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गुरुवार, मई 17, 2012

एक हैलो से हिलते लोग..!!

छवि साभार : समय लाइव
    उस वाले  मुहल्ले में अकेला रहने वाला वह बूढ़ा रिटायर्ड अफ़सर .मुझे सुना दिया करता था.अपना अतीत..बेचारा मारे ईमानदारी सबसे खुल्लम-खुला पंगे लेता रहा ईमानदार होने के कई नुकसान होते हैं.  
फ़ूला यानी उसकी  सतफ़ेरी बीवी कई बार उसे समझा चुकी थी कि -”अब, क्या करूं तुम पे ईमानदारी का भूत सवार है बच्चों का क्या होगा गिनी-घुटी पगार में कुछ किया करो...!  पर बीवी का भी कहा न माना . बार बार के तबादलों से हैरान था. एक पोस्ट  पे बैठा बैठा रिटायर हो गया. भगवान के द्वारे पर न्याय का विश्वासी  उसे अपने जीवन काल में कभी न्याय मिला हो उसे याद नहीं भगवान की अदालत का इंतज़ार करता वो वाक़ई कितना धैर्यवान दिखता है अब जो बात बात पे उलझा करता था .                

               सात बच्चों का बाप आज़ औलादों से कोसा जा रहा है-"वर्मा जी भी तो बाप हैं उनके भी तो आपसे ज़्यादा औलादें थीं सब एक से बढ़कर एक ओहदेदार हैं..एक तुम थे कि ढंग से हायरसेकंड्री भी न पढ़ा पाए..वो तो नाना जी न होते तो .!" फ़ूला के मरने के बाद एक एक कर औलादों ने  बाप से विदा ली. वार त्यौहार बच्चों की आमद होती तो है ऐसी आमद जिसके पीछे  बच्चों का लोकाचार छिपा होता है. बूढ़े को लगता है कि घर में उसके औलादें नहीं बल्कि औलादों की मज़बूरियां आतीं हैं.
           अस्सी बरस की देह ज़रा अवस्था की वज़ह से ज़र्ज़र ज़रूर थी पर चेहरा वाह अदभुत आभा मय सच कितना अच्छा दीप्तिमान चेहरा चोरों के चेहरे चमकते नहीं वो चोर न था लुटेरा भी नहीं एथिक्स और सीमाओं की परवाह करने वाला रिटायर्ड बूढ़ा आदमी दुनियां से नाराज़ भी नहीं दिखा कभी होता भी किस वज़ह से उसकी ज़िंदगी को जीने की एक वज़ह थी हर ऊलज़लूल स्थिति से समझौता न करने की प्रवृत्ति . और यही बात इंसान को पुख्ता बनाती है. दफ़्तर से बच्चों के लिये स्टेशनरी न चुराने वाला हर हस्ताक्षर की क़ीमत न वसूलने वाला व्यवस्था से लगातार जूझता रहा. किसी भी हैल्लो पर न हिलने वाले बुज़ुर्ग ने बताया था – क्या बताएं.. एक बार आला अफ़सर से उसके तुगलक़ी फ़रमान को मानने इंकार करने की सज़ा भोगी सड़ता चला गया एक ही ओहदे पर वरना आज मैं “….” होता…!
मैने पूछा-’दादा, क्या हुआ था..?’
वो-“कुछ नहीं मैनें उसे कह दिया था.. बेवज़ह न दबाओ साहब, मैं मैं हूं आप नहीं हूं जो एक हैलो से हिल जाऊं..!
-मैं-“फ़िर..?”
वो-“फ़िर क्या, बस नतीज़ा मेरा रास्ते लगातार बंद होने लगे कुछ दिन बिना नौकरी के रहा फ़िर आया तो माथे पे कलंक का टीका कि ये.. अपचारी है..?”
 आज़ वो बूढ़ा मुझे अखबार के निधन वाले कालम में मिला “श्री.. का दु:खद दिनांक .. को हो गया है. उनकी अंतिम-यात्रा उनके निवास से प्रात: साढ़े दस बजे ग्वारीघाट के लिये प्रस्थान करेगी-शोकाकुल- अमुक, अमुक, तमुक तमुक.. ..कुल मिला कर पूरी खानदान लिस्ट ..”
 ड्रायवर चलो आज़ आफ़िस बाद में जाएंगें पहले ग्वारीघाट चलें. रास्ते से एक माला खरीदी . शव ट्रक से उतारा गया मैने माला चढ़ाई चरण-स्पर्श किया बिना इस क़ानून की परवाह किये लौट आया कि दाह-संस्कार के बाद वापस आना है. सीधे दफ़्तर आ गया .
  ड्रायवर बार बार मुझे देख रहा था कि मैं आज़ स्नान के लिये घर क्यों नहीं जा रहा हूं…अब आप ही  बताएं किसी पवित्र निष्प्राण को स्पर्श कर क्या नहाना ज़रूरी है..?

