15.6.20

क्यों करते हैं सितारे आत्मघात कभी सोचा आपने...!


आत्महत्या करना सामान्य रूप से एक अवसाद की स्थिति का दुष्परिणाम है सुशांत की आत्महत्या और इसके पहले भी लगभग 15 चर्चित कलाकारों तथा कई गुमनाम कलाकारों ने आत्महत्या की है और जब भी कोई कलाकार आत्म हंता बनता है तो बेहद पीढ़ा होती है !   व्यक्ति के लिए आत्महत्या बेहद सरल विकल्प होता  है क्योंकि एकाकीपन और विकल्पों का अभाव कुछ ऐसे ही मनोवैज्ञानिक नजरिए से विध्वंसक माने जाने वाले निर्णय लेने के लिए बाध्य कर देते हैं।
सारेगामापा 18-19 में 
सुशांत ने इशिता को क्या 
कहा था सुनिए ।
वीडियो स्रोत Zeetv से
आभार सहित । 
सौजन्य  तेजल विश्वकर्मा 


   क्योंकि उसके पास जीवन की विषम परिस्थितियों में जीने के लिए निदान खोजते खोजते जब कभी भी डेडएंड नजर आने लगता है सब उसके पास नकारात्मक विकल्प सहज ही उपलब्ध होते हैं? 
और वह सुसाइड करना परंतु अत्यधिक संवेदनशील होते हैं अगर आप देखें तो कलाकार बहुत जल्दी ऐसे निर्णय लेने में देर नहीं लगाते और आत्मघाती कदम उठा लेते हैं। यह उनकी अत्यधिक संवेदनशीलता का परिणाम होता है। 
सामान्य व्यक्तियों में अधिकतर विकल्पों की तलाश होती है जो भले ही उसके पास घर परिवार जिम्मेदारी और संघर्ष सब कुछ एक विकल्प के रूप में सामने आता और बेहद डार्कनेस नजर आती है तब ही वह आत्महत्या को अंजाम देता है। जबकि कलाकार ऐसा नहीं करता उसके पास बहुत सारे विकल्प होते हैं परंतु संवेदनशीलता इस कदर हावी होती है कलाकार सबसे पहला कदम आत्महत्या ही सोचता है। सुशांत सिंह का जाना उसी क्रम में घटना समझ में आती है। 
अक्सर देखा गया है कि लोग हारना स्वीकार नहीं करते हैं !
     क्योंकि उन्हें उनके जन्म के साथ दी जाने वाली घुट्टी में जितना है जितना है जितना है इतनी बार लिखा जाता है कि वह पराजय बर्दाश्त नहीं कर पाना सबसे पहले सीखता है। जबकि जीवन में हाथ को स्वीकार ना और उसके साथ नए विकल्पों को जोड़ना बहुत जरूरी है गार्जियन बचपन से ऐसा नहीं सिखाते। सभी को यह लगता है कि उनका बच्चा पड़ोस वाले पांडे जी गुप्ता जी के बच्चों से कमजोर क्यों? और बच्चा भी इसी कोशिश में लग जाता है कि मैं पांडे जी गुप्ता जी शर्मा जी जैन साहब आदि सब के बच्चों से आगे होकर दिखाऊंगा । अब तो जानते हैं कि सुशांत सिंह एआई ट्रिपल ई के एंट्रेंस एग्जाम में सबसे टॉप वाली लिस्ट में शायद सातवें रैंक के साथ चुन लिए गए थे कुछ साल उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी की थी। सुनते हैं इंस्टाग्राम पर पर सुशांत नहीं अपनी मां को याद किया शायद यह उनका अंतिम मैसेज रहा है वे बीती यादों को याद करते हैं और उपलब्धियों को मां के अभाव में सुने मानते रहे। यह एक अलग साइक्लोजिकल पहलू भर के आ रहा है जिसे जीत और हार के पहलू से भी नहीं देखा जा सकता। क्योंकि एमएस धोनी में उनकी सफलता पर शायद उन्होंने कहा था शायद क्या निश्चित ही कहा था कि वह इस सफलता से अत्यधिक प्रसन्न है नहीं है क्योंकि वह अपनी मां को अपनी उपलब्धि दिखाना चाहते थे भौतिक रूप में मां उनके साथ नहीं है यह एक भावनात्मक संबंध भी है हो सकता है की सुशांत ने विरक्ति भाव जो आमतौर पर किसी भी बच्चे में होता है अब तक सक्रिय रहा ? यह सब हमारी सोच और कयास ही हैं । पर व्यक्तिगत तौर पर एक संवेदनशील लेखक के रूप में मैं अक्सर हिल जाता हूं जब कोई कलाकार आत्महत्या करता है हाल ही में प्रेक्षा की आत्महत्या से मुझे इसलिए दुख हुआ क्योंकि उसके साथ के कई संघर्षशील कलाकार आज भी मेरे संपर्क में हैं और भी काफी हताश थे। यद्यपि कई बच्चों का तो यह मानना था किस तरह का नकारात्मक एनवायरमेंट