्रस्तुतियों की चर्चा नहीं कर रहे हैं बल्कि मंच पर प्रस्तुत किए जाने वाली अन्य सभी विधाओं की बात की जावेगी जिनमें नाटक, कवि सम्मेलन, कवयत्री सम्मेलन मुशायरे, संभाषण, हास्य, मिमिक्री, संगीत, आदि सभी विधाओं पर विमर्श करना चाहते हैं।
    विगत 10 वर्षों से जो देखा जा रहा है उसने हमने पाया है कि कवि सम्मेलन पूरी तरह से पॉलीटिकल हास्य व्यंग और  फूहड़ श्रंगार पर केंद्रित है।  जबकि संगीत रचनाओं में केवल फिल्मी और कराओके गायन को संगीत की अप्रतिम साधना माना जा रहा है। मिमिक्री और हास्य की श्रेणी में रखे जाने वाले कार्यक्रमों में अश्लीलता और स्तर हीन चुटकुले बाजी के अलावा अच्छे कंटेंट देखने को नहीं मिल रहे हैं। कवि सम्मेलनों की दशा तो बेहद शर्मनाक हो चुकी है। 15 से 20 मिनट तक एक कवि आपसी छींटाकशी का या तो केंद्र रहता है  छींटाकशी करने का प्रयास करता है। शेष 15 से 20 मिनट तक घटिया चुटकुले वह भी ऐसे चुटकुले जो जो हुई या तो तू ही अच्छी होंगी अथवा पॉलिटिकल अथवा द्विअर्थी संवादों पर केंद्रित होते हैं। इसे कवियों की भाषा में टोटके कहा जाता है। मैं तो यही कहूंगा कि 
*मंच कवि खद्योत सम: जँह-तँह करत प्रकाश*
   देश विदेश में अपने नाम का परचम लहराने वाले मंचीय कवि कुमार विश्वास कितने भी महान कवि हो जाएं परंतु वे ओम प्रकाश आदित्य जैसे कवियों को स्पर्श तक  नहीं कर पाए हैं। यह ऑब्जरवेशन है यहां में मनोज मुंतशिर थे अवश्य प्रभावित हूं। कविता के साथ केवल कविता और काव्यात्मकता होती है। टोटकों को जगह देने के लिए कविताएं करने वाले लोग मेरी दृष्टि में कम से कम कभी तो नहीं है हां मनोरंजन का पैकेज अवश्य हो सकते हैं।
   संगीत के आयोजनों में केवल फिल्मी गीतों का लुभावना गुलदस्ता भेंट करने वाली संस्थाएं मेरी दृष्टि में संगीत की सेवा नहीं बल्कि बॉलीवुड गीतों का गुलदस्ता पेश करती नजर आती हैं। यह कार्य तो आर्केस्ट्रा पार्टी का है । नादिरा बब्बर का  नाटक मेरे ह्रदय पर गहरी छाप छोड़ गया। इस प्रकार के नाटकों का प्रदर्शन अब मंच पर क्यों नहीं होता? अधिकांश नाट्य समूह खास विचारधारा से संबद्ध होते हैं। यहां मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि अधिकतर नाटक नकारात्मक आयातित विचारधारा से प्रेरित होते हैं। वही लोग अपने नैरेटिव स्थापित करने के लिए नाट्य सेवा करते हैं। थिएटर किसी एक विचारधारा की बपौती कदापि नहीं है। भरतमुनि का नाट्यशास्त्र स्वयं प्रजापिता ब्रह्मा के ऑब्जरवेशन में लिखा गया है। लेकिन दुर्भाग्य है कि-" थोड़ा सा भी चर्चित होने के पश्चात कुकुरमुत्ता की तरह नाट्य संस्थाएं मध्यम स्तर के शहरों एवं महानगरों में पनपने लगीं हैं।
   विचार संप्रेषण के लिए यह प्रभावी माध्यम भी अब मंच से धारा सही होता नजर आ रहा है।
    प्रदर्शनकारी कलाओं में दर्शकों जुटाने की तकनीकी का सहारा लिया जा रहा है। अब तो केवल मनोरंजन के लिए थिएटर शेष रह गए हैं।
   नृत्य प्रस्तुतियों को देखिए विगत कई वर्षों से मौलिक नृत्य चाहे वह लोकनृत्य हो  क्लासिकल अथवा  सेमीक्लासिकल आप वर्ष भर का किसी भी शहर कार्यकाल उठा कर देख ले आपको नहीं मिलेगा।
   मेरे शहर के, हास्य कलाकार के के नायकर, कुलकर्णी भाई, माईम आर्टिस्ट के ध्रुव गुप्ता जैसे हास्य कलाकारों के सामने कपिल शर्मा जैसा स्टैंडिंग कॉमेडियन इतना प्रभाव कारी सिद्ध नहीं हो रहा है जितना कि संस्कारधानी के उपरोक्त कलाकार प्रभाव छोड़ते थे ।
  क्या कारण है कि मंच का स्तर गिर रहा है?
