आम तो कतई नहीं ख़ास हैं सलिल समाधिया |
फेसबुक पर इन दिनों मेरे मित्र सलिल समाधिया के चर्चे हैं. लोग उनकी पोस्ट का इंतज़ार करते हैं.. जबलपुरिया भाषा में कहूं तो तके रहत हैं. एक पोस्ट का मुझे भी इंतज़ार था आज आ भी गई. फेसबुक पर इन शब्दों से शुरू पोस्ट
आत्मा क्या है,चेतना क्या है, अहम
क्या है, द्वैत क्या है, मृत्यु क्या है, बुद्धत्त्व क्या है ??
बुद्ध, ओशो, जे. कृष्णमूर्ति, ऑरोबिंदो, विवेकानंद क्या कहना चाहते हैं, वे किस और इंगित कर रहे हैं ??
इन गूढ़ आध्यात्मिक बातों पर 2018 तक की front-line scientific findings क्या कहती हैं ?
बुद्ध, ओशो, जे. कृष्णमूर्ति, ऑरोबिंदो, विवेकानंद क्या कहना चाहते हैं, वे किस और इंगित कर रहे हैं ??
इन गूढ़ आध्यात्मिक बातों पर 2018 तक की front-line scientific findings क्या कहती हैं ?
क्या विश्व में अंतिम
क्रांति "आध्यात्मिक क्रांति" सम्भव है ?
मैं पूरे ऐतबार के साथ ये
बात कह सकता हूं कि आने वाले युग में सिर्फ ..वही धर्म चलेगा जिसके पास पदार्थ और
चेतना (matter &
consciousness के
unified होने का समग्र विज्ञान
हो..
21 वीं सदी में पूरा विश्व सिर्फ उसी धर्म को accept करेगा.....
जिसकी epistemology. Ontology... Metaphysics.. Logic...ethics.. Cosmology.. Teleology... Ect के सिद्धांत. Modern. Quantum physics से सामन्जस्य बैठाल सकें...
जिसकी epistemology. Ontology... Metaphysics.. Logic...ethics.. Cosmology.. Teleology... Ect के सिद्धांत. Modern. Quantum physics से सामन्जस्य बैठाल सकें...
और वो theory पूरे world मे एक ही है.......वेदांत दर्शन...
विशेषकर..... अद्वैत वेदान्त..
विशेषकर..... अद्वैत वेदान्त..
ये हाकिंस- वॉकिंस से बहुत
आगे का विज्ञान है..
Science को अभी और वक्त लगेगा वहां तक पहुंचने में...
Science को अभी और वक्त लगेगा वहां तक पहुंचने में...
ये रहा वो Research Article..
"वेदान्त .चेतना और क्वाण्टम फिजिक्स"
क्या ऐसी आध्यात्मिक
क्रांति संभव है, जिसमें बच्चा-बच्चा ’‘अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ) का जयघोष कर उठे ?
जहाँ प्रत्येक मनुष्य ’’‘तत्त्वमसि’ (तुम भी वही (ब्रह्म) हो) के भाव से आविष्ट हो?।
क्या धरती पर ऐसे दिव्य मानवों की संभावना है, जिनका होना ‘ब्रह्म’ का प्राकट्य हो, जिनका पारस्परिक आचरण ‘लीला’ हो एवं कर्म ‘सृजन के लिए सृजन’ हो?
ऐसे विचारों और कल्पनाओं में हजारों पंख लगाए जा सकते है, और सैकड़ों दिशाओं में इनकी उड़ानों का चित्र देखा जा सकता है। लेकिन क्या 21वीं सदी इन संभावनाओं के यथार्थ प्रकटीकरण की सदी हो सकती है?
इस प्रश्न की प्रासंगिकता जितनी आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। क्योंकि गत 100 वर्षों में संपन्न भौतिकी की खोजों ने, (न्यूटन से लकर हाॅकिन्स तक), विज्ञान को अध्यात्म की दहलीज पर ला खड़ा कर दिया है।
क्वाण्टम फिजिक्स की आधुनिक अवधारणाएं, हजारों वर्षों पूर्व प्रस्फुटित वैदिक ऋचाओं का तार्किक वैज्ञानिक प्रस्तुतिकरण सिद्ध हो रही हैं।
आधुनिक क्वाण्टम भौतिकी की अवधारणा, अद्वैत वेदान्त के वैज्ञानिक दर्शन शास्त्र की तरह सामने आई हैं।
दलाई लामा के शब्दों में ‘‘क्वाण्टम भौतिकी, विज्ञान और धर्म के बीच एक ऐसा सेतु बनकर आया है जिसे हम ‘पार का विज्ञान’ [Science of transcendence } कह सकते है, जिसकी तीव्रता से प्रतीक्षा थी’’
जहाँ प्रत्येक मनुष्य ’’‘तत्त्वमसि’ (तुम भी वही (ब्रह्म) हो) के भाव से आविष्ट हो?।
क्या धरती पर ऐसे दिव्य मानवों की संभावना है, जिनका होना ‘ब्रह्म’ का प्राकट्य हो, जिनका पारस्परिक आचरण ‘लीला’ हो एवं कर्म ‘सृजन के लिए सृजन’ हो?
ऐसे विचारों और कल्पनाओं में हजारों पंख लगाए जा सकते है, और सैकड़ों दिशाओं में इनकी उड़ानों का चित्र देखा जा सकता है। लेकिन क्या 21वीं सदी इन संभावनाओं के यथार्थ प्रकटीकरण की सदी हो सकती है?
