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सोमवार, नवंबर 09, 2020

जीवन की नहीं मृत्यु की तैयारी कीजिए.. जीवन तो वैसे ही संवर जाएगा..!

जीवन की नहीं मृत्यु की तैयारी कीजिए.. जीवन तो वैसे ही संवर जाएगा?
यह एक आश्चर्यजनक तथ्य होगा कि आप को यह सुझाव दिया जाए कि जीने की नहीं मृत्यु की तैयारी कीजिए ऐसी स्थिति में आप सुझाव देने वाले को मूर्खता का महान केंद्र तुरंत मान लेंगे। परंतु आप यह भली प्रकार जानते हैं कि-"जीवन जिस दिशा की ओर बढ़ता है उस दिशा में ऐसा बिंदु है जहां आपको आखिरी सांस मिलती  है"
है या नहीं इसका निर्णय आप आसानी से कर लेते  हैं। सनातनी दर्शन मृत्यु के पश्चात के समय को  एक संस्कार के तौर पर मान्यता प्राप्त है और हम उसे एक्ज़ीक्यूटिव करते हैं । लेकिन अगर कोई व्यक्ति मरणासन्न हो तो उसके लिए केवल ईश्वरीय सत्ता से प्रार्थना के अलावा कुछ शेष नहीं रहता।
सभी लोग जानते हैं कि यह शाश्वत सत्य है अटल भी है जितना शाश्वत जीवन है उतनी ही शाश्वत मरना।
इस अटल सत्य को कोई मिटा नहीं सकता है, स्वयं राम कृष्ण और महान ऋषियों, पैगंबरों ने भी इस सत्य को स्वीकार्य किया । आपको याद होगा अरस्तु ने जब जहर का प्याला पिया तो भी निर्वेद और शांत थे। प्रभु यीशु ने भी सलीब को परमपिता परमेश्वर का निर्णय माना और पौराणिक मान्यताओं के अनुसार स्वर्गारोहण किया ( एकअन्य संप्रदाय का जिक्र मैं यहां नहीं करूंगा वैसे भी काफी यह विवाद हो रहा है।)
 आपने अपने कुटुंब में कुछ ऐसे लोगों के बारे में सुना ही होगा कि उन्होंने अपने प्रस्थान का समय बता दिया था । ऐसे हजारों उदाहरण समाज में भी मौजूद हैं । यहां मुझे अपने दो अनुभव स्मरण हो रहे हैं कि मृत्यु बिल्कुल और मुझे विश्वास था कि यह हमें छू भी ना सकेगी ।
उस वक्त उम्र 10 या 11 वर्ष की रही होगी । स्टेशन मास्टर पिता के साथ हमारा परिवार शहपुरा भिटौनी में रहा करता था ।
घर के बाजू में एक कुआं था जिसकी ऊंची ऊंची दीवार लेकिन मछलियों को देखना बहुत अच्छा लगता था । देखते देखते अचानक वैशाखी और शरीर का ऊपरी भाग कुए की तरफ ग्रेविटी की वजह खिंचने लगा । एक पल को लगा कि यह अंतिम स्थिति है परंतु दूसरे ही पल अज्ञात कारणों से बस जाना आश्चर्यचकित कर देने वाली घटना थी ।
लेकिन वह 10 से 15 सेकंड में सिर्फ ईश्वरी सत्ता का स्मरण होता रहा ।
आज से करीब 15 वर्ष पूर्व एक शराबी अपनी मारुति लेकर सड़क पर सीधे जा रहा था और अचानक क्या हुआ कि वह हमारी गली मुड़ गया माइलोमीटर की शायद अंतिम अवस्था रही होगी मैं सामने चलने वाली गौर दादा जी से चर्चा कर रहा  था कि अचानक  दादाजी के मन में क्या आया कि वे अपने घर के अंदर चले गए। में कार निमिश मात्र को अपनी ओर आता देख मन में अचानक अजीब सा भय जाग गया । घर का दरवाजा खोलने में ही  लगभग कुछ मिनट तो लगते और मुझे सुनिश्चित हो गया था कि अब यह कार मुझे अपने अंतिम पलों तक पहुंचा ही देगी । परंतु पुनः ईश्वरी सत्ता के अस्तित्व स्मरण किया और ईश्वर से प्रार्थना की प्रभु उस ड्राइवर को बचा लीजिए ।