नहीं बनना चाहिए। बच्चे तो बच्चे हैं फर्क इतना है अत्यधिक सुख सुविधा और सफलता मैं अगर किसी भी तरह की नकारात्मक परिस्थिति सामने आ जाती है तो संवेदनशील कलाकार सबसे पहले आत्महत्या का रास्ता अख्तियार करता है। मध्य प्रदेश ड्रामा अकादमी के वर्तमान छात्र अक्षय ने अपना दर्द बयान करते हुए कहा- हमें पराजय और हार से डर जाना या घबराकर हमें प्रेक्षा जैसे कदम उठाना उचित नहीं लगता। अक्षय से मैं पूर्ण तरह सहमत हूं परंतु यह भी सत्य है के अक्सर बच्चों को हारने में प्रताड़ित करना या उसे ऐसा महसूस कर आना कि वह शर्मा जी गुप्ता जी आदि के बच्चों से पीछे हैं सही तरीका नहीं है। मुझसे जब अभिभावक यह पूछते थे कि तुम्हारे बच्चों के रिजल्ट क्या रहे? मैं अक्सर कहता था फेल भी हो जाएगा कोई बच्चा तो भी मैं मिठाई लेकर जाऊंगा और उसके लिए दुलार में मेरी कोई कमी नहीं होगी। क्योंकि मैं जानता हूं कि निर्माण फेल या पास होने से नहीं होता व्यक्तित्व का निर्माण होता है उसके व्यक्तिगत गुणों में सकारात्मक बदलाव से। और वही सकारात्मक चिंतन अगर बच्चों में डाल दिया जाता है तो फिर क्या कहने ना सुशांत आत्महत्या करता है और ना प्रेक्षा । ऐसा नहीं कि मैं स्वयं दूध का धुला हूं कई बार इस तरह के विचार मस्तिष्क में आते हैं परंतु जब यह विचार आता है की विकल्प यहीं नहीं है हमारे पास विकल्पों की संख्या कम नहीं है जीवन को साबित करने के लिए जीवन के प्रबंधन के लिए हजारों हजार विकल्प मिल जाएंगे और अगर वह विकल्प मिल जाते हैं फिजिकल कोई कमजोरी के कारण हम शरीर को छोड़ना पड़ता है तो इससे बेहतर और क्या होगा कि हम ईश्वर की सत्ता के अनुरूप काम करते इस दुनिया को अलविदा कहेंगे।
मेरे मित्र एक गंभीर अवसाद के समय मुझे खोजते हुए मुझ तक पहुंचे और मुझे हताश देखकर ढांढस बंधाया और कहा- रात के बाद सुबह होती है। और हां यह भी कि पंडित नौशाद अली जब जबलपुर में आए और उनके कार्यक्रम को मैंने सुना जब यह गीत पेश किया जा रहा था- "वो सुबह कभी तो आएगी...!" तो ऐसा लगा कि मित्र मेरे साथ गुनगुना रहा है। आत्महत्या के मुहाने से लौटना या लौटा कर लाना सच में बहुत बड़ी घटना होती है। कोविड-19 के दौर में सुना है 15 से अधिक प्रसिद्ध कलाकार और सैकड़ों साधारण कलाकारों ने अपनी जान गवाई है। मेरी समझ में तो एक मात्र कारण आता है और वह यह है कि वह मुख्य रूप से अत्यधिक संवेदनशील है और उनकी यह अत्यधिक संवेदनशीलता उन्हें शहर ही गुमराह कर देती है । 
छोटे शहरों की प्रतिभाएं जब चकाचौंध वाली माया नगरी में जाते हैं तो आप जानते हैं वास्तव में वह अकेले रहते हैं कहने को भीड़ रहती है उनके साथ और उनके साथ रहता है आभासी संसार जो दिखता तो है पर संवेदी कितना है इसका अंदाज कोई नहीं लगा पाता मित्रों माया नगरी कुछ ऐसी ही है। अब तक कई बार ऐसे मौके आए कि जब मुझे मुंबई से बुलावा आया हूं पर कोई ना कोई प्राकृतिक अथवा आकस्मिक परिस्थिति ने रोक दिया यही है नियति का खेल जो नियति सबके साथ खेलती है। कभी भी मुझे वहां पहुंचने का आत्मिक क्लेश नहीं रहा दुख अवश्य हुआ इसे छिपाने की कोई बात नहीं है। और मुझे मालूम है कि नियति जब चाहेगी तब मुझे वैसे काम मुहैया कराएगी अभी मेरी यहां जरूरत है जो भी होता है बेहतर के लिए होता है इसमें अत्यधिक संवेदी होने की आवश्यकता तो बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। मित्रों अक्सर हम देखते हैं कि बच्चे किसी स्पर्धा में हार जाते हैं तो रोने लगते हैं स्वभाविक है । बच्चों का रोना स्वभाविक है उनका कोमल मन बहुत जल्दी हताश हो जाता है दुखी हो जाता है। मैं अपने कला साधक बच्चों को यही बताता हूं जो तुम विजेता