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मंगलवार, अक्टूबर 18, 2016

चुभती हवा रुकेगी क्या कंबल है तारतार !!

हमने उनको यक़ीन हो कि न हो हैं हम तो बेक़रार
चुभती हवा रुकेगी क्या कंबल है तारतार !!
मंहगा हुआ बाज़ार औ'जाड़ा है इस क़दर-
किया है रात भर सूरज का इंतज़ार.!!

हाक़िम ने  फ़ुटपाथ पे आ बेदख़ल किया -
औरों की तरह हमने भी डेरा बदल दिया !
सुनतें हैं कि  सरकार कल शाम आएंगें-
जलते हुए सवालों से जाड़ा मिटाएंगें !

हाक़िम से कह दूं सोचा था सरकार से कहे
मुद्दे हैं बहुत उनको को ही वो तापते रहें....!
लकड़ी कहां है आप तो - मुद्दे जलाईये
जाड़ों से मरे जिस्मों की गिनती छिपाईये..!!

जी आज़ ही सूरज ने मुझको बता दिया
कल धूप तेज़ होगी ये  वादा सुना दिया !
तू चाहे मान ले भगवान किसी को भी
हमने तो पत्थरों में भगवान पा लिया !!

कहता हूं कि मेरे नाम पे आंसू गिराना मत
फ़ुटपाथ के कुत्तों से मेरा नाता छुड़ाना मत
उससे ही लिपट के सच कुछ देर सोया था-
ज़हर का बिस्किट उसको खिलाना मत !!
 गिरीश बिल्लोरे "मुकुल"

रविवार, अक्टूबर 16, 2016

30 दिवसीय शौर्या शक्ति आत्मरक्षा मानकुंवर बाई महिला महाविद्यालय में प्रारंभ


   शासकीय मानकुंवर बाई महिला महाविद्यालय में संचालनालय महिला सशिक्तकरण म.प्र. शासन द्वारा ‘‘बेटी बचाओ अभियान’’ के अन्तर्गत दिनांक 15 अक्टूबर 2016 दिन शनिवार को  30 दिवसीय शौर्या शक्ति आत्मरक्षा हेतु कार्यक्रम का शुभारंभ किया गया 
        महाविद्यालय की प्राचार्य डा. उषा दुबे मैडम के मार्गदर्शन में उद्घाटन कार्यक्रम का आयोजन हुआ जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में श्री गिरीश बिल्लौरेसहायक संचालकसंभागीय बाल भवनजबलपुर एवं श्री नरेन्द्र गुप्ता उपस्थित हुए एवं उनके सतत् प्रयासों से कार्यक्रम को मूल रूप दिया गया । डा. किरण शुक्लाप्राध्यापकडा. अरूणा प्राध्यापक एवं एन.एस.एस. अधिकारी चित्रकला एवं डा. (कैप्टन) सपना चावलाएन.सी.सी. अधिकारीइस अवसर पर डा. आशा पाण्डेयडा. गुजराल श्रीमती मीना सोनी एवम देवेंद्र यादव भी उपस्थित रहे । 
        प्रशिक्षण के लिए प्रेरित किया एवं कराते विधा की ज़रूरत से अवगत कराया साथ ही इसके महत्व को समझाया । इस प्रशिक्षण के लिए महाविद्यालय की एन.सी.सी. एवं एन.एस.एस. के कैडैट्स एवं छात्राओंलगभग 100 बालिकाओं का प्रशिक्षण हेतु पंजीकरण किया गया। जिसकी भविष्य में बढ़ने की सकारात्मक उम्मीद हैं  प्रशिक्षण को पाने हेतु छात्राओं में  उत्साह हैं ।


सोमवार, अक्टूबर 10, 2016

सत्य यही है

बहुत विश्वास था की पथ प्रदर्शक संकेत सदा सही होते हैं पर सदा ऐसा हो कतई संभव नहीं है. आप को यकीन न हो तो अपने जीवन में देखना ....... इसी वज़ह से अंतरात्मा की आवाज़ के मायने हैं... कोई ज़रूरी नहीं कि आप वही गीत गाएं जो सभी गा रहे हों.... आत्म-ध्वनि को मत नकारिये........ सत्य यही है सही है सही है ... सही है.............!

पार्थ जाओ जयद्रथ का वध करो.......!


