4.4.22

शूद्रों के साथ वेदों में कोई दुर्व्यवहार नहीं किया..!

   *हमें उपनिवेश काल के किसी भी दस्तावेज पर ना तो भरोसा करना चाहिए ना ही उसे अब पुनः रेखांकित करने की आवश्यकता है।*
          ईसाई मिशनरी ने कहा था कि-" अगर ब्राह्मण ना होते तो हम पूरे हिंदुस्तान को कन्वर्ट कर लेते"
       उपनिवेश काल में हिंदुस्तान को क्रिस्चियन बनाने के लिए विंस्टन चर्चिल का वह वाक्य भी विस्मरण हो जाता है जिसमें उन्होंने कहा था कि-" भारत एक भौगोलिक स्थान है इसे देश ना कहा जाए। ठीक उसी तरह जैसे भूमध्य सागर।"
     उपरोक्त दोनों बातें एक दूसरे की पूरक है। और यह हम वर्तमान में देख भी रहे हैं। भरत एक ऐसा देश है जहां पर उसके विद्वान वर्ग को लांछित और अपमानित करने में कोई भी कोर कसर नहीं छोड़ता है। यह वर्ग है ब्राह्मणों का। मैंने अपनी कृति भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रवेश द्वार 16000 ईसा पूर्व ने स्पष्ट रूप से लिखा है कि-" वर्ण व्यवस्था तत्कालीन भारतीय व्यवसायिक व्यवस्था पर आधारित थी।' कृति के अध्ययन करने पर आप पाएंगे कि भारत में दलित शब्द कभी भी इस्तेमाल नहीं किया गया है। वर्ण व्यवस्था के तहत क्षात्र वर्ण वाले लोगों ने अपनी जैसे वर्ण वाले लोगों के बीच रोटी बेटी का रिश्ता रखा। वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत वह क्षत्रिय कहलाए। कालांतर में विदेशी यमन मुस्लिम आक्रांताओं एवं ब्रिटिश उपनिवेश काल में वर्ण व्यवस्था अचानक कब जाति व्यवस्था में इसकी पतासाजी करने पर पता चला कि जातियों को चिन्हित करने तथा समाज को वर्गीकृत करने में ब्रिटिश उपनिवेश काल का सर्वाधिक योगदान रहा है।
    वैश्य वर्ण बड़े व्यवसाय करता था चंद्रगुप्त मौर्य के कालखंड में उसे श्रेष्ठी या श्रेष्ठि वर्ण से संबोधित किया गया।
    बड़े व्यवसाय करने वाले का कार्य आंतरिक अर्थात अंतर्देशीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उत्पादों को भेजना और धन कमाना था। अर्थव्यवस्था में जनता पर बहुत अधिक भार नहीं हुआ करता था बल्कि वैश्य वर्ण पर राजसत्ता को राज्य के प्रबंधन के लिए धन की व्यवस्था करने का दायित्व दिया गया था।
छोटे व्यवसाय करने वाले वर्ण को छुद्र शब्द की संज्ञा दी गई। शूद्र शब्द उसी का पर्याय है। मैंने अपनी कृति में पांचवें वर्ण का उल्लेख किया है जो चांडाल वर्ण है। चांडाल वर्ण का काम शवों के निपटान का कार्य था कृति में आप भली प्रकार उस बिंदु का विश्लेषण देख सकते हैं।
    जाति व्यवस्था ना तो वैदिक काल में थी नाही विदेशी यात्रियों के भारत आगमन पर खास तौर पर चीनी यात्रियों के आगमन पर देखी गई।
  इसका आशय स्पष्ट है कि प्राचीन भारत ने जाति प्रथा एक व्यवस्था के अंतर्गत परिलक्षित होती है जिसे वर्ण व्यवस्था कहते हैं। अर्थात जैसे स्वर्ण आभूषणों का कार्य करने वाला व्यक्ति स्वर्णकार सोनी सर्राफ कहलाता है। मित्रों कश्मीर में लोहार वंश ने राज किया। यह तथ्य कल्हण की राजतरंगिणी नामक किताब में उल्लेखित है। अर्थात जाति बाध्यता नहीं है राजा को क्षत्रिय जाति का होना आवश्यक नहीं था। कल्याण स्वयं भी इन सब बातों पर ना तो भरोसा करते थे और ना ही इस पर उन्होंने प्रकाश ही डाला है। शक हूण जैसी विदेशी जातियां ने भारत में वैवाहिक संबंध स्थापित किए। अगर भारतीय जाति व्यवस्था प्राचीन इतिहास में जटिल होती तो ऐसा नहीं होता।
आइए अब हम चलते हैं ब्राह्मणों को अपमानित करने वाले आख्यानों नैरेटिवस पर।
    किसी भी संप्रदाय का लक्ष्य होता है कि वह अपने मंतव्य को स्थापित करते हुए संप्रदाय की जनसंख्या में वृद्धि करें। ऐसा ही हमेशा हुआ है। यवन, अपनी संस्कृति और सभ्यता को विस्तारित करने के उद्देश्य से भारत में आई थी। तदुपरांत अब्राह्मिक संप्रदायों ने अपना विस्तार करने का बीड़ा उठाया। और यह तब तक संभव ना था जब तक कि आप किसी वर्ग का ध्रुवीकरण करके उसे इनोसेंट पीड़ित प्रताड़ित साबित ना करें। ऐसा करने के बाद उसकी मानसिक स्थिति परिवर्तित होते ही अपने संप्रदाय में शामिल करने में बहुत आसानी होती है।
