रेखा चित्र : शुभमराज अहिरवार बालश्री एवार्डी |
शाम के साढ़े छः बज रहे थे, दिन भर
उमस भरी धूप के बाद जो बादल छाए थे, वो अब ढलते सूरज की रौशनी में लाल लाल हो गए
थे।
यों तो सफर सिर्फ पांच घंटे का था, पर अभी
थोड़ा लंबा लग रहा था। साथ वाली सीट पर एक सज्जन बैठे हुए थे और सामने उनकी धर्मपत्नी।
लेखक :- इंजीनियर सौरभ पारे |
"कहाँ तक जायेंगे आप?" , इस एक सवाल ने बातों की सिलाई खोल दी ।
कमीज से बाहर निकले हुए धागे को खींच दे तो सिलाई निकलने लगती है और धीरे धीरे
उधड़ जाती है, ठीक वैसे ही मेरे इस सवाल ने उन सज्जन की झिझक मिटा दी और बातो का सिलसिला चल निकला
रेलगाडी की रफ़्तार को चुनौती देता हुआ।
करेली में खाये हुए आलू बंडे, जो कि
हम सभी ने खाये थे, अभी तक जीभ जला रहे थे। तभी उन्होंने हमें इलायची लेने का आग्रह किया और जलती हुई
जीभ के कारण हमने पहली बार में ही स्वीकार कर लिया।
अब सभी बैठे बैठे थक गए है, और रेल
का डब्बा भी लगभग खाली ही हो गया है। सब अपने हाथ पैर सीधे करने के लिए रुक रुक कर
डब्बे का एक आध चक्कर लगा रहे है।
खिड़की से बहार देखने पर अब घरों की लाइट दिखाई
देने लगी है, शायद इटारसी आने को ही है। हम सबकी चर्चा का यही विराम देने का समय भी है। अनजानी
चर्चा में मन के न जाने ही कितने ही मलाल काम हो गए, शायद सच ही कहा है कि दुःख दर्द बाटने से कम
होता है और ख़ुशी बाटने से बढ़ती है।
मोबाइल में व्यस्त हो गया