चित्र साभार :- कृष्ण कोष से 
कौरवों के जीजा जयद्रथ को वरदान था कि उसका  का वध कोई सामान्य व्यक्ति नहीं कर पायेगा, साथ ही यह वरदान भी प्राप्त था कि जो भी जयद्रथ को मारेगा और जयद्रथ का सिर ज़मीन पर गिरायेगा, उसके सिर के हज़ारों टुकड़े हो जायेंगे ... कृष्ण का चातुर्य देखिये आत्मदाह का संकल्प लेने वाले पार्थ को युद्धोचित सहयोग देकर सर संधान को प्रेरित किया .
  समय पूर्व तिमिर कुछ यूं हुआ मानो सूर्य को अस्ताचल में भेज दिया और फिर दिया .......... फिर कहा पार्थ जाओ जयद्रथ का वध करो... पर ध्यान रहे कि उसका सर ज़मीन पर न गिरे .......... यह वही जयद्रथ था जिसने द्रोपदी का शोषण करना चाहा था ! कोई कितना भी वरदान से युक्त हो पर उसका अंत तय है. कृष्ण की युक्तियाँ काम आतीं थीं पांडवों को तभी तो वे सफल हुए.
अस्तु  मुद्दा ये था कि कैसे न गिरता सर ज़मीन पर ...... युक्ति थी कृष्ण  के पास कृष्ण ने कहा – “पार्थ जाओ जयद्रथ का वध करो.......! ध्यान रखना सर उसके तापस  वृह्रद्रथ की गोद में गिरे ...... ” हुआ भी यही 100 योजन उत्तर दिशा में अर्थात  कुरुक्षेत्र लगभग 15 सौ किलोमीटर दूरी पर तापस पिता वृह्रद्रथ की गोद में जा गिरा .....  पार्थ जीवित रहे उनके सर के हज़ार हिस्से न हुए हज़ार हिस्से तापस पिता वृह्रद्रथ के हुए...... जिनकी हडबड़ाहट के कारण जयद्रथ का सर जमीन पर गिरा. वरदान भी तो यही दिया था ........ पिता ने. कि जिससे उसका सर गिरेगा उसके सर के टुकड़े होंगे.  
वरदान देने के पहले पात्र कुपात्र का ध्यान अवश्य रहें चाहे वो पुत्र क्यों न हो.  जीवन वही कुरुक्षेत्र है .... जहां कृष्ण जिसके साथ है वो युद्द जीतता है......... जहां हज़ारों कृष्ण के स्वांग साथ हों वहाँ ....... सर के हिस्से हो ही जाते हैं ....... देखना है सुधि पाठक इस कथा का क्या अर्थ लगातें हैं..