इस प्रश्न की प्रासंगिकता जितनी आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। क्योंकि गत 100 वर्षों में संपन्न भौतिकी की खोजों ने, (न्यूटन से लकर हाॅकिन्स तक), विज्ञान को अध्यात्म की दहलीज पर ला खड़ा कर दिया है।
क्वाण्टम फिजिक्स की आधुनिक अवधारणाएं, हजारों वर्षों पूर्व प्रस्फुटित वैदिक ऋचाओं का तार्किक वैज्ञानिक प्रस्तुतिकरण सिद्ध हो रही हैं।
आधुनिक क्वाण्टम भौतिकी की अवधारणा, अद्वैत वेदान्त के वैज्ञानिक दर्शन शास्त्र की तरह सामने आई हैं।
दलाई लामा के शब्दों में ‘‘क्वाण्टम भौतिकी, विज्ञान और धर्म के बीच एक ऐसा सेतु बनकर आया है जिसे हम ‘पार का विज्ञान’ [Science of transcendence } कह सकते है, जिसकी तीव्रता से प्रतीक्षा थी’’
क्वाण्टम भौतिकी, के नवीनतम सिंद्धातों ने अब साफ कर दिया है
कि विश्व का कारण पदार्थ नहीं बल्कि चेतना है....यह उद्घोष भारतीय प्राचीन वेदों
ने हजारों वर्ष पूर्व ही कर दिया था कि...
‘‘विश्व में चेतना ही सर्वत्र है और कुछ नहीं’’ (सर्वं खल्विदं ब्रह्म, छान्दोग्योपनिषद्, 4.1)
इस चेतना को वैदिक ग्रंथों में ‘ब्रह्म’ कहा गया है। समूचा वैदिक साहित्य इस ‘ब्रह्म’ का ही बखान है।
विषय में उतरने से पूर्व वेदान्त दर्शन के कुछ महावाक्यों पर दृष्टिपात करें।
‘ब्रह्म’ सर्वम’
ब्रह्म ही सब कुछ है (ब्रह्म सूत्र शांकरभाष्य, 1. 4.9)
‘‘विश्व में चेतना ही सर्वत्र है और कुछ नहीं’’ (सर्वं खल्विदं ब्रह्म, छान्दोग्योपनिषद्, 4.1)
इस चेतना को वैदिक ग्रंथों में ‘ब्रह्म’ कहा गया है। समूचा वैदिक साहित्य इस ‘ब्रह्म’ का ही बखान है।
विषय में उतरने से पूर्व वेदान्त दर्शन के कुछ महावाक्यों पर दृष्टिपात करें।
‘ब्रह्म’ सर्वम’
ब्रह्म ही सब कुछ है (ब्रह्म सूत्र शांकरभाष्य, 1. 4.9)
सर्वं हृोतद् ब्रह्म
यह सब कुछ ब्रह्म है, (माण्डूक्योपनिषद्, 2)
यह सब कुछ ब्रह्म है, (माण्डूक्योपनिषद्, 2)
अयं आत्मा ब्रह्म
यह आत्मा ब्रह्म है (माण्डूक्योपनिषद्, 2)
यह आत्मा ब्रह्म है (माण्डूक्योपनिषद्, 2)
ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति
जो ब्रह्म को जानता है, ब्रह्म ही हो जाता है। (मुण्डकोपनिषद्, 3.2.9)
ईशावास्यमिदं सर्वम्
सभी में ईश्वर का वास है, (ईशावास्योपनिषद्, 1)
जो ब्रह्म को जानता है, ब्रह्म ही हो जाता है। (मुण्डकोपनिषद्, 3.2.9)
ईशावास्यमिदं सर्वम्
सभी में ईश्वर का वास है, (ईशावास्योपनिषद्, 1)
एकोहं बहुस्याम्
मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ, (आर्षग्रन्थों में सुविख्यात उक्ति)
एकमेवाद्वितीयं
ब्रह्म एक मात्र है, अद्वितीय है (छान्दोग्योपनिषद्, 6.2.1)
मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ, (आर्षग्रन्थों में सुविख्यात उक्ति)
एकमेवाद्वितीयं
ब्रह्म एक मात्र है, अद्वितीय है (छान्दोग्योपनिषद्, 6.2.1)
‘‘पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।’’
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।’’
अदः (आधार) भी पूर्ण है, इदं (विस्तार) भी पूर्ण है। क्योंकि पूर्ण से
पूर्ण ही निकलता है। पूर्ण का पूर्ण निकाल लेने पर पूर्ण ही शेष रहता है
(बृहदारण्यकोपनिषद् 5.1.1)
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः
सभी प्राणियों में मेरा (परमात्मा) ही अंश है (भगवद्गीता, 15.7.)
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः
सभी प्राणियों में मेरा (परमात्मा) ही अंश है (भगवद्गीता, 15.7.)
