किसे क्या पता था कि युवा सन्यासी सनातनी व्यवस्था को श्रेष्ठ स्थान दिला देगा। लोगों के पास अपने अनुभव और अधिकारिता मौजूद थी। बड़ा अजीब सा समय था। तब हम ब्रिटिश भारत थे औपनिवेशिक वातावरण कैसा हो सकता है यह एहसास 47 के बाद प्रसूत हुए लोगों को क्या जब मालूम ?
लोगों के विचार बापू के मामले में भिन्न हैं कोई कहता है - प्रयोगवादी महात्मा गांधी के socio-political चिंतन में कभी-कभी कमी नजर आती है परंतु ऐसा नहीं है कि वह इस कमी के लिए दोषी हैं।
तो किसी ने कहा - महात्मा ने अध्यात्मिक चैतन्य को प्रमुखता नहीं दी। इसका यह तात्पर्य बिल्कुल नहीं है कि महात्मा गांधी ने आध्यात्मिक चैतन्य की मीमांसा नहीं की वे क्रिया रूप में यह सब करते रहे .
कुछ तो मानते हैं कि गांधी जी चर्खे पर अटके हुए हैं । वे भारत का विकास स्वीकार रास्ता बनाते नज़र नहीं आते !
संक्षेप में कहें तो - लोगों को महात्मा से बहुत शिकायत हैं । इसमें गोडसे को शामिल नहीं किया । गोडसे के संदर्भ में बहुत बातें अलग से हो रहीं हैं और गोडसे ने तो गाँधी के साथ अक्षम्य अपराध किया पर कुछ चिंतक गांधी जी के विचारों को समूल विनिष्ट करते नज़र आ रहे हैं ।
गांधी जी और विवेकानंद दोनों महापुरुषों के जन्म और कार्य अवधि के कालखंड को देखें दोनों ही समकालीन थे । इन दोनों महापुरुषों में एक समानता और है वे भारत को भाषित करने विदेश गए ।
दक्षिण एशिया गए और दूसरे शिकागो। भारत के यह दोनों बेटे अलग-अलग देशों से अपने अपने गंतव्य पर पहुंचे थे। दक्षिण अफ्रीका से राजनैतिक तौर पर भारत में आजादी के स्वरों को मजबूती मिली तो दूसरी ओर शिकागो में भारत के आध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली होने की घोषणा की आधिकारिक रूप से कर दी ।
उद्घोषणा करने वाले हमारे महान विद्वान स्वामी विवेकानंद ने भारतीय दर्शन और अध्यात्म का विश्लेषण कर विश्व को चकित और विस्मित कर दिया...महान विद्वान नरेंद्र से स्वामी विवेकानंद हुए ! फिर स्वामी विवेकानंद ने भारत का भ्रमण किया वे जानते थे कि उन्हें बहुत कम समय मिला है। और इसी कारण से स्वामी ने तेजी से काम किया। वे मानव जीवन में चेतना विस्तार करते रहे ।
1947 के बाद के भारत ने ना तो महात्मा को आत्मसात किया और ना ही विवेकानंद को । मेरी पिछली पीढ़ी पर मेरा यह आरोप गलत नहीं है। गांधी के नाम पर सहकारिता लघु और कुटीर उद्योग स्कूलों में गांधी टोपी चरखा तकली आदि को आत्मसात किया लेकिन इसके पीछे वाले गणित को ना समझने की कोशिश की ना समझाने की। अगर सच में समझ लिया होता तो प्रत्येक गांव प्रत्येक पंचायत आत्मनिर्भर होती। ग्रामीण विकास एवं जमीन आत्मनिर्भरता की बात वर्ष 2020 में करने की जरूरत ना पड़ती वह भी कोरोना के भयावह संक्रमण के बाद आप सबको समझ में आया है कि- "भारत के हर एक गांव को आत्मनिर्भर एवं सक्षम बनाना क्यों जरूरी है..!"
गांधी का चरखा किसी तरह से भी बहुत छोटा मोटा संदेश नहीं दे रहा था। गांधी कह रहे थे नंगे मत रहो अपना कपड़ा खुद बुन लो न ..!