शनिवार, सितंबर 10, 2016

मोबाइल में व्यस्त हो गया : सौरभ पारे

                     
रेखा चित्र : शुभमराज  अहिरवार बालश्री एवार्डी
( इंजीनियर सौरभ पारे मेरे भांजे हैं ज्ञानगंगा कालेज के लेक्चरर.. सौरभ अपने पापा की तरह ही संगीत में रमे रहते हैं उनका छोटा   सा ट्रेवलाग पेश है )    
 शाम के साढ़े छः बज रहे थे, दिन भर उमस भरी धूप के बाद जो बादल छाए थे, वो अब ढलते सूरज की रौशनी में लाल लाल हो गए थे। 
यों तो सफर सिर्फ पांच घंटे का था, पर अभी थोड़ा लंबा लग रहा था। साथ वाली सीट पर एक सज्जन बैठे हुए थे और सामने उनकी धर्मपत्नी।
लेखक :- इंजीनियर सौरभ पारे 
 शुरुआत में तो हम सब शांत ही थे , मैंने तो सोच भी लिया था कि कु छ देर में मोबाइल पे मूवी लगाऊंगा और समय काट लूंगा, पर मेरे एक सवाल ने मेरे इस प्लान को सार्थक नहीं होने दिया।
"कहाँ तक जायेंगे आप?" , इस एक सवाल ने बातों की सिलाई खोल दी ।  कमीज से बाहर निकले हुए धागे को खींच दे तो सिलाई निकलने लगती है और धीरे धीरे उधड़ जाती है, ठीक वैसे ही मेरे इस सवाल ने उन सज्जन की झिझक मिटा दी और बातो का सिलसिला चल निकला रेलगाडी की रफ़्तार को चुनौती देता हुआ।
 चर्चा में पता चला कि वो सज्जन , जिनका नाम मै अभी तक नहीं जानता, कलकत्ता से वापस आ रहे है, अपने किसी रिश्तेदार की बरसी में शरीक हो कर, वापस घर की ओर कूच कर रहे है।
 खिड़की से बाहर देखा तो अब पेड़ धुंदले दिखाई पड़ रहे है । रात अपना पूरा जोर लगा रही है दिन को दबाने में, और इस पहर वो अपनी लड़ाई जीतते हुए नज़र आ रही है। अभी मैं खिड़की से आती हुई तेज़ हवा का आनंद ले ही रहा था कि एक आवाज़ ने मेरी तन्द्रा तोड़ दी। "इटारसी कितने बजे तक पहुचेगी गाडी?", उन सज्जन की धर्मपत्नी ने पूछा। उनके सवाल का जवाब देने के लिए हम अपने मोबाइल में इंटरनेट पर देखने लगे और जवाब ढूंढने लगे, पर नेटवर्क ने साथ नहीं दिया और हमने उनसे कहा "नेटवर्क नहीं है, जैसे ही आता है मैं आपको बताता हूं।" उन्होंने हामी भरी और हम सब कुछ देर शांत बैठ गए।
करेली में खाये हुए आलू बंडे, जो कि हम सभी ने खाये थे, अभी तक जीभ जला रहे थे। तभी उन्होंने हमें इलायची लेने का आग्रह किया और जलती हुई जीभ के कारण हमने पहली बार में ही स्वीकार कर लिया।
अब सभी बैठे बैठे थक गए है, और रेल का डब्बा भी लगभग खाली ही हो गया है। सब अपने हाथ पैर सीधे करने के लिए रुक रुक कर डब्बे का एक आध चक्कर लगा रहे है।
खिड़की से बहार देखने पर अब घरों की लाइट दिखाई देने लगी है, शायद इटारसी आने को ही है। हम सबकी चर्चा का यही विराम देने का समय भी है। अनजानी चर्चा में मन के न जाने ही कितने ही मलाल काम हो गए, शायद सच ही कहा है कि दुःख दर्द बाटने से कम होता है और ख़ुशी बाटने से बढ़ती है।
 इटारसीे पर पहले हम सब ने चाय पी और फिर वो दोनों अपने घर चल दिए और मै वापस अपनी सीट पर आ कर
मोबाइल में व्यस्त हो गया    