एक इवाग्निर्बुहुध समिद्ध
एकः सूर्यो विश्वमनु प्रभूतः।
एकैवोषाः सर्वमिदं वि भात्येकं वा इदं वि बभूव सर्वम्।।
एकैवोषाः सर्वमिदं वि भात्येकं वा इदं वि बभूव सर्वम्।।
‘एक ही अग्नि अनेक रूपों में प्रज्वलित होती
है । एक सूर्य सम्पूर्ण विशव को उत्पन्न करता है । एक ही ऊषा से यह सम्पूर्ण जगत्
आलोकित होता है। वास्तम में यह सम्पूर्ण जगत् एक ही विशेषतत्त्व से उत्पन्न हुआ है’। (ऋक्वेद, 8.58.2)
ऐसे हजारों महावाक्यों, मंत्रों, सूक्तों, ऋचाओं, सूत्रों
एवं श्लोकों से वैदिक साहित्य ओतप्रोत है। आधुनिक भौतिकी के सामने उपस्थित सभी
प्रश्नों के उत्तर इसमें निहित है।
वैदिक साहित्य का आधुनिक भौतिकी के संदर्भ में पुनः अनुशीलन किया जाना आवश्यक है। यह न केवल आधुनिक विज्ञान को अनन्त ऊंचाइयों पर पहुँचा सकता है। किन्तु मानवीय चेतना के विकास की अप्रतिम विधियों द्वारा इस धरती पर उच्चतम मानवीय चेतना से अभिपूरित मानवों का आदर्श भी मूर्त रूप में स्थापित कर सकता है।
इस महान कार्य हेतु आध्यात्मिक प्रज्ञा एवं वैज्ञानिक मेधा संपंन मनुष्यों की आवश्यकता है।
वैदिक साहित्य का आधुनिक भौतिकी के संदर्भ में पुनः अनुशीलन किया जाना आवश्यक है। यह न केवल आधुनिक विज्ञान को अनन्त ऊंचाइयों पर पहुँचा सकता है। किन्तु मानवीय चेतना के विकास की अप्रतिम विधियों द्वारा इस धरती पर उच्चतम मानवीय चेतना से अभिपूरित मानवों का आदर्श भी मूर्त रूप में स्थापित कर सकता है।
इस महान कार्य हेतु आध्यात्मिक प्रज्ञा एवं वैज्ञानिक मेधा संपंन मनुष्यों की आवश्यकता है।
अद्वैत वेदान्त दर्शन एवं
भौतिक विज्ञान का संगम होना 21वीं सदी की परम आवश्यकता
है।
प्रस्तुत आलेख में हम
अद्वैत वेदान्त प्रणीत मानवीय चेतना को क्वाण्टम भौतिकी के संदर्भ में समझने का
प्रयास करेंगे ।
आधुनिक विज्ञान के पास जगत
को प्रतिपादित करने के तीन सिद्धांत है।
1. द्वैतवादी दृष्टिकोण (Dualistic View) जो अभौतिक आत्मा एवं भौतिक
शरीर, ऐसे दो तत्वों को मान्यता
देता है । किन्तु भौतिकी का ऊर्जा संरक्षण का सिद्धांत , माध्यम एवं मध्यस्थ की अनिवार्यता द्वारा इस
सिद्धांत को अमान्य करता है।
2. मात्र पदार्थ (Only Matter) यह विचार क्वाण्टम भौतिकी द्वारा अमान्य है क्योंकि पदार्थ के भीतर उतरने पर Matter समाप्त हो जाता है और हम अपदार्थ (Non-Matter) पर पहुँच जाते है ।
2. मात्र पदार्थ (Only Matter) यह विचार क्वाण्टम भौतिकी द्वारा अमान्य है क्योंकि पदार्थ के भीतर उतरने पर Matter समाप्त हो जाता है और हम अपदार्थ (Non-Matter) पर पहुँच जाते है ।
3. मात्रचेतना (Only Consciousness) – यह विचार क्वाण्टम भौतिकी द्वारा प्रणीत है।
जिसके अनुसार जगत का एकमात्र कारण है ‘चेतना’ ।
चलिए, थोड़ा फ़िज़िक्स समझें
- 20वीं सदी के प्रांरभ में मैक्स प्लांक ने
सर्वप्रथम इलेक्ट्रान द्वारा उत्सर्जित एवं अवशोषित की जाने वाली ऊर्जा को ‘क्वांटा’ कहा
। यह क्वाण्टम भौतिकी का प्रांरभ था
(Quantum = a very small quantity of electromagnetic energy that can not be divided).
- 1905 में आइन्सटीन ने प्रकाश को Bundles of Energy, Quantum कहा।
- नील बोहर, 1913 ने इलेक्ट्रान की स्थिति (Location) के संबंध में अनिश्चितता का सिद्धांत (Uncertainty principle) प्रतिपादित किया। तब से क्वाण्टम भौतिकी को संभावना का विज्ञान (Science of Probability) कहा जाने लगा है ।
(Quantum = a very small quantity of electromagnetic energy that can not be divided).
- 1905 में आइन्सटीन ने प्रकाश को Bundles of Energy, Quantum कहा।
- नील बोहर, 1913 ने इलेक्ट्रान की स्थिति (Location) के संबंध में अनिश्चितता का सिद्धांत (Uncertainty principle) प्रतिपादित किया। तब से क्वाण्टम भौतिकी को संभावना का विज्ञान (Science of Probability) कहा जाने लगा है ।
-इसके पश्चात आया क्वाण्टम भौतिकी का ‘दृष्टा प्रभाव सिद्धांत’ (Observer Effect) जिसके अनुसार मापन करने पर
क्वाण्टम तरंग, एक कण (Particle) की तरह अस्तित्व में आती
है । और नहीं देखे जाने पर वह एक ही समय में एक से अधिक स्थानों पर होती है, जिसे इसकी बहुस्थिती (Super Position) कहा जाता है ।
(Sub atomic Particles occupy multiple Positions at once, An electron has no visible reality until it is observed).
(Sub atomic Particles occupy multiple Positions at once, An electron has no visible reality until it is observed).
जाॅन वीलर के अनुसार ‘‘अगर देखने वाला नहीं हो, तो जगत सिर्फ ऊर्जा है’’। ...इसे आइन्सटीन ने इस तरह कहा है ‘‘जहाँ निश्चितता है वहाँ यथार्थ नहीं है, जहां यथार्थ है वहां निश्चितता नहीं है’’(Laws of Nature, Einstein).