पर हमें तो शहर की जगमगाती रोशनी बुला रही थी और हम थे की पतंगों की तरह उस रोशनी की तरफ भागे जा रहे थे है ना झूठ बोल रहा हूं तो कहिए ?
ठीक उसी तरह विवेकानंद को भी उनकी जन्मतिथि और उनकी पुण्यतिथि पर याद करने की फॉर्मेलिटी कर ली गई। हमने भी कभी स्कूल प्रारंभ किया तो ऐसा ही कुछ किया था। हमारे दौर के लोग भी स्वामी को नहीं जानते जानने के लिए जरूरी अध्ययन चिंतन मनन ध्यान यह सब नहीं किया जाना भी भारत का दुर्भाग्य ही तो है।
कुछ वर्ष पूर्व विवेकानंद को राष्ट्रवाद से जोड़ने की कोशिश करने वाला एक आयोजन हुआ। उस आयोजन में सलिल समाधिया भी एक वक्ता थे। बुलाया तो मैं भी गया था परंतु मैंने नन्हे बच्चों को विवेकानंद जी से मिलाने का संकल्प जो लिया था। सलिल भी मेरे कार्यक्रम में मुख्य अतिथि थे। सलिल को जाना पड़ा और गए जहां उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि- " स्वामी विवेकानंद मानवतावादी थे।"
लोग बहुत प्रेक्षागृह के लोग चकित थे ।
सलिल का अपना विचार था स्वीकार्य है सबको स्वीकार्य होना चाहिए स्वामी विवेकानंद किस तरह से उन्हें प्रभावित करते हैं। मुझे तो विशुद्ध आध्यात्मिक मानवतावादी विचारक भारत के ऐसे युवा सन्यासी जिसने ना केवल धर्म और अध्यात्म की अलख जगाई बल्कि उसने यह भी साबित कर दिया कि भारतीय दर्शन में मानवता सर्वोच्च स्थान पर है।
1. अमरीकी भाइयों और बहनों, आपने जिस स्नेह के साथ मेरा स्वागत किया है उससे मेरा दिल भर आया है. मैं दुनिया की सबसे पुरानी संत परंपरा और सभी धर्मों की जननी की तरफ़ से धन्यवाद देता हूं. सभी जातियों और संप्रदायों के लाखों-करोड़ों हिंदुओं की तरफ़ से आपका आभार व्यक्त करता हूं.
2. मैं इस मंच पर बोलने वाले कुछ वक्ताओं का भी धन्यवाद करना चाहता हूं जिन्होंने यह ज़ाहिर किया कि दुनिया में सहिष्णुता का विचार पूरब के देशों से फैला है.
3. मुझे गर्व है कि मैं उस धर्म से हूं जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है. हम सिर्फ़ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते बल्कि, हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं.
4. मुझे गर्व है कि मैं उस देश से हूं जिसने सभी धर्मों और सभी देशों के सताए गए लोगों को अपने यहां शरण दी. मुझे गर्व है कि हमने अपने दिल में इसराइल की वो पवित्र यादें संजो रखी हैं जिनमें उनके धर्मस्थलों को रोमन हमलावरों ने तहस-नहस कर दिया था और फिर उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली.
5. मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं जिसने पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और लगातार अब भी उनकी मदद कर रहा है.
6. मैं इस मौके पर वह श्लोक सुनाना चाहता हूं जो मैंने बचपन से याद किया और जिसे रोज़ करोड़ों लोग दोहराते हैं. ''जिस तरह अलग-अलग जगहों से निकली नदियां, अलग-अलग रास्तों से होकर आखिरकार समुद्र में मिल जाती हैं, ठीक उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा से अलग-अलग रास्ते चुनता है. ये रास्ते देखने में भले ही अलग-अलग लगते हैं, लेकिन ये सब ईश्वर तक ही जाते हैं.
स्वामी विवेकानंद यह उदाहरण शिव महिम्न स्त्रोत से दिया है जो मूल चाहे इस तरह है
त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।
7. मौजूदा सम्मेलन जो कि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, वह अपने आप में गीता में कहे गए इस उपदेश इसका प्रमाण है: ''जो भी मुझ तक आता है, चाहे कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं. लोग अलग-अलग रास्ते चुनते हैं, परेशानियां झेलते हैं, लेकिन आखिर में मुझ तक पहुंचते हैं.''