बुधवार, अगस्त 31, 2016

कितना कठिन है रोबो बच्चों का प्रशिक्षण

साभार :- न्यूज़-ट्रैक 
अक्सर  दुखी माता पिता को लेकर चिंतित हो जाता हूँ । चिंता का विषय बच्चे नहीं माँ बाप होते हैं । जो बच्चों के लिए खुद नैसर्किकता से बाहर वाले  काम करते हैं कि बच्चे का यंत्र बन जाना अवश्यंभावी है  जी हां बच्चे  एक मशीन यानी रोबोट बनकर रह गए हैं ।
         एक दिन अपने 10 साल के बच्चे को लेकर एक माता आईँ जिनका कहना था उनके बेटे को बेहतरीन सिंगर बना दूं ।  मोहतरमा की नज़र में बच्चा सर्वगुण संपन्न था । जाने कितनी खूबियाँ पट पट गिना गईं   ।
     मैंने पूछा - बच्चे पर आप कुछ अधिक ध्यान देतीं है
    वे बोलीं - साहब अगर हम इन पर ध्यान न दें तो दुनियां में पिछड़ जाएंगे ।
    कुल मिला के माँ बच्चे में आइंस्टाइन से लेकर सर्वोच्च व्यक्तित्वों तक  सब कुछ का मिश्रण घोल के डालना चाहतीं थीं । विनोद वश हमने पूछा - आप अपने बेटे को कैसा गायक बनाना चाहतीं हैं ?
उत्तर था  एकदम किशोर कुमार जैसा !
ये अलहदा बात है कि ये युग  हनी सिंग का युग  है ।
     उस बच्चे की दिनचर्या देखें तो आप हम  से अधिक बड़ा हो गया है वो सुबह 5 बजे उठता है । 7 बजे स्कूल जाता है 2 बजे लौटता है स्कूल से लंच लेता है । फिर 2:30 घर से ट्यूशन और अभी उसके पास 3 :30 से 5 बजे तक का समय है । *जिसमें उसे किशोर कुमार बनना है*। 6 बजे से उसे फिर होमवर्क करना है । 8 बजे उसे डिनर लेना है । 9 बजे सोएगा वो क्योंकि उसे  5 बजे जागना है । स्कूल उसे पढ़ाएगा,  कोचिंग वाला व्यापारी उसे आइंस्टाइन बनाएगा और अब मैं हाँ भई मैं बालभवन में उसे शिप्रा की मदद से किशोर कुमार बनाऊंगा । सोच रहा था कि ये बच्चा नहीं रोबो है । बिना कुछ विचार किये मैंने कहा मैडम - हम बालभवन  में बच्चों को रजिष्टर्ड करतें हैं रोबो को नहीं ।और फिर चपरासी से कहा   - अरे दादा फ़ार्म मत लाना ।
     बच्चे की माँ के सपने  एकदम अर्रा के गिरी दीवार से ढह गए । अवाक मुझे देख रहीं थीं
फिर मैंने कहा - आप बेटे का विकास रोबोट की तरह करना चाह रहीं हैं उसको लेकर आप बेहद संवेदित हैं  बहुत हद तक आपका बेटा  रोबोट बन भी चुका होगा । रोबोट में भावनाएं कैसे भरेगा बालभवन संगीत बिना भावना के सफल नहीं आपने किसी रोबो को गाते सूना है क्या ?
   अपने बच्चों को रोबोट मत बनाइये वरना उसका बचपन गुम जाएगा ?
  बच्चे का बचपन छीन कर आप क्या करना चाहतीं हैं । अगर आप बच्चे का भला करना चाहतीं हैं तो कल अपने बच्चे और पति के साथ आएं ।
अगले पति सहित मैडम आईं बच्चा भी साथ था मोटे चश्मे  के पीछे झाँकतीं आँखें मासूम पर  थका हुआ डरा हुआ  बचपन मेरे सामने था । मैंने माता पिता को पीछे वाली चेयर्स पर बैठाया बच्चे को अपने सामने बिठा कर बातचीत शुरू की । जवाब देने की कोशिश माता तर् पिता में से कोई एक कर रहा था । जिनको चुप रहने का निवेदन किया । बातों बातों में ज्ञात हुआ क़ि बच्चा चित्रकला सीखना चाहता है । उसने बताया कि वो दीवार और कागज़ पर लकीरों से डॉग हॉर्स ज़ेब्रा डाल आदि बना लेता है । पर सब दीवार पे बनाने के लिए डांटते हैं ।
  बच्चे के पिता से पूछा - इतने बेकार स्कूल में भर्ती क्यों कराया कि ट्यूशन की ज़रुरत पड़े ?
अवाक मुझे ताक रहे थे । मैंने फ़ार्म बच्चे के हाथ में दिया और कहा कल दादाजी से भरवा के उनके साथ आना । पापा मम्मी को अब परेशान मत करना बेटे ।
देखिये कल दादा और पोते आते है या फिर कोई नहीं ? जो भी हो साफ़ साफ़ कह कर एक बचपन बचाने की कोशिश की है अंजाम जो भी होगा कल के आगोश में है ।
शुभ रात्रि
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