हो तो अगली जीत की तैयारी करो और जो आज की जीत है आज का यह है उसे मां नर्मदा को अर्पित कर दो। मैं इस बात को कभी नहीं सुनता और ना सुनना चाहता कि फला स्पर्धा में जजमेंट गलत हुआ अब तो बच्चे यह समझने भी लगे और भी अपनी जीत से अवगत अवश्य कराते हैं पर अत्यधिक उत्साह और अभिव्यक्ति में उत्तेजना नहीं व्यक्त करते। और जिन बच्चों का कोई रंग नहीं लगता वे बच्चे भी बहुत दुखी मन से नहीं आती नहीं निर्णायकों पर संवाद ही उठाते हैं। यानी पहला पाठ है पराजय को समझना और अगली विजय के लिए खुद को तैयार रखना। इसका बेहतर उदाहरण थिएटर से मैं समझ पाया। थिएटर में बहुत बड़ा कलाकार छोटी सी भूमिका में आ जाता है और बहुत छोटा सा कलाकार जो अभी-अभी अरुण पांडे जी अथवा संजय गर्ग जी के समूह में आता है उसे बड़ा रोल में जाता है। शायद यह प्रयोगवादी निर्देशक यह देखना चाहते हैं की मजबूती किसमें है। माया नगरी में ऐसा नहीं है क्योंकि वहां शुद्ध व्यवसाय है आपका चेहरा आपके संवाद आपकी आवाज किस भाव खरीदी जा रही है उसी स्तर पर आपको लाकर फिक्स कर दिया जाता है। कभी-कभी तो खेमे बाजी भी हावी होती है । 
हम सरकारी लोग भी ऐसे ही वातावरण को दिनभर भोंकते हैं डायरेक्ट इनडायरेक्ट प्रमोटी कैजुअल यह मूर्खता और से भरी शब्दावली महसूस होती है पर आप जानते हैं गालिब ने कहा है-
बाज़ीचा ए अतफाल है दुनियां मेरे आगे ..! इस फलसफे को मैं कभी भूलता नहीं भूलना भी नहीं चाहिए चाहे कितनी भी विषम परिस्थिति हो चाहे आप से बड़ा व्यक्ति आप से प्रतिस्पर्धा करने लगे तब भी आप पर्वत जैसे दृढ़ बने कितना भी चूहे पर्वत को बुनियाद से कुतरने की कोशिश करते रहें पर्वत को कोई असर होता है। यानी दृढ़ता प्रतिबद्धता यह कोई साहित्यिक शब्द मात्र नहीं है इनके अर्थों में प्रवेश कीजिए तो पता चल जाएगा वास्तव में दुनिया में बहुत सारे विकल्प मौजूद हैं और हम हमारी समझ और दृढ़ता के साथ हम अपनी मंजिले मकसूद तक पहुंच ही जाएंगे
सुशांत के ह्रदय में आध्यात्मिक चिंतन कितना था जो उसे मजबूती देता शायद उतना नहीं जितना होना चाहिए था। सुशांत की एक्टिंग देख कर मुझे उनके व्यक्तित्व में एक असरदार सुशांत व्यक्तित्व नजर आता था। कलाकारों को बहुत करीब से देखा है उनके प्रति बहुत अधिक संवेदनशील पर अगर कुबेर होता तो इन गन्धर्वों पर सारा खजाना लुटा देता क्योंकि मुंबई वाले कलाकारों से ज्यादा मेरे इस शहर के कलाकार अभावों में श्रजन करते चले आ रहे हैं और बरसो अपना जीवन होम करते आ रहे हैं बस एक जुनून है कला के माध्यम से दुनिया को जगाते रहना । 
कई तो फक्कड़ बाबा है फक्कड़ बाबा लोगों का नाम अभी जिक्र करना लाजमी नहीं है पर घटनाओं का जिक्र कर देता हूं ऐसे ऐसे कलाकार है जो ₹5 जेब में होने पर किसी भूखे गरीब या जरूरतमंद को दे देते हैं और खुद मुस्कुराते हुए घर चले आते हैं यह वही शहर है जहां कलाकार बनते हैं और महानगर मुंबई वह शहर है जहां कलाकार बिकते हैं।
वहां चमक गए तो स्टार वरना वही वर्षों तक खाक छानना इसके अलावा एक ऐसे ग्रुप का वहां पर साम्राज्य है जो सिर्फ और सिर्फ स्वयं की ओर देखता है । दूसरों के कामों को दोयम बताकर और अपना काम श्रेष्ठ साबित कर जो वास्तव में कभी-कभी होता भी है दूसरों के काम हो तो बाधित कर देते हैं। मुंबई की गलियां कलाकारों के लिए स्वर्ग कम नर्क से ज्यादा बदतर है। मुंबई से प्रोफेशनल लोगों के लिए एक स्वर्ग है और संवेदनशीलों के लिए स्वर्ग तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। वैसे भी कलाकार संवेदनशीलता के साथ ही जाते हैं वहाँ । 
लेकिन अगर वे प्रोफेशनल स्किल के साथ मजबूत व्यक्ति के रूप में जाते हैं जैसे अमिताभ !