इस बार पहली घटना की तरह मैंने स्वयं के बचाव के लिए कोई निवेदन नहीं किया ।  स्वामी विवेकानंद की आत्मकथा में लिखते हैं-"जब मैं स्वयं के लिए मांगता हूं तो मुझे हासिल नहीं होता किंतु जब दूसरों के लिए मांगा जाए तो तुरंत ईश्वर दुगने वेग से प्रचुर मात्रा में देते हैं ।"
मृत्यु के सन्निकट आकर भी उसके पंजे से बच जाना ईश्वरी सत्ता का एहसास कराता है । ईश्वर तत्व की पुष्टि होती है । 
इन घटनाओं का जिक्र इसलिए किया है कि आप हम सब ईश्वरी सत्ता पर भरोसा करें और जिस स्वरुप में भी उसे स्वीकारते हैं या पहचानते हैं उस पर अनाधिकृत प्रश्न ना उठाएं। ऐसी घटनाएं हमें पवित्र बनाती हैं । जब ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व को हम स्वीकार लेते हैं तो हमारे मस्तिष्क में..... शरीर के साथ उत्पन्न होने वाले नकारात्मक गुण जैसी ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा, अहंकार, लोकेषणा, अवांछित वस्तुओं की प्राप्ति के नियम के प्रतिकूल हासिल करने के विचार समाप्त हो जाते हैं । हम उस अंतिम समय में निर्वेद भाव से महाप्रस्थान कर सकते हैं।
यह महाप्रस्थान जीवन के अंतिम पलों की मानसिक दशा को तय करती है ।
वही संतो जैसा चिंतन महाप्रस्थान के अंतिम कुछ पलों की वेदना को समाप्त कर देता है।
जितनी जल्दी हम उस महाप्रस्थान के पल के लिए स्वयं को तैयार करेंगे उतने ही जल्द हम महान जीवन को अपना पाएंगे ।
इसीलिए जगतगुरु शंकराचार्य ने कहा है भज गोविंदम भज गोविंदम भज गोविंदम मूड मते ।
     यह आलेख किसी की मृत्यु की कामना के लिए नहीं है बल्कि मृत्यु के समय  की तड़प से मुक्ति के लिए है जो हमारे आपके मन मे विश्वास पैदा करती है। चरपट पंजारिका में इसका संपूर्ण वैज्ञानिक विश्लेषण किया है आदि गुरु ने। आदि गुरु ने लिखा भी तो है ना हम ना त्वं ना यमलोक: तदपि किमर्थम क्रियते शोक: .
सुधि पाठक जन आदि गुरु ने जीवन के मूल्यों को अध्यात्म के साथ सिंक्रोनाइज करने की बात की है और उसका मूल सार है कि जीवन को कितना बेहतर बनाया जाए। अगर जीवन अध्यात्मिक के चैतन्य से भरा होगा तो पक्का मानिए जैसी नींद आती है ना वैसे ही महाप्रस्थान की घड़ी आएगी और हमें उसे पवित्र बनाना है यह मुमुक्ष  अर्थात मोक्ष प्राप्ति का प्रथम मार्ग है यह अलग तथ्य है कि मोक्ष कब मिलता है ?
तब तक जारी रहे- भज गोविंदम भज गोविंदम गोविंदम भज मूड मति ।।