    नवबौद्ध भी यही सब कर रहे हैं। अब जब भारत में पिछले 100 वर्षों में यह स्थापित कर दिया गया है कि भारत जाति व्यवस्था से ग्रस्त है तथा यह साबित किया जा चुका है निकली जातियां बड़ी जातियों से पीड़ित रहे हैं ऐसी स्थिति में हिंदू धर्म को मानने वालों को आसानी से अपने संप्रदाय में शामिल किया जा सकता है। हां यह बात अवश्य है कि यह सब कुछ मध्यकाल और उसके बाद की स्थिति है।
    आप जानते ही होंगे बामसेफ एवं वामन मेश्राम तथा रावण जैसे लोग आज भी ब्राह्मणों के खिलाफ विष अमन करने में पीछे नहीं रहते।
ऐसे लोगों को स्पष्ट संदेश देना चाहूंगा की जाति व्यवस्था व्यक्ति के कार्यों पर आधारित थी जो कालांतर में जातीय संगठनों में परिवर्तित हो गई। मित्रों रामायण कालीन भारत में राम कथा में वर्णित शबरी के जूठे बेर खाना अथवा निषादराज को अपना मित्र बताना किस तत्व का प्रमाण है कि भारतीय व्यवस्था में जातियों के साथ किसी भी प्रकार के भेदभाव को स्थान नहीं था। मित्रों भगवान राम क्षत्रिय थे भगवान कृष्ण यादव थे हम उनको नमन करते हैं और उनके प्रति ईश्वर तुल्य आस्था रखते हैं उन्हें भगवान मानते हैं।
     वर्तमान समय में जिस तरह से जातीय डिस्क्रिमिनेशन कथित शेड्यूल्ड जातियों में देखा जाता है उतना अन्य कहीं नहीं। अब ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य एवं छुद्र के बीच वैवाहिक संबंध भी स्थापित हो रहे हैं। परंतु प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जहां भीड़ का महत्व है ध्रुवीकरण हो जाता है। निर्वाचन आयोग को चाहिए कि प्रेस एवं राजनीतिक दलों को ऐसी एडवाइजरी जारी करें अथवा ऐसे नियम स्थापित करें जो जातीय एवं सांप्रदायिक आधार पर प्रजातांत्रिक महापर्व में भाग लेने वाली लोगों को हतोत्साहित करें।
    धर्म केवल सनातन है शेष सभी संप्रदाय हैं संप्रदाय में धर्म के मौलिक सिद्धांतों का समावेश होता है। संप्रदाय देश काल परिस्थिति के अनुसार अपने सिद्धांतों को सुनिश्चित करते हैं। शैव वैष्णव शाक्त संप्रदायों को मानने वालों के लिए आदि गुरु शंकराचार्य ने द्वैत अद्वैत अद्वैताद्वैत को स्पष्ट रूप से समझाया है। परंतु हम फिर से वर्गीकृत हो रहे हैं सनातनी यों को चाहिए कि वह एकात्म भाव से सनातन को अंगीकार करें।
    ब्रिटिश कॉलोनी पीरियड में जिस तरह से वर्गीकरण किया गया सन 1800 और उसके उपरांत भारतीय सामाजिक व्यवस्था में विभिन्न हितकारी विवरणों को सम्मिलित कर दिया गया। जिससे सामाजिक समरसता के ढांचे में जातिवाद क्षेत्रवाद भाषावाद को बल मिला है। और यही नकारात्मक बिंदु भारत को विश्व गुरु बनने से रोकेंगे।
   *हमें उपनिवेश काल के किसी भी दस्तावेज पर ना तो भरोसा करना चाहिए ना ही उसे अब पुनः रेखांकित करने की आवश्यकता है।*
     हाल ही में एक सामाजिक सम्मेलन में इसी तरह का कुछ घटनाक्रम घटित हुआ जिसमें ब्रिटिश कॉल खंड के विवरण को रेखांकित करते हुए उस जाति के लोगों को दुखी करने की कोशिश की गई। जब हम अब मुगल एवं अंग्रेजों द्वारा स्थापित मंतव्य का खंडन कर चुके हैं तथा यथासंभव करते भी जा रहे हैं तब हमें उनके दस्तावेजों के हवाले से कुछ कहने की जरूरत ही नहीं है। हमें केवल राष्ट्र के प्रति सोचना है और वह भी शुद्ध भारतीय बनकर। अनर्गल वार्ता तथ्यहीन मंतव्य हमारी आत्मा साहस को कमजोर करते हैं। यही मेरी मनोकामना है कि हम अपने समूह में अपने समाज में अपने राष्ट्र में एकात्मता के भाव को प्रेरित करें ताकि हम भारत को विघटित करने वाली ताकतों से जुड़ सकें।
वेदों में छुद्र (शूद्र) वर्ण के अधिकार
   एक विवरण के अनुसार वेदों में यज्ञादि अधिकार प्राप्त थे ....