8. सांप्रदायिकता, कट्टरता और इसके भयानक वंशजों के धार्मिक हठ ने लंबे समय से इस खूबसूरत धरती को जकड़ रखा है. उन्होंने इस धरती को हिंसा से भर दिया है और कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हो चुकी है. न जाने कितनी सभ्याताएं तबाह हुईं और कितने देश मिटा दिए गए.
9. यदि ये ख़ौफ़नाक राक्षस नहीं होते तो मानव समाज कहीं ज़्यादा बेहतर होता, जितना कि अभी है. लेकिन उनका वक़्त अब पूरा हो चुका है. मुझे उम्मीद है कि इस सम्मेलन का बिगुल सभी तरह की कट्टरता, हठधर्मिता और दुखों का विनाश करने वाला होगा. चाहे वह तलवार से हो या फिर कलम से.
【 धर्म सभा का भाषण साभार :-
बीबीसी https://www.google.com/amp/s/www.bbc.com/hindi/amp/india-41228101 】
भारत का अध्यात्म भी तो यही कहता है दर्शन भी यही कहता है उसे हम भूल जाते हैं और यह भी भूल जाते हैं किसकी व्याख्या विश्व फोरम पर हो चुकी है।
यहां अल्पायु का योगी मेरे ह्रदय पर आज भी राज करता है। ऐसा क्यों... ऐसा इसलिए कि जब भी भारत भ्रमण पर निकले तो उन्होंने जिन से भी मुलाकात की वह सब के सब भारतीय थे। ना हिंदू न मुसलमान थे ना सिक्ख थे, बौद्ध पारसी ईसाई कुछ भी नहीं थे। दौर ही ऐसा था जी हां इन सब से मिले थे वाह क्या बात है ऐसे विद्वान को मैं अपना भगवान क्यों ना मानूँ है कोई जवाब ?
परंतु कुछ बुद्धिवादी ब्रह्म सत्ता को अस्वीकार्य करते हुए अपने तर्कों और लोगों की अध्ययनगत कमी की चलते हर एक व्यक्ति को कृष्ण को राम को यहां तक कि भारत को ही नकारने किसी चेष्टा की है।
देश काल परिस्थिति के अनुसार धर्म सूत्रों की व्याख्या करनी चाहिए। लेकिन कुछ लोग जीवनशैली के मामले में और सामाजिक लोक व्यवहार के मामले में बनी बनाई परंपराओं को पकड़कर चलते हैं तो कुछ लोग अनावश्यक विद्रोही स्वरूप धारण कर लेते हैं। अब कोरोनाकाल को ही ले लीजिए अब जब सड़कों पर मजदूर मर रहे हैं तो दूसरे मजदूर यह सोच रहे हैं हम क्यों गए ? गांधी ने तो कहा ही था न की आत्मनिर्भर बनो ग्राम सुराज को मजबूत करो ।
भ्रमित मत रहो।
यहां तर्क शास्त्री आचार्य रजनीश को कोट करना चाहूंगा वे कहते थे कि- "महात्मा गांधी सोचते थे कि यदि चरखे के बाद मनुष्य और उसकी बुद्धि द्वारा विकसित सारे विज्ञान और टेक्नोलॉजी को समुद्र में डुबो दिया जाए, तब सारी समस्याएं हल हो जाएंगी। और मजेदार बात इस देश ने उनका विश्वास कर लिया! और न केवल इस देश ने बल्कि दुनिया में लाखों लोगों ने उनका विश्वास कर लिया कि चरखा सारी समस्याओं का समाधान कर देगा।"
और अब सारा विश्व समझ रहा है चरखे, तकली, रुई पौनी के जरिए वह प्रयोगवादी बुजुर्ग क्या कह गए थे ।
वापस लौटता गोबर का खाद वापस लौटते वे लोग दो बैलों के गोबर को पिछड़ेपन का प्रतीक मानते थे किसी सेठ की फैक्ट्री के श्रमिक होकर स्वयं को विकसित मानते थे विस्तारित पल उन्हें याद आ रहे होंगे रास्ते भर । भारत की उपजाऊ भूमि पर लोगों के अभाव में जगह-जगह उगते इंजीनियरिंग कॉलेज ना पेट भर पा रहे हैं ना किसी को भी जीने की गारंटी दे रहे हैं।