रविवार, नवंबर 08, 2020

कट्टरता सम्प्रदाय का स्वयमेव अंत करती है..!

 
वैश्विक परिदृश्य में देखा जाए तो किसी भी संप्रदाय के लिए सबसेे घातक उस में पनप रही कटटरता ही है । 
 अगर किसी भी संप्रदाय ने कट्टरपंथ दिखाया तो उसका हश्र बहुत दुर्दांत ही होता है । दुर्भाग्यपूर्ण बात यह होती है कि उसके दुष्प्रभाव आम जनता को भोगने होते हैं । यह एक स्थापित सत्य है कि ... "उत्तर वैदिक काल में वर्ग वर्ण और जातिवाद को प्रश्रय मिला तो ग़ैर वैदिक व्यवस्था का प्रवेश प्रारम्भ हुआ ।
            उत्तर वैदिक काल में कर्मकांड को प्रमुखता दी गई । इस काल में ब्राह्मण जाति को अनुष्ठान में महत्व राज्याश्रय एवम सामाजिक प्रतिष्ठा में तीव्रता से वृद्धि हुई । और उसके साथ साथ श्रेष्ठ कहे जाने वाले 3 वर्णों में क्रमशः ब्राह्मण क्षत्रीय, वैश्यों का ध्रुवीकरण हुआ । जब शक्ति का एकीकरण हुआ तो शोषण की प्रवृत्ति को भी अवसर मिलना स्वाभाविक हो गया। 
    यही वह युग था जब मध्य भारत को पार करते हुए द्रविड़ क्षेत्र को अपने अधीन करने का सफल प्रयास भी किया गया था । 
इस काल में जन्मगत जाति प्रथा की शुरुआत हुई । इस काल में  समाज चार वर्णों में वभक्त था-ब्राह्मण , राजन्य (क्षत्रिय), वैश्य , शूद्र। इसी जा में 3 ऋण  -देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण का वर्गीकरण हुआ ।  और यही वह काल था जब  पंचमहायज्ञ- देवयज्ञ, पितृयज्ञ, ऋषि यज्ञ, भूत यज्ञ, नृ यज्ञ की अवधारणा आकार ले सकीं । 
   इसी काल में अर्थववेद सुव्यवस्थित हुआ । जिसमें भूमि को माता का स्वरूप माना गया । पृथ्वी-सूक्तम  का सृजन भी हुआ । जो न केवल  धार्मिक है वरन सार्वकालिक एवम 
 भी कुछ हुआ उतना बुरा न था क्योंकि  उसके पश्चात निरंतर महापुरुष आते रहे । धर्म की देश काल परिस्थितियों के आधार पर सनातन को लोकोउपयोगी बनाते रहे । बुद्ध, शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद फिर सन्त कवियों सूफियों ने भी इसे परिष्कृत किया । अब जाति वर्ण व्यवस्था क्षतिग्रस्त होने को है । 10 से 15 बरस और रुकिए सब कुछ समाप्त हो जाएगा । और केवल एक उदघोष शेष होगा.. "सर्वेजना सुखिनो भवन्तु" 
    देखिए आने वाले कल में स्वयम लोग उन रस्सियों को खोल कर यह ही करेंगे.. किसी को कराहता देख अश्रु पूरित होकर लोक सेवक के रूप में नज़र आएंगे । कट्टरता खुद खत्म हो जाएगी ।  ये सब इसी आर्यावर्त से शुरू होगा । वेदों का प्रकाश आयातित तिमिर का अंत कर देगा । अगली शताब्दी की प्रतीक्षा कीजिए । 

जो बायडन : विदेश नीति पर बदलाव नहीं करेंगे..!

बाइडन के कारण  भारत के संदर्भ में अमेरिकी नीतियां  नहीं बदलेंगी !
लेखक:- गिरीश बिल्लोरे मुकुल 
जो बाइडन डेमोक्रेट उम्मीदवार हैं और लगभग राष्ट्रपति बन ही गए हैं । भारत के विद्यार्थियों एवम विचारकों में बहुत से सवाल हैं जैसे कि-
जो के आने के बाद अमेरिकी विदेश नीति में कौन सा परिवर्तन आने वाला है दक्षिण एशिया के साथ जो बाइडन कैसा संबंध रखेंगे ?
अथवा अमेरिका की भारत के संबंध में पॉलिसी क्या होगी ? और बदली हुई पॉलिसी में भारत का स्टेटस क्या होगा ?
आइए जानते हैं इन सवालों  के क्या क्या संतुष्टि कारक उत्तर हो सकते हैं ?
जो बाइडन को इलेक्शन जिताने में उनका व्यक्तित्व सबसे ज्यादा असरकारक रहा है। शायद ही अमेरिका में कोई कम पढ़ा लिखा अथवा अपेक्षित बौद्धिक क्षमता से कमतर होगा ! यहां अपवादों को अलग कर देना होगा । 