मुंबई जैसी भ्रामक जगह पर जाने से पहले विकल्पों को तलाश लेना चाहिए और उसका सही समय पर उपयोग करें तो सफल हो जाता है। 
सुशांत सिंह की अभिनय क्षमता फिल्मों में बरसों से जमे हुए ( फूहड़ अभिनेताओं ) से जो अपने बड़बोले पन घमंड और यहां तक कि बाउंसरों के लिए भी प्रसिद्ध हैं से मजबूत और परिपक्व हो रहा है। रितेश देशमुख, विवेक ओबरॉय और कुछ और ऐसे नाम है जिन्हें इंडस्ट्री में जमना एक खास खेमे के प्रोड्यूसर और कलाकारों को बिल्कुल पसंद नहीं है। परंतु वे भी अत्यधिक संवेदनशीलता और भावुकता  से परे आज भी संघर्ष कर रहे हैं। अभिनेत्रियों की भी दशा लगभग ऐसी ही है। प्रोड्यूसर यह देखता है कि आपके अभिनय कितने पैसे उगेंगे ? यह स्थिति उन कलाकारों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन जाती है। जनता को क्या देखना चाहिए इसका सर्वेक्षण प्रोड्यूसर पास नहीं होता लेकिन जनता को क्या दिखाना फायदेमंद होगा यह वह बखूबी जानते हैं पैसा ही आधार आधार है बॉलीवुड का। इंडस्ट्री सबसे ज्यादा वही फोकस करती है। अब तो फिल्मी स्टार्स भी यह समझने लगे। 
गुरुदत्त को भी इसी संकट का सामना करना पड़ा उन दिनों के कलाकारों और अन्य दूसरे कलाकारों के बीच आपसी अंतराल बड़ा हुआ था। संगीतकारों की भी कमोबेश यही स्थिति थी। अब तो निर्माता निर्देशकों को साफ कह दिया जाता है कि आप अमुक व्यक्ति को प्रमोट कीजिए अमुक पर ध्यान देने की जरूरत नहीं। इस तरह है बॉलीवुड दो भागों में बांट दिया है और एक बात इनमें भी दो समूह सक्रिय हैं एक आयातित विचारधारा के पोषक और दूसरे राष्ट्रवादी।
राष्ट्रवादी कलाकारों को दोयम दर्जे का सिद्ध करने की जबरदस्त होड़ लगी हुई है और स्वयं को श्रेष्ठ बताने का जो मुहिम चल रहा है वह भी इन कलाकारों की कला का सही मूल्यांकन नहीं करने देता। खास तौर पर जितने भी कलाकार हिंदी पट्टी के हैं वे तो दो कारणों से प्रभावित है एक तो उनका हिंदी पट्टी से होना दूसरा अगर वह दुर्भाग्य से राष्ट्रवादी नजर आ गया तो फिर उसे यंत्रणा उसके काम पर रोक लगाने की उपहार सहित ही मिल जाती है। हो सकता है जितना मैंने जो लिखा हो वह गलत साबित हो यह मेरे लिए भी अच्छा है । कोई और भी कारण हो सकते हैं इस आत्महत्या के पीछे जो भी हो सुशांत का आत्महत्या करना दुखद तो है। एक संदेश अवश्य देना चाहूंगा गार्जियंस अपने बच्चों को केवल जीतना ही न सिखाएं ! हारना भी सिखाए और हादसे उभरना भी फिलहाल सुशांत सिंह को विनम्र श्रद्धांजलि और उनके परिजनों पर इस वज्रपात को सहने की शक्ति की ईश्वर से कामना करता हूं ॐ शांति शांति 

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