यह अनिश्चितता का सिद्धांत
और कण-तरंग विरोधाभास (Wave- Particle
Paradox) ही
नवभौतिकी का आधार है। जिसके अनुसार क्वाण्टम जगत में प्रत्येक बार देखे जाने पर एक
नई घटना का प्रारंभ होता है और देखे जाने हेतु चेतना की आवश्यकता होती है। जिसमें
सृजन संभावना अंतर्निहित है। ;
(That every time we observe something there is new begining or that every event of observation which requires consciousness, is potentially creative).
क्वाण्टम भौतिकी के इस दृष्टाप्रभाव सिद्धांत ने न सिर्फ न्यूटन के निश्चितता के दर्शन का खण्डन किया है, बल्कि ‘पदार्थवादी यथार्थवाद (Materialistic Realism)’ को भी अमान्य कर दिया है। ...यद्यपि ठोस, सघन पदार्थ पर न्यूटन एवं क्वाण्टम भौतिकी का सम्भावना सिद्धांत एक ही परिणाम देता है । यही कारण है की अति पदार्थ पर न्यूटम के नियम लगभग सटीक बैठ सके, जो अनेकों अविष्कारों का मूल बने।
(That every time we observe something there is new begining or that every event of observation which requires consciousness, is potentially creative).
क्वाण्टम भौतिकी के इस दृष्टाप्रभाव सिद्धांत ने न सिर्फ न्यूटन के निश्चितता के दर्शन का खण्डन किया है, बल्कि ‘पदार्थवादी यथार्थवाद (Materialistic Realism)’ को भी अमान्य कर दिया है। ...यद्यपि ठोस, सघन पदार्थ पर न्यूटन एवं क्वाण्टम भौतिकी का सम्भावना सिद्धांत एक ही परिणाम देता है । यही कारण है की अति पदार्थ पर न्यूटम के नियम लगभग सटीक बैठ सके, जो अनेकों अविष्कारों का मूल बने।
किन्तु पदार्थ के
सूक्ष्मतम (क्वाण्टम) स्तर पर अनिश्चितता का सिद्धांत ही काम करता है । यहां
निश्चित कार्यकारण संबंध का अभाव है। तथा मापन ‘संभावना
के सिद्धांत’ पर आधारित होता है। यह
क्वाण्टम क्षेत्र, दृष्टाप्रभाव द्वारा
परिवर्तनीय है।
आइन्सटीन के पदार्थ-ऊर्जा
समतुल्य सिद्धांत (E=mc2) ने जहां पदार्थ और ऊर्जा
का अंतर संबंध उजागर कर दिया,
वहीं
क्वाण्टम क्षेत्र पर ‘दृष्टाप्रभाव’ एवं ‘सापेक्षता
के सिद्धांत’ (देश काल की सापेक्ष
निर्मिती) ने भौतिकी को उस स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ जगत के उद्भव, स्थिति एवं क्रियाविधि को जानने हेतु चेतना
का अध्ययन ही अब एक मात्र संभावना है।
क्वाण्टम भौतिकी की उक्त
अवधारणा के संदर्भ में यहाँ हम वेदांत प्रणीत मानवीय चेतना का अध्ययन करेंगे।
प्रसिद्ध भौतिक वैज्ञानिक
डाॅ. अमित गोस्वामी द्वारा मानवीय चेतना की व्याख्या इस प्रकार की गई है:-
Consciousness Collapses the quantum wave, resulting in the separation between subject & object. Our mind creates ‘The Ego’ through tangled hierarchies. Tangled hierarchies appears when the lower level- ‘The Cause’ & the higher level- ‘The Effect’ are tangled, or can not be separated. The system of tangled hierarchies does not point to anything outside of itself. It speaks only of itself and therefore becomes separate from the rest.
(चेतना द्वारा क्वांटम तरंग को तोड़े जाने से दृष्टा - दृश्य का द्वन्द उत्पन्न होता है। यह असंख्य स्तरों पर एक साथ होने वाली घटना है।
इस गुच्छेनुमा अधिक्रम (Tangled Hierarchies) में निम्नक्रम- ‘कारण’(Cause) व उच्चक्रम- ‘कार्य’(effect), अखंडित ही रहते है। तथा वह अन्य द्वन्दीय गुच्छों से अविभाजित होते हुए भी विभाजित प्रतीत होते हैं। यही जटिल उच्चनिम्न अधिक्रम हमारे चित्त (Mind) में एक स्वयं संदर्भ (Self Reference) की स्थिति उत्पन्न करता है, जो ‘अहं’(Ego) है।
इस ‘स्वयं संदर्भित चेतना’ एवं ‘मूलचेतना’ की संयुक्त स्थिति मानवीय चेतना है।)
Consciousness Collapses the quantum wave, resulting in the separation between subject & object. Our mind creates ‘The Ego’ through tangled hierarchies. Tangled hierarchies appears when the lower level- ‘The Cause’ & the higher level- ‘The Effect’ are tangled, or can not be separated. The system of tangled hierarchies does not point to anything outside of itself. It speaks only of itself and therefore becomes separate from the rest.
