#भोलाराम_का_विमोचन(व्यंग्यकार गिरीश बिल्लौरे मुकुल
जबलपुर मध्य प्रदेश)
सम्मान-सम्मान का यह खेल इतना मस्त है कि इसे ओलंपिक में शामिल कर देना चाहिए। ओलंपिक न सही, तो एशियाई खेलों में। और अगर वह भी न हो, तो जिला-स्तरीय तमाशे में तो जरूर!
यह खेल जेब ढीली कराता है, आत्ममुग्धता को चाँद पर ले जाता है, और भीड से़ तालियां बजवाता है।
अर्थात यह खेल बहुत सारे शास्त्रों पर आधारित है। अर्थशास्त्र, छापस-शास्त्र, दिखास-शास्त्र, और बकास-शास्त्र का गजब का कॉकटेल।
हर शहर में यह खेल जोर-शोर से खेला जाता है। मेरा शहर कोई अपवाद नहीं—बल्कि इस खेल का प्रयागराज, मानसरोवर, येरुशलम मक्का-मदीना है।
वैचारिकता को ठेंगा दिखाते हुए रोज "सम्मान का ड्रामा" रचा जाता है।
खेल तो खेल है, खेलने के लिए ही बना है। तो इसे खेलना जरूरी है—बिल्कुल जरूरी!
आयोजक इस खेल का अर्थशास्त्र बखूबी समझते हैं। आप कवि हों, शायर हों, या साहित्य के तुर्रमखाँ—जब तक इस विमोचन की भट्टी से न गुजरें, तब तक आपका नामोनिशान नहीं।
खुशी की बात यह है कि आजकल तो पद्म सम्मानों के लिए कंसलटेंसी एजेंसियाँ खुल गई हैं। दिल्ली की एक रेडियो जॉकी और एक लेखक, जिनका नाम गिनीज बुक में चमकता है, इस धंधे में सर से पाँव तक डूबे हैं।
यूं तो ये धंधा बड़ा आराम का है, लेकिन जैसा राहत इंदौरी ने फरमाया:
हमसे पूछो कि ग़ज़ल मांगती है कितना लहू,
सब समझते हैं ये धंधा बड़े आराम का है।
पर क्या करें, कितना भी लहू से भीगो लें कोई हमें साहित्यकार मानता ही नहीं।
पर हमें अचानक एक दिन भोलाराम जी के टेलीफोन कॉल ने ब्रह्म ज्ञान दे दिया ! तो यह भोलाराम जी कौन है ?
वास्तव में भोलाराम परसाई जी वाले भोलाराम का पुनर्जन्म है । जो इस जन्म में कवि के तौर पर पैदा हुआ है।
कवि भोलाराम ने जिंदगी भर पुर्जों पर कविताएँ ठूँसीं और पहुंच गए परमज्ञानी जी के दरबार। "साहब, मेरी कविताएँ छपवानी हैं," भोलाराम ने गुहार लगाई।
परम ज्ञानी, जो ग्राहकों की टोह में बैठे थे, बोले, "कविता पढ़ने की क्या जरूरत? एक नजर में समझ गया। अरे, तुम तो मनोज मुंतशिर को पानी पिलाते हो! ये तो छपनी ही चाहिए।
परम ज्ञानी जी ने "प्रशंसा का ऐसा बम गिरा कि भोलाराम शहीद-ए-आजम हो गए। तीस दिन में किताब मुद्रणालय से बाहर।
लेकिन सवाल था—दुनिया को कैसे पता चले कि भोलाराम छप गए? परम ज्ञानी जी ने आँख मारी, "चिंता मत करो, फार्मूला मेरे पास है।
"उनका बैकग्राउंड फार्मूला था—सम्मान बाँटो, भीड़ बटोरो। रामलाल, श्यामलाल, लल्लू, जगदर, भुनगे-बगदर—हर कोई सम्मानित होगा। और हर सम्मानित शख्स अपने साथ बीवी, बच्चे, रिश्तेदार, और शायद गर्लफ्रेंड भी लाएगा। बस, इंस्टाग्राम लाइव के लिए भीड़ जुट गई।
विमोचन का तमाशा यानि आयोजन शुरू हुआ। मंच पर मालाएँ, शाल-श्रीफल, और यशगान के फलक।
मुख्य अतिथि त्रैलोक्य स्वामी से कम नज़र न आते थे।
कुछ अतिथि तो क्षीरसागर में विष्णु की तरह विराजमान लग रहे थे। आयोजन में शहर के नामी-गिरामी और "फुर्सत के रात-दिन" वाले लोग जुटे।
हर वक्ता अपने दिमाग के जखीरे को चटखारे ले-लेकर उवाच रहा था। माइक बार-बार खराब हो रहा था, और आयोजक- सह- मंच संचालक पहली लाइन से लेकर हाल के प्रवेश द्वार तक रेकी करते हुए नजर आ रहे थे । हर आमद पर आए हुए आगंतुक के नाम का उल्लेख करते हुए , अपने कार्यक्रम से जोड़ने वाले मंच संचालक उर्फ आयोजक उर्फ परम ज्ञानी की प्रतिभा को शहर का बच्चा-बच्चा जानता है। उनके व्यक्तित्व पर मेरे जैसे अकिंचन का कुछ कहना सूरज को एलईडी लाइट दिखाने के बराबर है।
परम ज्ञानी लीलाधर कृष्ण से कम नहीं हैं तभी तो, महीने में दो-चार साहित्यिक महाभारत हो जाया करते हैं शहर में..!