मंगलवार, अगस्त 30, 2016

"मुझे कन्यादान शब्द से आपत्ति है


जब ये ट्विट किया कि  "मुझे कन्यादान शब्द से आपत्ति है..निर्जीव एवम उपयोग में आने वाली वस्तु नहीं है बेटियां ..!" और यही फिर  इसे वाट्स एप  पर डाला  तो लोग बचाव की मुद्रा में आ एन मेरे सामने आ खड़े हुए... बुद्धिवान लोग  मुझे  अज्ञानी संस्कृत और  संस्कृति का ज्ञान न होने वाले व्यक्ति का आरोप जड़ने  लगे . कुछेक ने तो संस्कार विधि नामक पीडीऍफ़ भेज दी . क्या बताऊँ सोशल-मीडिया  के विद्वानों को कि भाई मेरा आशय साफ़ है ..... कि बेटी को वस्तु मत कहिये ... आपकी बेटी में एक आत्मा है जिसका और खुद आपका  सर्जक ईश्वर है... हमको आपको सबको देह के साथ कुछ साँसें दान में मिलीं हैं..  ! बेटी आत्मजा है.. जिसका जन्म एक आत्मिक और आध्यात्मिक घटना है. पर परम पंडितों को लगा मैं धर्म विरुद्ध हूँ.. अरे भाई ... समझो .. बेटी दान देने की वस्तु नहीं बल्कि पुत्र के समतुल्य आपकी संतान है. उसे संघर्ष में मत डालो .... कोई खाप पंचायत ब्रांड सीमाओं में मत जकड़ो उसका दान नहीं सम्मान के साथ परिवार बसाओ उसका विवाह संस्कार संपन्न करवाओ.. परन्तु उसकी आत्म-ध्वनि को सुनो ....... समझो ....... उसे देवी कहते हो फिर भी दान करते हो...
मुझे मज़ा आने लगा ये सोच कर कि कोई क्यों सोच में बदलाव नहीं लाना चाहता क्योंकि अधिकाँश लोगों के अपने  मौलिक विचार नहीं हैं.. और वो  बदलाव के मूड में कतई नहीं होते ... और न कभी होंगे इतना ही नहीं कोई उनको विधर्मी होने देगा क्या..
एक मित्र का मत है कि- “ कन्यादान एक  महानदान है.”.. और यहाँ कन्या देने वाला बड़ा है.. लेने वाला याचक ?
मैंने मित्र से कहा ... भाई महान दान तो ईश्वर ने दिया है... हमको अर्थात हम खुद  भिक्षुक हैं याचक ...हैं..! एक भिखारी दानवीर कैसे होगा.. ?
मित्र : “.........” अवाक मुझे देखने लगा.. फिर अचानक कहा ... इससे हम दाता हो जाते हैं ...... ग्रहीता छोटा रह जाता है... बेटी को हम कहाँ नीचे देखने को मज़बूर करते हैं बताइये.. भला..?
मैंने कहा... भई... दामाद के पैर पूजते हो न ... ? उत्तर में हाँ सुनाई दिया .. क्यों .. यही विरोधाभास है विसंगति है.. अगर दाता हो तो दान में गर्व कैसा  ...? और दामाद जो पुत्र न होकर भी पुत्र तुल्य  है.. उसे अथवा उसके जनक को दान ग्रहीता साबित कर नीचा दिखाओगे.. ?
अब सब खामोश थे.. एक मित्र ने पूछा कि बेटी का विवाह न करोगे.. ? मैंने कहा.. अवश्य करूंगा पर कन्यादान नहीं ...... उसका उसके योग्य आत्मज  तुल्य वर से  परिणय संस्कार करूंगा ....!  तो फिर कन्यादान के उपवास से बचने इतना कुछ करोगे ..... ? मित्र का यह सवाल उसकी खीझ का प्रदर्शन था.. मैंने कहा - मित्र.... उपवास करके उस ईश्वर का आभार मानूंगा ... कि आपकी भेजी दो दो बेटियों को मैंने भ्रूण रूप में नहीं मारा मुझे विश्वास था वे मुझे सम्मान दिलाएंगी.. बेटों के समतुल्य मेरे सम्मान का कारण बनेंगी. हुआ भी यही और ईश्वर आप यही चाहते थे न ..... लो आज मैं तांबे की गंगाल में पानी की तरह पवित्र आत्मिक संबंधों में युवा पुत्रि और योग्यवर को एक दूसरे के वरन हेतु अंतर्पट खोल के आपके द्वारा  नियत व्यवस्था को निराहार रह कर बनाने का प्रयास कर रहा हूँ ... हे प्रभू आप नव युगल को आशीर्वाद देकर ........ सुखी वैभव संपन्न बनाएं....
एक अन्य मित्र बोल पड़े :- सनातनी शब्दों को तोड़ मरोड़ कर आप अर्थ बदलते हुए समझदार नहीं लगते... ?
“बेशक, सही कहा आपने मित्र सोचा है  सनातन अज़र अमर क्यों हैं..?”
हां........ इस लिए की वो ऋषि मुनियों की अथक साधना की वज़ह से ..!
मैं-“गलत,.. ऋषियों  मुनियों ने समाज को सामाजिक व्यवस्था दी थी... साथ ही वे बदलाव को देशकाल परिस्थिति के अनुसार स्वीकृति देते रहे . बदलाव को स्वीकारने से  किसी भी व्यवस्था को स्थाईत्व मिलता है ... वरना हम तालिबां होते.. ?”

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