(चेतना द्वारा क्वांटम तरंग को तोड़े जाने से दृष्टा - दृश्य का द्वन्द उत्पन्न होता है। यह असंख्य स्तरों पर एक साथ होने वाली घटना है।
इस गुच्छेनुमा अधिक्रम (Tangled Hierarchies) में निम्नक्रम- ‘कारण’(Cause) व उच्चक्रम- ‘कार्य’(effect), अखंडित ही रहते है। तथा वह अन्य द्वन्दीय गुच्छों से अविभाजित होते हुए भी विभाजित प्रतीत होते हैं। यही जटिल उच्चनिम्न अधिक्रम हमारे चित्त (Mind) में एक स्वयं संदर्भ (Self Reference) की स्थिति उत्पन्न करता है, जो ‘अहं’(Ego) है।
इस ‘स्वयं संदर्भित चेतना’ एवं ‘मूलचेतना’ की संयुक्त स्थिति मानवीय चेतना है।)
उक्त जटिल व्याख्या को
(मुण्डक उपनिषद 3.1-3) में मन व चेतना नामक दो
पक्षियों के उदाहरण द्वारा समझाया गया है। एक शाख पर बैठे यह दो पक्षी ‘अहं’ व
‘चेतना’ हैं। ‘अहं’ संसार के अच्छे बुरे फल खाता है जबकि ‘चेतना’ मात्र
दृष्टा है।
ज्ञातव्य हो कि वेद एवं
उपनिषद अत्यंत सरल, काव्यात्मक भाषा में कहे
गये है, जो ज्ञान एवं माधुर्य से
परिपूर्ण है। अलबर्ट आइन्सटीन का कथन हैः- " If you can’t explain it simply, you don’t understand it well
enough" अर्थात
हम जितना अधिक जानते है उतना सरल बना सकते है।
वेदांत का महानतम ज्ञान सरलतम शब्दों में है।
वेदांत प्रणीत मानवीय चेतना एक दृष्टा चेतना है जिसे ‘आत्मा’ कहा गया है तथा परम चेतना को ‘ब्रह्म’ कहा गया है । आत्मा वस्तुतः ‘ब्रह्म’ ही है।
वेदांत का महानतम ज्ञान सरलतम शब्दों में है।
वेदांत प्रणीत मानवीय चेतना एक दृष्टा चेतना है जिसे ‘आत्मा’ कहा गया है तथा परम चेतना को ‘ब्रह्म’ कहा गया है । आत्मा वस्तुतः ‘ब्रह्म’ ही है।
‘ब्रह्मात्मैकबोधेन’ (विवेकचूणामणि - 58)
यह ‘ब्रह्म चेतना’ एक
निरंतर सृजनशील प्रक्रिया है,
जो
अनंत सामर्थ्य और अनन्त सृजन संभावना (Pure Potentiality and infinite creativity) की स्थिति है।
यह शून्य (Absolute Void) से दृष्टाप्रभाव (Observer Effect) द्वारा उत्पन्न ऊर्जा
(बिग-बैंग सिद्धांत अनुसार बिग-बैंग होते ही शून्य से पदार्थ एवं ऊर्जा उत्पन्न
होती है) को कण एवं तरंग में विभाजित कर, समय
एवं स्थान की (Time & space) ..सापेक्षता उत्पन्न करती
है। इस सापेक्षता में कण को निर्दिष्ट (Locate) किया जा सकता है।
शून्य (Void=The field of Consciousness) ;वह आकाश है, जहाँ सृजन होता है।
यह ‘ब्रह्म चेतना’ स्वयं
कालातीत (Timeless, Non Local) होती है।
जबकि हमारी स्थिति एक
सापेक्ष स्थिति है। यद्यपि हम सभी एक ही स्थान (Location) में है किन्तु इन्द्रियगत उपकरण (Sensory Artifact) के कारण अलग-अलग दिखाई
पड़ते हैं। (आइन्सटीन, थ्योरी आॅफ रिलेटिविटी)
यह सब विवरण उपनिषदों में मौजूद है
यह सब विवरण उपनिषदों में मौजूद है
उक्त विवरण के संदर्भ
स्वरूप कुछ वैदिक मंत्र इस प्रकार है-
आकाशशरीरं ब्रह्म
वह ब्रह्म आकाश जैसे शरीर वाला है, (तैत्तिरीयोपनिषद्, 1.6)
वह ब्रह्म आकाश जैसे शरीर वाला है, (तैत्तिरीयोपनिषद्, 1.6)
एतस्मादात्मन् आकाशः सम्भूतः
यह आत्मा आकाश के रूप में उत्पन्न हुई (तैत्तिरीयोपनिषद्, 2.1)
यह आत्मा आकाश के रूप में उत्पन्न हुई (तैत्तिरीयोपनिषद्, 2.1)
आकाशःआत्मा
आकाश आत्मा है, (तैत्तिरीयोपनिषद्, 2.3)
आकाश आत्मा है, (तैत्तिरीयोपनिषद्, 2.3)
हिण्यगर्भः समवर्तताग्रे
भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम्।।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम्।।
सृष्टि से पूर्व
हिरण्यगर्भ (स्वार्णिम प्राणतत्त्व) ही सम्यकस्वरूप मं एकाकी अवस्थित थे। वही
समस्त प्राणियों के जन्मदाता और अधिपति हैं। वही इस पृथ्वी (जीवलोक) और द्युलोक
(देवलोक) को आधार प्रदान करने वाले हैं। अन्य किस देवता के लिए आहुति दें ? (यजुर्वेद, 13.4., ऋक्वेद, 10.12.1.1)