 अमेरिकी जनता ने जो बाइडन जिताने से ज्यादा दिलचस्पी डोनाल्ड ट्रंप को हराने में दिखाई है ।  इसका अर्थ यह है कि-" अमेरिकी जनता ने ट्रंप की व्यक्तित्व को पूरी तरह खारिज कर दिया"
ट्रंप के भाषण अक्सर विचित्र भाषणों की श्रेणी में रखे जाने योग्य माने गए थे। कमोवेश विश्व में भी ऐसी ही छवि डोनाल्ड ट्रंप की बन गई थी। बावजूद इसके डोनाल्ड ट्रंप के शांति प्रयास उन्हें उत्तर कोरिया तक ले गए। परंतु ट्रंप की छवि यूरोपियन मीडिया द्वारा जिस तरह पोट्रेट की गई उसे वैश्विक स्तर पर भारी भरकम प्रजातंत्र के प्रतिनिधि को बहुत हल्के में लिया गया। अमेरिका के बाहर और अमेरिका के भीतर यह पोट्रेट हूबहू स्वीकार आ गया और विकल्प को यानी जो बाइडन  को इसका सीधा सीधा लाभ हुआ ।  यूएस मीडिया और विचारकों ऐसा ही नैरेटिव सेट कर दिया ताकि वोटर की मानसिकता में परिवर्तन आ जाए।
इधर जो बाइडन कमला हैरिस के साथ अपनी भूमि बनाने में सफल हो गए।
विश्वसनीय मीडिया की मानें तो अमेरिका के इलेक्शन में बड़े पैमाने पर वोटों का ध्रुवीकरण हुआ है।
अमेरिका की विदेश नीति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिकी प्रशासन ने निर्धारित कर ली है। आपको याद होगा कि फरवरी 2016 में बराक ओबामा ने ट्रांस पेसिफिक पार्टनरशिप पर दस्तखत किए थे जिसमें बारह देश एकमत थे कि- एशिया में स्वेच्छाचारिता का आइकॉन बना चीन और उसका भाई उत्तर कोरिया प्रभावहीन हो जाए । इससे स्पष्ट है कि अमेरिका अपनी उन गलतियों को सुधारना चाहता है जो बिल क्लिंटन  एवं बराक ओबामा के कार्यकाल में चीन को खुली छूट दी गई थी और इस छूट के दुष्परिणाम अमेरिका ने ही देखें थे । अर्थात विश्व के साथ अमेरिका की विदेश नीति में आंशिक बदलाव के साथ चीन के प्रति आक्रामक होगी ।
इस आलेख के प्रारंभ में दक्षिण एशिया के संबंध में अमेरिका की पॉलिसी का जिक्र करना बहुत आवश्यक है।
दक्षिण एशिया में भारत एकमात्र विचार योग्य बिंदु होगा वह भी व्यापारिक संदर्भ में । पेंटागन एवं अमेरिकी प्रशासन यह सुनिश्चित कर चुका है कि भारत उसके लिए बहुत बेहद महत्वपूर्ण है डेमोक्रेट प्रधान के रूप में जो बाइडन स्पेस न्यूक्लियर एनर्जी  तकनीकी बिंदुओं पर रिश्ते  डोनाल्ड ट्रंप से अधिक महत्व देंगे की एवं रक्षा संबंधों में 2 +2  पर हस्ताक्षरित दस्तावेजों को रिविज़िट नहीं करना पड़ेगा बल्कि ट्रांस पेसिफिक पार्टनरशिप समझौते का आयोजित करते हुए अमेरिका चीन के प्रति वही मूड एवं रवैया रखेगा जो ट्रंप का था।
