वैश्विक परिदृश्य में देखा जाए तो किसी भी संप्रदाय के लिए सबसेे घातक उस में पनप रही कटटरता ही है ।
अगर किसी भी संप्रदाय ने कट्टरपंथ दिखाया तो उसका हश्र बहुत दुर्दांत ही होता है । दुर्भाग्यपूर्ण बात यह होती है कि उसके दुष्प्रभाव आम जनता को भोगने होते हैं । यह एक स्थापित सत्य है कि ... "उत्तर वैदिक काल में वर्ग वर्ण और जातिवाद को प्रश्रय मिला तो ग़ैर वैदिक व्यवस्था का प्रवेश प्रारम्भ हुआ ।
उत्तर वैदिक काल में कर्मकांड को प्रमुखता दी गई । इस काल में ब्राह्मण जाति को अनुष्ठान में महत्व राज्याश्रय एवम सामाजिक प्रतिष्ठा में तीव्रता से वृद्धि हुई । और उसके साथ साथ श्रेष्ठ कहे जाने वाले 3 वर्णों में क्रमशः ब्राह्मण क्षत्रीय, वैश्यों का ध्रुवीकरण हुआ । जब शक्ति का एकीकरण हुआ तो शोषण की प्रवृत्ति को भी अवसर मिलना स्वाभाविक हो गया।
यही वह युग था जब मध्य भारत को पार करते हुए द्रविड़ क्षेत्र को अपने अधीन करने का सफल प्रयास भी किया गया था ।
इस काल में जन्मगत जाति प्रथा की शुरुआत हुई । इस काल में समाज चार वर्णों में वभक्त था-ब्राह्मण , राजन्य (क्षत्रिय), वैश्य , शूद्र। इसी जा में 3 ऋण -देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण का वर्गीकरण हुआ । और यही वह काल था जब पंचमहायज्ञ- देवयज्ञ, पितृयज्ञ, ऋषि यज्ञ, भूत यज्ञ, नृ यज्ञ की अवधारणा आकार ले सकीं ।
इसी काल में अर्थववेद सुव्यवस्थित हुआ । जिसमें भूमि को माता का स्वरूप माना गया । पृथ्वी-सूक्तम का सृजन भी हुआ । जो न केवल धार्मिक है वरन सार्वकालिक एवम
भी कुछ हुआ उतना बुरा न था क्योंकि उसके पश्चात निरंतर महापुरुष आते रहे । धर्म की देश काल परिस्थितियों के आधार पर सनातन को लोकोउपयोगी बनाते रहे । बुद्ध, शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद फिर सन्त कवियों सूफियों ने भी इसे परिष्कृत किया । अब जाति वर्ण व्यवस्था क्षतिग्रस्त होने को है । 10 से 15 बरस और रुकिए सब कुछ समाप्त हो जाएगा । और केवल एक उदघोष शेष होगा.. "सर्वेजना सुखिनो भवन्तु"
देखिए आने वाले कल में स्वयम लोग उन रस्सियों को खोल कर यह ही करेंगे.. किसी को कराहता देख अश्रु पूरित होकर लोक सेवक के रूप में नज़र आएंगे । कट्टरता खुद खत्म हो जाएगी । ये सब इसी आर्यावर्त से शुरू होगा । वेदों का प्रकाश आयातित तिमिर का अंत कर देगा । अगली शताब्दी की प्रतीक्षा कीजिए ।