ततो विराडजायत विराजो अधि पूरूषः।
स जातो आत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ।।
ततो विराडजायत विराजो अधि पूरूषः।
स जातो आत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ।।
सर्वप्रथम विराट पुरूष
(चेतनज्योति, प्राणात्मा) प्रकट हुआ ।
विराट (प्राणचेतना) ही अध्यक्ष (सर्वोच्चसत्ता) है। वह (प्राणतत्त्व) प्रकट होकर
सुविस्तृत हुआ, अतिरेकता से फैला। उसके
पश्चात् भूमि इत्यादि पंचतत्त्व प्रकट हुए तथा समस्त पुरों (शरीरों, घटों, लोकों, प्राणियों ) अर्थात् सम्पूर्ण जगत का
आविर्भाव हुआ- (सामवेद, पूर्वार्चिक, आरण्यपर्व, 6.7)
यह चेतना एक साथ अनेक
स्तरों (Different Planes of
Consciousness) पर
कार्यशील होती है।
संपूर्ण आकाश पर दृष्टाप्रभाव
‘महतत्व’(Cosmic Consciousness) है। तथा सापेक्षता से
निर्मित क्षेत्र विशेष से दृष्टा का तादात्म्य, ‘व्यक्तिगत अहं’ का
निर्माण है। जिस प्रकार ‘ब्रह्म’ एक अनंत संभावनाओं और सामर्थ्य से परिपूर्ण
सृजनशील चेतना है, जो मात्र इच्छा (Pure Intention) ;द्वारा नानाविध प्रपंच
निर्मित कर उन्हें अनुभव करता है,
उसी
प्रकार ‘व्यक्तिगत अहं’ मानवीय चेतना को अभिव्यक्त करता है। यह
व्यक्तिगत स्तर पर अस्मितारूपी दृष्टाप्रभाव है ।
उपनिषदों के अनुसार इस
मानवीय चेतना का प्राकट्य एक शरीररूपी यंत्र द्वारा होता है जिसके पाँच विभाजन है
(पंचकोश) ।
इस उपकरण में व्याप्त
चेतना की स्थूल से सूक्ष्मतम चार अवस्थाएं है (अयं आत्मा चुतष्पात - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय
-माण्डूक्य उपनिषद- 2)।
-माण्डूक्य उपनिषद- 2)।
अर्थात ‘अहं’ इच्छा द्वारा दृश्य निर्मित कर जिस चेतना के सम्मुख
प्रस्तुत करता है उसकी भी वेदांत अनुसार चार अवस्थायें है।
आर्ष ग्रंथों में इस बात
को और भी स्पष्ट करते हुए मानवीय चेतना द्वारा दृश्य के निर्माण की प्रक्रिया का
भी विशद विवरण मिलता है। उदाहरणतः सांख्य एवं औपनिषदिक दर्शन के अनुसार इस दृश्य
का निर्माण पाँच इन्द्रियों एवं चित्त (मन, बुद्धि, अहं, मिश्रित
अंतःकरण) द्वारा किया जाता है यहाँ चित्त, दृश्य
की व्याख्या करता है। तथा दृश्य इसमें उठ रही वृत्तियाँ हैं (वृत्ति =निरंतर
तरंगायित ऊर्जा। )
चित्त, वृत्तियों को रूप, शब्द व अर्थ देता है -(Description of the energy, vibrating in
different frequencies) ...जिसे चेतना द्वारा अनुभव किया जाता है ।
उक्त मानवीय चेतना वस्तुतः
ब्रम्हाण्डीय चेतना ही है।
उदाहरणतः मनुष्य के शरीर
की हर कोशिका जीवन की सम्पूर्ण इकाई है। जिसमें विद्यमान प्रज्ञा वस्तुतः
ब्रम्हाण्डीय प्रज्ञा ही है।
यह सभी कोशिकायें एक दूसरे
के साथ सामंजस्य पूर्वक कार्य करते हुए अंततः मानव देह रूपी अति जटिल संरचना को
आकार देती है तथा जीवन पर्यंत उसे संचालित करती है। यह समस्त कार्य हमारी
बुद्धिमत्ता से नहीं बल्कि ब्रम्हाण्डीय प्रज्ञा से संपादित होता है । इसी तरह
हमारा मस्तिष्क (Brain) तथा चित्त (Mind) भी ब्रम्हाण्डीय प्रज्ञा का ही हिस्सा है ।
अगर ‘अहं’ प्रथक
कर दें, तो मानव मस्तिष्क
ब्रम्हाण्डीय प्रज्ञा के साथ लय में होगा । जिसे हम अंतर्ज्ञान (Intuition) अथवा वैश्विकबुद्धिमत्ता (Cosmic Wisdom) कहते हैं।
‘अहं’ हमारी
इच्छाओं और भोगेच्छाओं का समुच्चय मात्र है। यह ब्रम्ह चेतना के प्रकटीकरण ‘एकोहं बहुस्याम’ की एक इकाई अभिव्यक्ति है। यही अहं मानवीय
चेतना का आधार है।
‘ओशो’ के
शब्दों में ‘‘यह अहं एक प्रक्रिया है, कोई स्थायी स्थिति नहीं है। हम अपनी इच्छाओं
द्वारा प्रतिक्षण अहं निर्मित करते है। स्वयं से बाहर होना ही अहं है’’।(Ego exists because we go on jumping ahead of ourselves- osho).
जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार
‘‘पूर्वाग्रहरहित मानस, अहंविहीनता की स्थिति है’’।
यह अहं एक सीमित चेतना है जो मात्र विभाजन ही देख पाती है। और अपने अनुभवों को एकत्रित करती जाती है। यह एकत्रीकरण अहं को घनीभूत करता जाता है। यह अहं प्रत्येक वस्तु को ‘दृष्टा-दृश्य’ (Subject-Object) की तरह देखता है।
- दृष्टा की यह ‘दृश्य- आबद्ध’ स्थिति ही ‘जीवात्मा’ है।
- दृश्य से निरंतर बद्ध रहना ही बंधन है।
- बंधन का कारण कर्म है ।
-कर्म का कारण ‘कर्ता’(Ego) है।
- ‘कर्ता’ का अभाव मुक्ति है।
यह अहं एक सीमित चेतना है जो मात्र विभाजन ही देख पाती है। और अपने अनुभवों को एकत्रित करती जाती है। यह एकत्रीकरण अहं को घनीभूत करता जाता है। यह अहं प्रत्येक वस्तु को ‘दृष्टा-दृश्य’ (Subject-Object) की तरह देखता है।
- दृष्टा की यह ‘दृश्य- आबद्ध’ स्थिति ही ‘जीवात्मा’ है।
- दृश्य से निरंतर बद्ध रहना ही बंधन है।
- बंधन का कारण कर्म है ।
-कर्म का कारण ‘कर्ता’(Ego) है।
- ‘कर्ता’ का अभाव मुक्ति है।
औपनिषदिक पंचकोशीय अवधारणा
मात्र मानवीय चेतना से संबंधित नहीं है। संपूर्ण जगत भी पंचकोशीय है।
भौतिक पदार्थ को ‘अन्नमय’ कहा गया है । ‘प्राणमयकोश’ प्राण ऊर्जा रूपी चेतना है जो सभी मानव शरीरों, पशुओं और वनस्पति को बनाये रखती है। यह पदार्थ में निहित ज्ञानपूर्ण ऊर्जा है जो प्राणियों में श्वास द्वारा गतिशील है। यह एक तरह की जोड़ने वाली शक्ति है ;(A Kind of binding force)। जो पूरे अन्नमय जगत को जोड़कर रखती है।
भौतिक पदार्थ को ‘अन्नमय’ कहा गया है । ‘प्राणमयकोश’ प्राण ऊर्जा रूपी चेतना है जो सभी मानव शरीरों, पशुओं और वनस्पति को बनाये रखती है। यह पदार्थ में निहित ज्ञानपूर्ण ऊर्जा है जो प्राणियों में श्वास द्वारा गतिशील है। यह एक तरह की जोड़ने वाली शक्ति है ;(A Kind of binding force)। जो पूरे अन्नमय जगत को जोड़कर रखती है।
-पूरा परिस्थकीयतंत्र (Ecosystem) जिस बुद्धिमत्ता से चलता
है, वह ऊर्जा प्राण है। प्राण
की आपूर्ति रूक जाने पर कोशिका(Cell)
की
व्यवस्था टूट जाती है। और वह अपने आधारभूत अणुओं में ;(Basic Molecules) में टूट कर समाप्त हो जाती
है तथा सभी अंगों एवं तंत्रों का समन्वय टूट जाता है, जो प्राणियों की (मनुष्य, पशु, वनस्पति)
मृत्यु है।
प्राण, सूक्ष्म जगत में प्रवेश कराने में सहायक होता
है, यही कारण है कि चेतना को
विकसित करने की विधियों में प्राण साधना का विशेष महत्व है।
‘मनोमयकोश’ सम्पूर्ण
विश्व का साझा चित्त है । सामूहिक विचार एक तरह का कच्चा माल (Raw Data) है। इन्हे छान कर हम जिन
विचारों को एकत्रित करते है अथवा स्वयं को जिनसे संबंधित करते है वह हमारा
व्यक्तिगत चित्त (Mind) है । यह भौतिक शरीर के
बाहर एक घेरा है जिसका प्रकटीकरण मस्तिष्क पर होता है।
यह वह स्थान (Platform); है जिस पर विचार आते-जाते
है। हम सभी विचारों को प्रक्रिया (Process) ;करके अपना विचार भी बना सकते है।
भाषा, धर्म, संस्कृति, व्यवस्था, दर्शन
(Language, Religion,
Culture, System, Philosophy etc.) ;आदि ‘मनोमयकोश’ का निमार्ण हैं। यह सामूहिक सृजन है, किसी व्यक्तिगत मस्तिष्क की उपज नहीं है।
इसी तरह निश्चयात्मिका
बुद्धि (Power of
Discrimination) ‘विज्ञानमयकोश’ है।
तथा ‘आनंदमयकोश’-कारण
शरीर(Causal Body) है। यहां से शुद्ध चेतना
(ब्रम्ह) सृजन में उतरती है तथा ‘अस्मिता’ के बोध से अनंत आत्माओं की तरह प्रकट होती
है।
यह मात्र अस्तित्व (Pure Being) की आधारभूत तरंग (Basic Vibrations) है। जहां समयरहितता (Timelessness) और आनंद (Bliss) की अनुभूति ही शेष है।
यहां द्वन्द समाप्त होता है और सापेक्षता से परे निरपेक्षता का अनुभव होता है। किन्तु यह भी अंतिम अवस्था नहीं है। अस्मिता का एक महीन धागा मौजूद होता है। वह टूट जाने पर मानवीय चेतना, ब्रम्ह चेतना हो जाती है।
(Anandamaya kosha- Pure being with slightesst touch of ego. Without this gossamer sheath you would disolve in to being and become bliss itself, without an experiencer – Deepak Chopra, ‘Life after death’ ).