इस अप्रतिम दृश्य को देखकर भोलाराम को लगा, वे इंद्र सभा में गंधर्वों के बीच बैठे हैं।
मंच के सामने दर्शक दीर्घा में पीछे वाली पंक्ति में अपन जी और तुपन जी की कानाफूसी शुरू
हो गई थी।
अपन जी: (कान खोजते हुए) गजब आयोजन! कवि को पैसे वाला होना चाहिए है न?
तुपन जी: बिल्कुल! इसे छठी का पूजन कहां कीजिए ।
अपन जी: तुपन जी, बिल्कुल सही कहा आपने। अब तो हिंदी साहित्य का ये प्रचंड वेग कोई नहीं रोक सकता!
तुपन जी: प्रचंड? अरे, प्रलयंकारी कहो! हां एक बात कि तुम भी तो सम्मानित हो रहे हो?
अपन जी: (कलकतिया पान से रंगी खीस निपोरते बोले ) हाँ, भाई, दबाव था, वरना अपन अम्मान सम्मान के चक्कर में पड़ते नहीं।
तुपन जी: अरे, पिछले महीने भी तो तुझे किसी किताब की छटी पर शाल-श्रीफल मिला था?
अपन जी: हाँ, मेरा भी सम्मान हुआ था। सम्मान में मिले श्रीफल की चटनी बनवाई। पाइल्स के लिए मुफीद है, बब्बू भाई बता रहे थे।
तुपन जी: अरे, पाइल्स तो मुझे भी है! आजमाऊँगा।
तभी मंच से चीख: "संस्था ‘दो और दो पांच’ श्री तुपन जी को भी उनकी साहित्य साधना के लिए सम्मानित करती है! यह उनका संस्था की ओर से दिए जाने वाला लाइफटाइम सम्मान है । जोरदार तालियों से इनका सम्मान कीजिए। "
पूरे हॉल में तालियों की आवाज़ गूंजने लगीं।
तुपन जी भी फट्ट से मंच पर जा पहुँचे, यह अलग बात है कि कथित तौर पर उन्हें सम्मान की दरकार नहीं रहती। खचाखच्च फोटो हैंचे गए, स्वयंभू पत्रकार पर और आमंत्रित पत्रकार वीडियो जर्नलिस्ट ने मंच का घेराव करके फोटो वीडियो रिकॉर्ड किए। तुपन जी के सम्मान की कार्रवाई 5 मिनट के अंदर निपटा दी गई। लाइफटाइम अवॉर्ड के लिए इतना टाइम काफी है।
तुपन जी, लौटते वक्त कलगीदार मुर्गे की तरह दाएं बाएं बैठे दर्शकों के प्रति आभार प्रदर्शित करते गर्दन हिलाते आभार जताते, वापस सीधे अपन जी के पास लौट आए।
आज भोलाराम का साहित्यकार बन जाने का सपना भी पूरा होने वाला था परंतु उनके विमोचित होने के पहले मंच से लगभग बीस सम्मान आवंटित हो चुके थे ।
हॉल में भगदड़ मच गई। उद्घोषक चीख रहा था। सम्मान वितरण में "कछु मारे, कछु मर्दिसी" वाली स्थिति बन गई थी।
भीड़ सेल्फी ले रही थी, इंस्टाग्राम रील्स बना रही थी, और यूट्यूब पर लाइव बाइट्स चल रहे थे।
इस बीच उद्घोषक ने भोलाराम जी को इनवाइट कर लिया। मंच के मध्य में गणेश जी की तरह स्थापित होने के निर्देश का पालन करते हुए भोलाराम भावुक हो उठे। कभी उन्हें लगा, वे साहित्य जगत में स्थापित हो गए।
वे यह महसूस कर रहे थे गोया उनकी एक ओर दिनकर दूसरी ओर भवानी प्रसाद तिवारी जी खड़े दिखते, यह भी महसूस किया होगा उनने कि माखनलाल चतुर्वेदी , सुभद्रा दीदी बिल्कुल आसपास मौजूद हैं ।
कभी हॉल में मचे तमाशे देख कर उसे लगा कि वे ठगे गए हैं।
तभी पीछे से आवाज़ आई - "काय भोलू , कवि कब बन गए रे?
झल्ले की आवाज़ सुन भोलाराम पानदरीबा वाले भोलू बन गए ।
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लेकिन सच यही है साहित्यकार की प्राण प्रतिष्ठा का यह अजीबोगरीब खेल एकदम नया नहीं।
हर शहर में यह तमाशा होता रहता है।
जहां परम ज्ञानी जैसे लोग इसके सर्जनहार, और भोलाराम जैसे कवि इसके शिकार।
साहित्य के नाम पर यह "दूल्हा-दुल्हन आपके, बाकी सब हमारा" का धंधा है।
और हाँ, अगली बार विमोचन में वायरल रील्स का बजट भी जोड़ लीजिएगा।
(नोट: परसाई के शहर में व्यंग्य लिखना अपराध हो, तो यह अपराध बार-बार करूँगा!)
#डिस्क्लेमर: यह व्यंग्य है। किसी व्यक्ति, स्थान, या घटना से इसका कोई लेना-देना नहीं। समानता महज संयोग है।
#गिरीशबिल्लौरेमुकुल