    इस बार की पतासाजी करने पर आप स्वयं पाएंगे कि - प्रस्तुति के कंटेंट में नकारात्मक प्रवृत्ति देखी जा रही है। अपने ही शहर के कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूं जैसे कि अब न तो लुकमान जैसे महान गुरु हैं, न ही शेषाद्री या सुशांत जैसे धैर्यवान शिष्य। न ही भवानी दादा जैसे कवियों गीत कारों की रचनाएं जब कुबेर की ढोलक की ताल के साथ मिलकर लुकमान के स्वरों के रथ पर आरूढ़ होकर श्रोताओं की मन मानस पर सरपट होती थी तो भाव से भरा दर्शक श्रोता वाह वाह ही नहीं करता था बल्कि से विजनवास बहुत से लोगों की आंखों आंसुओं के झरने, झरते हुए हमने देखे हैं यह था असर।
     रात को 2:00 बजे कवि गोष्ठियों से लौटकर घर में डांट खाते थे पर हमें संतोष था कि हमने आज महान रचनाकारों से उच्च स्तरीय कविताएं सुनी हैं। हम अक्सर काव्य गोष्ठियों में अपनी कविताई का प्रशिक्षण लेते थे। हमारी शहर में भानु कवि से लेकर रास बिहारी पांडे तक वक्तव्य के मामले में मूर्धन्य वक्ता स्वर्गीय एडवोकेट राजेंद्र तिवारी जिनका अंग्रेजी हिंदी संस्कृत बुंदेली हर भाषा पर कमांड था को सुनकर हम बड़े हुए हैं पर अब मंच पर संभाषण की कला सिखाने वाले लोग नहीं है अगर है भी तो उन्हें दरकिनार रखा जाता है। मंच को चमकीला बनाने और अखबार में छा जाने की आकांक्षा ने मंच पर घातक प्रहार किया है। यह हमारी सांस्कृतिक निरंतरता को बाधित करने का एक सुगठित प्रयास है।
   सामवेद हमारी कलात्मकता का सर्व मान्य प्रतिमान है। मैं नहीं कह रहा हूं कि आप सब इस पर सहमति प्रदान करें परंतु मंच के वैभव को उठाने में उसे परिष्कृत करने में हमारा बड़ा दायित्व बनता है।
  आप सोच रहे होंगे कि- " नहीं हम दोषी नहीं है कलाकार दोषी हैं।"
  तो मैं कहता हूं कि मंच को ऊंचाइयों तक पहुंचाने वाले कलाकार और दर्शक श्रोता दोनों ही हैं, और उसे अर्थात मंच को नुकसान पहुंचाने वाले भी हम ही तो हैं।
    बुंदेली छत्तीसगढ़ी मराठी गुजराती हिंदी पट्टी की अन्य बोलियों के मंचों पर मौलिक कलाओं का प्रदर्शन नहीं हो रहा है। विरले ही बृंदवन समूह, अथवा थिएटर समूह होंगे जो कि ऐसा कुछ कर रहे हैं, न तो अब तीजनबाई है न ही सुमिरन धुर्वे की कदर करने वाला कोई । मालवा निमाड़ भुवाना महाकौशल बुंदेलखंड छत्तीसगढ़ बघेलखंड भोजपुरी जो सांस्कृतिक परंपराओं से प्रेरित गीत संगीत से भरा पड़ा है। परंतु हम केवल अश्लीलता युक्त कंटेंट को आगे बढ़ा रहे हैं। हरियाणा और भोजपुरी गीतों के साथ अभद्र एवं अश्लील नृत्य करते-करते कलाकार महान सेलिब्रिटी बन गए हैं। आप खुद ही तय कर लीजिए कि मंच का पतन हुआ है या मंच की प्रगति हुई है।