यहां द्वन्द समाप्त होता है और सापेक्षता से परे निरपेक्षता का अनुभव होता है। किन्तु यह भी अंतिम अवस्था नहीं है। अस्मिता का एक महीन धागा मौजूद होता है। वह टूट जाने पर मानवीय चेतना, ब्रम्ह चेतना हो जाती है।
(Anandamaya kosha- Pure being with slightesst touch of ego. Without this gossamer sheath you would disolve in to being and become bliss itself, without an experiencer – Deepak Chopra, ‘Life after death’ ).
उक्त अध्ययन से यह स्पष्ट
है कि सम्पूर्ण विश्व का निर्माण जिस तत्व से हुआ है। उसे जान लेना ही अंतिम
लक्ष्य है। यही मानवीय चेतना की उच्चतम स्थिति भी है। इसे ही वेदांत ‘ब्रह्म चेतना’ कहता
है।
यही तंत्र का ‘शिव-शक्ति ऐक्य’ है,
यही अरविंद का ‘त्रियात्मक सत्’,
जे.कृष्णमूर्ति का ‘अविभाजित मानस’,
पतंजलि की ‘कैवल्य स्वरूप प्रतिष्ठा’
और विवेकानंद का ‘आत्म स्वरूप का प्राकट्य’ है।
यही गीता का ‘पुरूषोत्तम’ है, और इसके लिए ही ऋग्वेद ने कहा है
यही अरविंद का ‘त्रियात्मक सत्’,
जे.कृष्णमूर्ति का ‘अविभाजित मानस’,
पतंजलि की ‘कैवल्य स्वरूप प्रतिष्ठा’
और विवेकानंद का ‘आत्म स्वरूप का प्राकट्य’ है।
यही गीता का ‘पुरूषोत्तम’ है, और इसके लिए ही ऋग्वेद ने कहा है
‘एकमसद् विप्रा बहुधा वदन्ति’ ।
अन्य धर्मों पर दृष्टिपात
करे तो यही बुद्ध का ‘निर्वाण’, महावीर का ‘कैवल्य’, नागार्जुन का ‘शून्य’, इस्लाम का ‘रूह’ और बाईबल का ‘किंगडम
आॅफ गाॅड’ है ।
भारतीय दर्शन ऋग्वेद से अब
तक मानवीय चेतना का दर्शन है। जिसने न सिर्फ उच्चतम मानवीय चेतना का लक्ष्य
निर्धारित किया है। किन्तु उसकी प्राप्ति की विधियाँ भी प्रस्तुत की हैं।
उपनिषदों ने ‘श्रवण, मनन, निदिध्यासन’ के
मार्ग का अनुगमन किया है, तो तंत्र-‘विद्या, चर्या, क्रिया’, का मार्ग प्रशस्त करता है।
शंकर- ‘ज्ञान मार्ग’ तो रामानुज- ‘भक्ति’ बताते है।
पतंजलि-‘अष्टांग योग’ तो विवेकानंद- ‘ज्ञान, कर्म, भक्ति, राज’ चारों योग निर्दिष्ट करते है।
इस उच्चतम चेतना की प्राप्ति हेतु ही अरविंद- ‘समग्र योग’,
जे. कृष्णमूर्ति- ‘सजगता’
तो ओशो- ‘ध्यान’ का मार्ग प्रशस्त करते है।
शंकर- ‘ज्ञान मार्ग’ तो रामानुज- ‘भक्ति’ बताते है।
पतंजलि-‘अष्टांग योग’ तो विवेकानंद- ‘ज्ञान, कर्म, भक्ति, राज’ चारों योग निर्दिष्ट करते है।
इस उच्चतम चेतना की प्राप्ति हेतु ही अरविंद- ‘समग्र योग’,
जे. कृष्णमूर्ति- ‘सजगता’
तो ओशो- ‘ध्यान’ का मार्ग प्रशस्त करते है।
19वीं सदी के अंत में विवेकानंद ने जयघोष किया
था कि ‘‘चाहे कोई भी मार्ग अपनाओ
या सभी मार्गों का एकसाथ अनुगमन करो किन्तु अपने आत्म स्वरूप को प्रकट किये बिना
चैन से नहीं बैठो
- उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’’ (कठोपनिषद, 1.3.14)।
19वीं सदी के अंत में स्वामी विवेकानंद ने
अद्वैत वेदान्त को समसामयिक वैज्ञानिक भाषा में विश्व के समक्ष प्रतिपादित किया
था। यह दैव संयोग ही है कि उनके महाप्रयाण के कुछ ही समय पश्चात क्वांटम भौतिकी का
प्रादुर्भाव हुआ और विश्व, पदार्थ के विज्ञान से
निकलकर चेतना के विज्ञान की दहलीज पर आ खड़ा हुआ है।
प्रथम बार आधुनिक भौतिक
शास्त्रियों ने अद्वैत वेदांत की तरफ पूर्ण जिज्ञासा से भर कर देखना प्रारंभ किया
है।
यह प्रश्न कि ‘चेतना क्या है’ ? अब ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ की तरह विज्ञान के द्वार पर दस्तक दे रहा है।
क्वांटम भौतिकी की
अवधारणाओं ने समूचे विश्व के ज्ञान प्रवाह को पुनः प्राचीन भारतीय वेदों की ओर मोड़
दिया है।
क्या एक बार पुनः पूरब से ‘अहं ब्रह्मस्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ) का जयघोष होगा ? क्या समग्र ब्रह्मंड वाक् शक्ति युक्त
प्रत्येक प्राणी के माध्यम से एक स्वर में कह उठेगा -
‘तत्त्वमसि’ (तुम भी वही (ब्रह्म) हो)
क्या 21वीं सदी मानवीय चेतना के विकास की सदी होगी?
सलिल......
( A Research Article by- Salil Samadhia..)