जहां तक कमला हैरिस की बात है तो भी कश्मीर मुद्दे को अब पेंटागन के नजरिए से समझेंगीं उम्मीद है कि कमला हैरिस कश्मीर मुद्दे पर कोई ऐसे वक्तव्य नहीं देंगी जिससे पाकिस्तान को कोई मदद मिल सके।
   यह बात सही है कि सर्व सुविधा संपन्न अमेरिका की कांग्रेस सदस्य धारा 370 और 35 इस संबंध में बहुत अधिक ध्यान नहीं रखते हैं। परंतु पाकिस्तान द्वारा गिलगित बालटिस्तान पर निकट भविष्य में उठाए जाने वाले कदम से पाकिस्तान स्वयं ही एक्सपोज हो जाएगा।
अफगानिस्तान के संदर्भ में अमेरिका अब अपनी पॉलिसी नए नेतृत्व में यथासंभव यथावत ही रखेगा जब तक कि कोई विशेष परिस्थिति निर्मित नहीं होती है।
हां यह अवश्य है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं भीषण आर्थिक संकट झेल रहे देशों के लिए इस शर्त पर कुछ पैकेज अवश्य उपलब्ध हो सकते हैं जिससे वहां के नागरिक न्यूनतम सामान्य जीवन व्यतीत कर सकें।
जो बाइडन सत्ता में आने के पुख्ता हो जाने के साथ ही भारत के पूंजी बाजार की स्थिति मजबूत होने लगी है। ऐसा माना जा रहा है कि अमेरिका में टैक्स और आयात ड्यूटी खास तौर पर चीन जैसे देशों के लिए बढ़ाई जाएंगी । साथ ही साथ संस्थागत निवेशकों विश्व पूंजी बाजार में भागीदारी के अवसर बढ़ जाएंगे।
जो बाइडन कोविड-19 के संकट को गंभीरता से ले सकेंगे। इस बिंदु पर भी कई बार रिपब्लिकन उम्मीदवार पर हमलावर भी हुए थे। अमेरिका के बाद भारत सर्वाधिक प्रभावित रहा है कोविड-19 से पर भारत ने कोरोना महामारी से  मौतों पर नियंत्रण किया जिसकी दर मात्र 1.5% से भी कम होती चली गई जो भारत की अपनी सफलता है।
   अमेरिकी प्रशासन खास तौर पर पेंटागन साइबर टेक्नोलॉजी एवं आर्टिफिशियल इंटेलिजेंसी पर विशेष ध्यान देगा अतः h1b वीजा सरल होना सुनिश्चित है । जिसका लाभ सीधा और साफ तौर  भारतीय युवाओं के लिए महत्वपूर्ण हो जाएगा।
कुल मिलाकर अमेरिकी विदेश नीति बराक ओबामा के कार्यकाल की नीतियां कुछ मामलों में पुनः स्थापित की जाएंगी और आंशिक बदलाव के साथ डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों को यथावत स्थापित रखा जाना संभावित है। सुधि पाठक यह स्पष्ट रूप से समझ ले अमेरिका जॉर्ज वाशिंगटन से लेकर जो बाइडन तक अमेरिका के लिए ज्यादा संवेदी कि रहता है । चाहे वह रिपब्लिकन के नेतृत्व में हो या डेमोक्रेट्स के।
अंत में एक मज़ाकिया बात- बाइडन जी, किस देवता की मूर्ति अपने साथ रखेंगे..!
अरे...वे सजीव कमला देवी साथ हैं... जिसे आप देवी लक्ष्मी के रूप में पूजते हैं ! 
( girishbillore@gmail.com )