रविवार, मई 13, 2012

छिपाती थी बुखारों को जो मेहमां कोई आ जाए : मातृ दिवस पर एक गीत



मां सव्यसाची स्वर्गीया प्रमिला देवी




ही क्यों कर सुलगती है वही क्यों कर झुलसती है ?
रात-दिन काम कर खटती, फ़िर भी नित हुलसती है .
खुल के रो सके हंस सके पल --पल पे बंदिश है  
हमारे देश की नारी, लिहाफ़ों में सुबगती है !              
                                                                       
वही तुम हो कि जिसने नाम उसको आग दे डाला
वही हम हैं कि जिनने उसको हर इक काम दे डाला
सदा शीतल ही रहती है भीतर से सुलगती वो..!
कभी पूछो ज़रा खुद से वही क्यों कर झुलसती है.?

मुझे है याद मेरी मां ने मरते दम सम्हाला है.
ये घर,ये द्वार,ये बैठक और ये जो देवाला है !
छिपाती थी बुखारों को जो मेहमां कोई जाए
कभी इक बार सोचा था कि "मां " ही क्यों झुलसती है ?

तपी वो और कुंदन की चमक हम सबको पहना दी
पास उसके थे-गहने मेरी मां , खुद ही गहना थी !
तापसी थी मेरी मां ,नेह की सरिता थी वो अविरल
उसी की याद मे अक्सर मेरी आंखैं छलकतीं हैं.

विदा के वक्त बहनों ने पूजी कोख माता की
छांह आंचल की पाने जन्म लेता विधाता भी
मेरी जननी तेरा कान्हा तड़पता याद में तेरी
तेरी ही दी हुई धड़कन मेरे दिल में धड़कती है.

आज़ की रात फ़िर जागा उसी की याद में लोगो-
तुम्हारी मां तुम्हारे साथ तो होगी इधर सोचो
कहीं उसको जो छोड़ा हो तो वापस घर में ले आना
वही तेरी ज़मीं है और उजला सा फ़लक भी है ! *

 गिरीश बिल्लोरे मुकुल,जबलपुर
            यही गीत youtube par सुनिये 

मंगलवार, मई 08, 2012

"फ़िज़ूल का रोना धोना छोड़ो.. पहले देश के हालात सुधारो फ़िर रोकना हमें..!!"