रहा स्वामी विवेकानंद का प्रश्न तो उन्होंने कभी भी न तो वैचारिक रूप से उग्र बनाया और न ही उग्रता का युवाओं को पाठ पढ़ाया। इसीलिए मुझे प्रिय हैं पूज्य स्वामी विवेकानंद जो शिवांश है यानी शिव का अंश है।
यहां एक और उदाहरण दे रहा हूं। विवेकानंद ने आम भारतीय को आध्यात्मिक रूप से योगी बनने की सलाह दी थी। नई सलाह तो ना थी । भारत के अधिकांश महर्षि विद्वान और महान व्यक्तित्व गृहस्थ हुआ करते थे। उन्होंने प्रपंच अध्यात्म योग का संक्षिप्त हिंदू जरूरी विश्लेषण कर दिया था। जबकि आचार्य रजनीश ने नव सन्यास के नाम पर लोगों को कुछ अजीब सा विचार दे दिया। मित्रों मेरी दृष्टि से नव सन्यास उपलब्ध सुविधाओं विलासिता के साथ सन्यासी हो जाने का अनुज्ञा पत्र यानी लाइसेंस था।
और यह लाइसेंस उनके साधकों के लिए उपयोगी हो सकता है लेकिन समुद्र सनातन व्यवस्था के लिए तो बिल्कुल नहीं।
यहां एक जानकारी देना चाहता हूं कि प्रपंच अध्यात्म योग को विस्तार देने वाले समकालीन ब्रह्मलीन स्वामी शुद्धानंदनाथ ने अपने साधकों को एक आचार संहिता के साथ इस योग को अपनाने की अनिवार्यता और महत्व को प्रतिपादित किया।
*ब्रह्मलीन स्वामी शुद्धानंदनाथ* एक सन्यासी थे उनका कार्यक्षेत्र सतना मैहर कटनी जबलपुर नरसिंहपुर गाडरवारा सालीचौका रहा है। 【नोट-इससे अधिक जानकारी मैं व्यक्तिगत रूप से नहीं देना चाहता कभी उन पर लिखूंगा सब विस्तार से जानकारी दूंगा।】
स्वामी शुद्धानंदनाथ के संदेशों थे आज्ञा से लगता है कि वे बिना वन गमन किए योगियों की तरह तप के बगैर गृहस्थों को आत्म परिष्कार का पथ दे गए।
परंतु यहां नव सन्यास का स्वरूप ही अजीबोगरीब देखा जा रहा है।
मित्रों जो लिखा है वह मेरा व्यक्तिगत विश्लेषण है। जो यह साबित करने के लिए पर्याप्त है भारत के महापुरुष स्वामी विवेकानंद के बिना भारत के आदर्श स्वरूप हो समझना और समझाना कठिन है।
आत्मनिर्भरता का अर्थ अनर्थ करने वालों को सतर्क रहना चाहिए प्रधान सेवक वही कह रहा है जो गांधी ने कहा था। गांधी के प्रयोगों का तात्पर्य समझना आज भी आवश्यक है भविष्य के लिए भी आवश्यक है। और स्वामी विवेकानंद को अपने चिंतन में समाहित कर लेना आज की अनिवार्यता है।
सदियों बाद भी आप हम जब ना होंगे तब भी गांधी और विवेकानंद अवश्य होंगे। बहुत सारे ढांचे गिर जाएंगे विकास सूर्य में घर बनाने तक का संभव हो सकता है परंतु वहां भी गांधी विवेकानंद प्रासंगिक होंगे। जहां मानवता है वहां यह दोनों महानुभाव आवश्यक हैं आवश्यक थे और आवश्यक रहेंगे। आचार्य रजनीश को सिरे से खारिज करता हूं गांधियन थॉट्स के मामले में मैं उसे नहीं कह रहा हूं ना उन्हें भगवान कह रहा हूं और आवश्यक भी नहीं भारत तो सनातन का पक्षधर है। सहिष्णुता समग्रता और आत्मनिर्भरता भारत के मूल में है .