शुक्रवार, नवंबर 06, 2020

जर्मनी मीडिया डॉयचे वेले ने उठाए बेहूदा सवाल..!

जर्मनी का एक मीडिया हाउस डॉयचे वेले है ने अपने फेसबुक डिस्पैच में कहा है-"भारत विश्व की 10 निरंकुश व्यवस्थाओं में से एक है"
डिस्पैच में मीडिया हाउस  ने वी डैम इंस्टिट्यूट के प्रोफेसर स्टीफन लिग बैक की हालिया प्रकाशित रिपोर्ट  के आधार पर 180 देशों के 3000 शिक्षाविदों के साथ एक विशेष प्रश्नोत्तरी पर आधारित यह निष्कर्ष निकाला है । डॉयचे वेले का यह मानना है कि-"2014 के बाद से भारतीय आजादी के बाद प्रजातांत्रिक स्थिति में काफी गिरावट हुई है ...!"
   स्टीफन स्वयं भी इस संदर्भ में अपने बयान देते हुए नजर आते हैं।
डॉयचे वेले के इस डिस्पैच का खुलकर न केवल खंडन करना चाहिए बल्कि ऐसे डिस्पैच प्रस्तुत करने पर उसकी निंदा भी करनी चाहिए । हम वॉल्टेयर  के उस सिद्धांत का पालन करते हैं और स्वीकृति भी देते हैं कि असहमति का सम्मान करना चाहिए। परंतु 130 करोड़ भारतीय आबादी जो विश्व की सबसे बड़ी प्रजातांत्रिक व्यवस्था है के आयातित विचारधाराओं के साथ जुड़े शिक्षाविदों को कोई भी अधिकार नहीं है कि वह बिना तथ्य को समझे जाने  इस तरह के जवाब दें कि एक नेगेटिव दे कि एक नेगेटिव नैरेटिव को स्थापित किया जा सके ।
   2014 से किसकी सरकार है  यह आप सब समझते हैं। जहां तक एक भारतीय लेखक होने के नाते डॉयचे वेले से आग्रह करना चाहूंगा कि वे देश के कुछ गाँवो शहरों का भ्रमण उसी प्रश्नावली के साथ किसी वास्तविक भारतीय के साथ जाकर या स्वयं भी जाकर देखें तो पता चलेगा कि - "भारत में प्रजातंत्र की जड़ें कितनी मजबूत हैं..!" 
इस मीडिया हाउस ने यह भी मूल्यांकन नहीं किया कि सामान्य परिस्थितियों में एक बार आपातकाल की घोषणा की जा चुकी थी । 
 भारतीय प्रजातंत्र को निरंकुश साबित करने की कोशिश करना भारतीय मतदाताओं की खिलाफ एक नरेटिव के प्रयास के रूप में  आपके डिस्पैच को देखा जा रहा है । 
जर्मन के इस मीडिया हाउस को अगर यह तथ्य प्रस्तुत करना भी था तो वन साइडेड मूल्यांकन ना करते हुए वास्तविक परिस्थिति को भी समझना चाहिए था।

शनिवार, अक्टूबर 31, 2020

रौशनी की तिज़ारत वो करने लगा


घर के दीवट के दीपक जगाए नहीं
रोशनी की तिज़ारत वो करने लगा ।
ये मुसलसल करिश्मों भरा दौर है -
वक़्त-बेवक्त सूरज है ढलने लगा ।।
खुद ने, खुदको जो देखा डर ही गया
आईने अपने घर के,वो बदलने लगा ।।
खोलीं उसकी गिरह, हमने फिर कभी
पागलों की तरह वो, मचलने लगा ।।
दौर ऐसा कि सब हैं तमाशाई से
हरेक दिल में क्या रावण, पलने लगा ।
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

गुरुवार, अक्टूबर 29, 2020

निकिता तुम एक सवाल हो.!

*निकिता तुम एक सवाल हो.!*

जिसे कोई हल कैसे करेगा ?
सब एर्दोगान से 
थर थर काँपते हैं..!
वो सब के सब 
तुम्हारी आख़िरी कराह का
और अपनी चाह का 
मीज़ान मापते हैं..!
तुम्हारी आखिरी सांसें 
धीमे धीमे बन्द होती आंखें 
अब किसी इंकलाब को
जन्म न दे सकेंगी ।
आने वाली तिथियां
तुम्हारे ही हलफनामें को
सामने रखेंगी ।
तुम तब तक 
ज़ेहन से सबके मन से 
हो चुकी होगी ओझल ।
तुम्हारी सखि माँ बापू भाई
को याद रहेगा वो पल ।।
इन चैनल्स पर नहीं आओगी
कभी किसी को भी 
सत्ताईस अक्टूबर के दिन 
याद नहीं आओगी.. !
तुम इस दुनियाँ में 
अफसर भी बन जाती तो 
क्या होता..?
क्या खाक बदलता ये समाज
ये हमेशा समझौता करेगा 
डर से आक्रांता से 
सामाज में बचे सम्मान से
डर कर  ।
समझौते जारी रहेंगे 
इस देश में 
मृत्यु तुल्य कष्ट 
सहकर ...! 
निकिता कल भी 
तुम ही हारोगी..!
सोचता हूँ आकाश ताकते हुए
तुम कब पलट कर मरोगी ..!!
सुनो अब जब आना 
हाथ में आयुध लेकर
इन रसूखदारों का 
इन बलात समझौताकारों का
इन आयातित विचारों के 
पैरोकारों का ...
मुँह जो नोंचना है ।
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