         हज़ूर की शान में कमी आते ही हज़ूर मातहओं को कौआ बना  देने में भी कोई हर्ज़ महसूस नहीं करते.  मार भी देते हैं लटका भी देते हैं .. सच कितनी बौनी सोच लेकर जीते हैं तंत्र के तांत्रिक .जब भी जवाव देही आती है सामने तो झट अपने आप को आक्रामक स्वरूप देते तंत्र के तांत्रिक बहुधा अपने से नीचे वाले के खिलाफ़ दमन चक्र चला देते हैं. कल ही की बात है एक अफ़सर अपने मातहतों से खफ़ा हो गया उसके खफ़ा होने की मूल वज़ह ये न थी कि मातहत क्लर्कों ने काम नहीं किया वज़ह ये थी कि वह खुद पत्र लिखने में नाक़ामयाब रहा. और नाकामी की खीज़ उसने अपने मातहतों को गरिया  के निकाली.                    
                       नया नया तो न था पर खेला खाया कम था पत्रकारों ने घेर लिया खूब खरी खोटी सुनाई उसे . शाम खराब हो गई होगी उसकी ..अगली-सुबह क्लर्क को बुलाया आर्डर टाइप कराया एक मातहत निलम्बित. दोपहर फ़ोन लगा लगा के पत्रकारों को सूचित करने लगा-”भाई साहब एक कौआ मार दिया है.. कल से व्यवस्था सुधर जाएगी..!” फ़ोन सुन कर  एक पत्रकार बुदबुदाया  -”"स्साला कल से स्वर्ग बन जाएगा शहर लगता है..!”
Image             ”Lick Upper & Cick Below” तंत्र में आपकी सफ़लता का राज़ हो सकता है अंग्रेज़ शायद यही तो सिखा गये हैं. न भी सिखाते तो हमारे संस्कार भी कमोबेश वैसे ही तो हैं.जिस “तंत्र के तांत्रिक” ने इस मंत्र सिद्ध कर लिया तो भाई उसका कोई कुछ बिगाड़ भी नहीं सकता. आपकी सफ़लता का एक मात्र रहस्य यही तो है. कभी एकांत में अपनी आत्मा से पूछना क्या हम इसी के लिये जन्मे हैं. अधिकांश युवा प्रतिभाएं भारत से केवल यहां की वर्किंग-कंडीशन की वज़ह से पलायन कर रहीं है भले ही यह  कारण पलायन के अन्य  कारणों में से एक हो पर कम विचारणीय नहीं. मेरे भतीजे को बार बार आई.ए.एस.  की तैयारी की सलाह देने पर वह मुझसे कटने लगा फ़िर एक दिन उसने कहा-”चाचा, भारत महान तो है पर यहां की वर्किंग कंडीशन्स उसकी महानता पर एक धब्बा है..आप तो विचारक हो न ? बताओ क्या मैं झूठ बोल रहा हूं..”
       झूठा न था वो युवा उसने परख ली थी देसी-व्यवस्था.. विदेशी नौकरी उसे आज जो स्तर दे रही है वो हमको कभी मय्यस्सर हो ही नहीं सकती. ये अलग बात है कि हम अब आदि हो गये हैं सतत अपमान सहने के. करें तो करें भी क्या समझौते तो करना ही है. बच्चे जो पालने है.उसे अच्छा लगा होगा जब सुना होगा उसने कि उसका एक कार्यक्रम सरकार ने स्वीकार लिया पूरे प्रदेश में लागू किया.फ़िर एक दिन अचानक जब उस व्यक्ति ने देखा कि सारा का सारा श्रेय एक चोर को दे दिया गया है वो भौंचक रहा बेबस उदास और हताश लगभग रो दिया. ऐसी स्थिति को क्या आज़ की नौज़वान पीढ़ी स्वीकारेगी न कदापि नहीं उसके पास सपने है युक्तियां हैं.. विचार हैं.. वो स्वतंत्र भी तो है उड़ जाता है परिंदा बन कर नहीं बनना उसे तंत्र का तांत्रिक..! क्यों वो बिना एथिक्स के सिर्फ़ एक पुर्ज़ा बन के काम करेगा .?.उसकी उड़ान को गौर से देखिये- मुड़ मुड़ के रोकने वालों को कहता है-”फ़िज़ूल का रोना धोना छोड़ो.. पहले देश के हालात सुधारो फ़िर रोकना हमें हम रुक जाएंगे सच यहीं जहां अपनी ज़मीन है अपना आकाश भी.. “ 
       

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