  इस क्रम में  वर्तमान में संस्कारधानी का सौभाग्य है कि यहां एक महिलाओं का बैंड है जिसे जानकी बैंड के नाम से जानते हैं इस बैंड की विशेषता यह है कि इसमें  मौलिक स्वरूप में लोक परंपराओं पर केंद्रित गीत संगीत, सेमी क्लासिकल संगीत की प्रस्तुतियां की जाती है। यह बैंड बेहद अल्प समय में संपूर्ण भारत में स्थान बना चुका है।
   थिएटर में संगीत का प्रयोग होना अन की प्रक्रिया है । संपूर्ण नौ रसों का आस्वादन दर्शकों को कभी एक साथ नहीं मिल पाता मंच की अपनी समस्याएं हैं परंतु टेलीविजन से हटकर हमें चंद्रप्रकाश जैसे महान नाट्यशास्त्र के सुविज्ञ का अनुसरण करना चाहिए। काका हाथरसी शैल चतुर्वेदी जैसे कवियों का स्मरण कर लेने मात्र से आज के हास्य कवियों को अपना स्तर समझ में आ जाएगा। माणिक वर्मा केपी सक्सेना को भुला देना मेरी अल्पज्ञता होगी। सुधि पाठको मैं अपने आर्टिकल्स में आप से संवाद करना चाहता हूं और करता भी हूं। मेरे आर्टिकल का यह आशय कदापि नहीं कि हम किसी पर दबाव पैदा कर रहे हैं, या किसी को हम अपमानित करना चाहते हूँ, मैं तो अपने शहर की मित्र संघ मिलन साहित्य परिषद जैसी संस्थाओं का पुनः आह्वान करता हूं कि वे आगे आएं और आने वाली पीढ़ी को बताएं कि हमने तब क्या किया था जब हम मंच पर टॉर्च या गैस बत्ती जला कर कार्यक्रमों की प्रस्तुति करते थे। अपने 32 साल के सांस्कृतिक जीवन में केवल हमने मंच की ऊंचाइयां देखी है तो अब गिरावट भी देख रहे हैं।
   अंततः स्पष्ट करना चाहूंगा कि-" अगर कलाकार हो तो ईमानदारी से कला का प्रदर्शन करो लेकिन उसके पहले अपनी कला की मौलिकता में तनिक भी मिलावट ना आने दो।
    हमें अपने-अपने शहरों से महान कलाकार प्रोत्साहित करने हैं न कि ऐसी कलाकार जो कॉपी पेस्ट करने के आदि हों।
  *बच्चों को भी यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि- "वे बड़े महान कलाकार हैं।, आजकल के अभिभावक अपने बच्चों को कलाकार से ज्यादा सेलिब्रिटी के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं। परंतु मैं आपको स्पष्ट कर दूं कि सब्जी बेचने वाले घरों घर काम करने वाले परिवारों से आए बच्चों में भी प्रतिभागी बिल्कुल कमी नहीं है। मैं अपने सहयोगियों के प्रति कृतज्ञ रहता हूं जो बच्चों में उनकी प्रतिभा को तलाशते हैं और फिर तराश देते हैं।"*
   

साहित्य शिल्पी डॉ सुमित्र का महा प्रयाण


   70 के दशक में अगर किसी महान  व्यक्तित्व से मुलाकात हुई थी तो वे थे डॉ. राजकुमार तिवारी "सुमित्र" जी।
  सुमित्र जी के माध्यम से साहित्य जगत को पहचान का रास्ता मिला था। गौर वर्णी काया के स्वामी, मित्रों के मित्र, और राजेश पाठक प्रवीण के  साहित्यिक गुरु डॉक्टर राजकुमार सुमित्र जी के कोतवाली स्थित आवास में देर रात तक गोष्ठियों में शामिल होना, अपनी बारी का इंतजार करना उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण होता था उनके व्यक्तित्व से लगातार सीखते रहना। स्व. श्री घनश्याम चौरसिया "बादल" के माध्यम से उनके घर में आयोजित एक कवि गोष्ठी में स्वर्गीय बाबूजी के साथ देर रात तक हुई बैठक में लगा कि यह कवि गोष्ठी नहीं बल्कि कवियों को निखारने की कार्यशाला है।