मंगलवार, अक्टूबर 27, 2020

क्या सोचते हैं विस्तारवादी

     


बख्तावर खिलजी से लेकर तालिबान तक सभी  सभी के मस्तिष्क में एक ही बात चलती है अगर किसी राष्ट्र का अंत करना है तो उसके पहले उसकी संस्कृति अंत कर दो। पोल पॉट की जिंदगी का लक्ष्य  भी यही था । 1975 से लेकर 1979 तक  कंबोडिया के सांस्कृतिक वैभव को समाप्त करने के लिए पोलपॉट अपना एक लक्ष्य सुनिश्चित किया । उसने जैसे ही खमेररूज की की मदद से कंबोडिया पर कम्युनिस्ट शासन की स्थापना की सब से पहले कंबोडिया के 50 मुस्लिम आराधना स्थलों का सर्वनाश किया। क्योंकि नास्तिकों के मस्तिष्क में  आस्था के लिए कोई जगह नहीं है अतः पोल पॉट की सेना ने उसके स्थान पर कुछ दूसरा धार्मिक स्थल नहीं बनाया। किंतु बाबर इससे कुछ  अलग ही था । भारत में आक्रमणकारी  विदेशी ने सांस्कृतिक हमला भी बाकायदा सामाजिक परिस्थितियों को बदलने के लिए किया। तालिबान इससे पीछे नहीं रहे । स्वात से बुद्ध के वैभवशाली इतिहास को खत्म करना हो या कश्मीर के सनातनी सांस्कृतिक वैभव को नेस्तनाबूद करना हो ... विदेशी आक्रांता इस कार्य को सबसे प्राथमिकता के आधार पर किया करते थे।



     ऐसा अक्सर हुआ है इसमें कोई दो मत नहीं। अब कुछ इससे ज्यादा हटकर हो रहा है। अब वैचारिक स्तर पर हमले होना स्वाभाविक सी बात बन गई है ।
   सामाजिक परंपराओं को बदलने की प्रक्रिया अब तेजी से हो रही है। सामाजिक सहमति हो या ना हो बलपूर्वक सांस्कृतिक परिवर्तन करना एक सामान्य सा लक्ष्य था जो अब मीडिया के जरिए विस्तारित हो रहा है।
          बहुत वर्ष पहले की बात है, हाँ  लगभग 40 से 45 वर्ष पूर्व कन्वर्टटेड मुस्लिम के घर के मुखिया का नाम भगवानदास था उसकी पत्नी का नाम पार्वती बच्चे का नाम गुलाब । हमने जब उस परिवार से पूछा- आप जब मुस्लिम धर्म अपना चुके हैं तो आपके नाम हिंदुओं जैसे क्यों हैं ?
     भगवान दास का कहना था कि हमने धर्म बदला है ना कि हमने अपनी संस्कृति । यह घटना गोसलपुर की है जहां पर भगवानदास रेल विभाग में केबिन मैन के पद पर नौकरी किया करते थे । उनके घर में बाकायदा हिंदू त्यौहार होली दिवाली रक्षाबंधन आदि बनाए जाते थे । सांस्कृतिक बदलाव कभी भी आसानी से नहीं हो पाता था उस दौर तक। फिर अचानक क्या हुआ कि धर्म परिवर्तन के साथ साथ सांस्कृतिक बदलाव बहुत तेजी से हुए । उसके पीछे का कारण है - कट्टरपंथी सोच पूरे विश्व में एक साथ तेजी से उभरना है ।
    यह परिवर्तन उन्मादी होने का  पर्याप्त कारण है । अगर आप धार्मिक बदलाव के साथ मूल संस्कृति में कोई बदलाव नहीं करते तो सामाजिक सामंजस्य में भी किसी भी तरह का नेगेटिव चेंज नहीं आता है और शांति कायम रहती है । 

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