*निकिता तुम एक सवाल हो.!*
जिसे कोई हल कैसे करेगा ?
सब एर्दोगान से
थर थर काँपते हैं..!
वो सब के सब
तुम्हारी आख़िरी कराह का
और अपनी चाह का
मीज़ान मापते हैं..!
तुम्हारी आखिरी सांसें
धीमे धीमे बन्द होती आंखें
अब किसी इंकलाब को
जन्म न दे सकेंगी ।
आने वाली तिथियां
तुम्हारे ही हलफनामें को
सामने रखेंगी ।
तुम तब तक
ज़ेहन से सबके मन से
हो चुकी होगी ओझल ।
तुम्हारी सखि माँ बापू भाई
को याद रहेगा वो पल ।।
इन चैनल्स पर नहीं आओगी
कभी किसी को भी
सत्ताईस अक्टूबर के दिन
याद नहीं आओगी.. !
तुम इस दुनियाँ में
अफसर भी बन जाती तो
क्या होता..?
क्या खाक बदलता ये समाज
ये हमेशा समझौता करेगा
डर से आक्रांता से
सामाज में बचे सम्मान से
डर कर ।
समझौते जारी रहेंगे
इस देश में
मृत्यु तुल्य कष्ट
सहकर ...!
निकिता कल भी
तुम ही हारोगी..!
सोचता हूँ आकाश ताकते हुए
तुम कब पलट कर मरोगी ..!!
सुनो अब जब आना
हाथ में आयुध लेकर
इन रसूखदारों का
इन बलात समझौताकारों का
इन आयातित विचारों के
पैरोकारों का ...
मुँह जो नोंचना है ।
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*