  धीरे-धीरे कभी ऐसी घरेलू बैठकों की आदत सी पड़ चुकी थी। वहीं शहर के नामचीन साहित्यकारों से मुलाकात हुआ करती थी। उनके कोतवाली के पीछे वाले घर को साहित्य का मंदिर कहना गलत न होगा। 
 तट विहीन तथाकथित प्रगतिशील कविताओं के दौर में गीत, छंद, दोहा सवैया, कवित्त, आदि के अनुगुंजन ने लेखन को नई दिशा दी थी।
  गेट नंबर 2 के पास स्थित नवीन दुनिया प्रेस में बतौर साहित्य संपादक सुमित्र जी द्वारा नारी-निकुंज औसत रूप से सर्वाधिक बिकने वाला संस्करण हुआ करता था।
   हमें भी दादा अक्सर पूरे अंक में लिखने की छूट देते थे। कविता के साथ कंटेंट क्रिएशन की शिक्षा शशि जी और सुमित्र जी से ही हासिल की है। 
  अभी-अभी पूज्य सुमित्र जी के महाप्रयाण का समाचार राजेश के व्हाट्सएप संदेश के जरिए मिला। 
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.राजकुमार तिवारी सुमित्र का निधन जबलपुर के साहित्यिक समाज के लिए एक दुखद प्रसंग है। नए स्वर नए गीत कार्यक्रम की श्रृंखला प्रारंभ कर पूज्य गुरुदेव सुमित्र जी ने सार्थक सृजन को दिशा प्रदान की है। वे अक्सर कहते थे कि-"उससे बड़ा सौभाग्यशाली कोई नहीं जिसके घर में साहित्यकारों के चरणरज न गिरें।" 
अपने आप को पीड़ा का राजकुमार कहने वाले दादा ने ये भी कहा - " दर्द की जागीर है, बाँट रहा हूँ प्यार।”
गायत्री कथा सम्मान के संस्थापक सुमित्र जी नगर के हर एक रचना कार्य और साहित्य साधकों के केंद्र बिंदु हुआ करते थे। उनकी साहित्यिक सक्रियता से शहर जबलपुर साहित्य साधना का केंद्र था। सृजनकर्ता को दुलारना,उसे मजबूती देना, यहां तक की प्रकाशित करना भी उनका ही दायित्व बन गया था। हम तो उनके आजीवन ऋणी है।

 जबलपुर  ही नही प्रदेश के प्रतिष्ठित साहित्यकार, लगभग 40 कृतियों के रचयिता, पाथेय साहित्य कला अकादमी के संस्थापक कविवर डॉ. राजकुमार तिवारी सुमित्र का आज दिनांक 27 फरवरी 2024 को  रात्रि 10  बजे 85 वर्ष की उम्र में निधन हो गया । 
  सुमित्र जी डॉक्टर भावना तिवारी, श्रीमती कामना , एवं चिरंजीव डॉ.हर्ष कुमार तिवारी के पिता , बाल पत्रकार बेटी प्रियम के पितामह एवं हम सब साहित्य अनुरागीयों तथा नए युवा साहित्यकारों के  प्रेरणा स्रोत अब हमारी स्मृतियों में शेष रहेंगे। .
सुमित्र ने अनेक समाचार पत्रों में सम्पादकीय सेवाएं  दी ।
आप प्रदेश ही नही. देश, प्रदेश की साहित्यिक धारा के संवाहक रहे। यूरोप में भी भारतीय साहित्य का परचम लहराने वाली इस शख्सियत ने लगभग सात दशक साहित्य की अप्रतिम सेवा की है।

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