• परम्परा

वैदिक ग्रंथों में नहीं किया गया है शुद्रों के साथ भेदभाव




सचिन सिंह गौर

देश में दलित विमर्श करने वाले बुद्धिजीवियों द्वारा सनातन धर्म पर शुद्रों के साथ भेदभाव करने का आरोप लगाया जाता है। इसके लिए अक्सर श्रीराम द्वारा शम्बुक का वध किए जाने जैसी घटनाओं का उल्लेख किया जाता है। यदि हम शम्बुक की पूरी कथा और वेदादि शास्त्रों में शुद्रों के लिए दी गई व्यवस्थाओं को देखें तो यह कथा विश्वसनीय नहीं लगती।

शम्बूक वध का प्रसंग उत्तर रामायण में मिलता है जिसके अनुसार शम्बूक नाम के एक शूद्र के तपस्या करने के कारण अयोध्या में एक ब्राह्मण का पुत्र अकाल मृत्यु को प्राप्त होता है। तत्पश्चात वह ब्राह्मण श्रीरामचंद्र के दरबार में जाकर अपने पुत्र की अकाल मृत्यु की शिकायत करता है एवं आरोप लगाता है कि यह राजा का दुष्कृत्य है जिसके परिणामस्वरूप ऐसा हुआ। तब श्रीराम ब्राह्मणो और ऋषियों की एक सभा करते हैं जिसमें नारद मुनि कहते हैं अवश्य ही आपके राज्य में कोई शूद्र तप कर रहा है जिसके फलस्वरूप ऐसी घटनायें हो रही हैं। चूंकि त्रेता युग में शूद्र का तप करना पूर्णत: वर्जित है एवं हानिकारक था, इसलिए यह सुनते ही श्रीराम चंद्र अपने पुष्पक विमान पर सवार हो ऐसे शूद्र को ढूंढने निकल पड़ते हैं। दक्षिण दिशा में शैवल पर्वत के उत्तर भाग में एक सरोवर पर तपस्या करते हुए एक तपस्वी मिल गया जो पेड़ से उल्टा लटक कर तपस्या कर रहा था।

प्रसंग के अनुसार श्रीराम उस शूद्र के पास जाते हैं और पूछते हैं ‘तापस! जिस वस्तु के लिए तुम तपस्या में लगे हो, उसे मैं सुनना चाहता हूँ। इसके सिवा यह भी बताओ की तुम ब्राह्मण हो या अजेय क्षत्रिय? तीसरे वर्ण के वैश्य हो या शुद्र हो?’ कलेश रहित कर्म करने वाले भगवान् राम का यह वचन सुनकर नीचे मस्तक करके लटका हुआ वह तपस्वी बोला – हे श्री राम ! मैं झूठ नहीं बोलूँगा। देव लोक को पाने की इच्छा से ही तपस्या में लगा हूँ। मुझे शुद्र जानिए। मेरा नाम शम्बूक है। इतना सुनते ही श्रीराम अपनी तलवार से उसका वध कर देते हैं। यह प्रसंग वाल्मीकि रामायण में उत्तर कांड के 73-76 सर्ग में मिलता है।


इस प्रसंग को आधार बनाकर आज खूब राजनीति की जाती है, जबकि यह प्रसंग पूर्ण रूप से असत्य, काल्पनिक, प्रक्षिप्त है और बाद के काल में उत्तर रामायण में जोड़ा गया है। वैसे तो पूरी उत्तर रामायण ही संदिग्ध है, क्यूंकि महर्षि वाल्मीकि अपनी रामायण में केवल 6 काण्ड ही लिखे थे और युद्ध कांड में रावण वध के पश्चात श्रीराम जानकी और लक्ष्मण के अयोध्या वापिस आने पर रामायण समाप्त कर दी थी।
निषाद के साथ पढऩे वाले उससे जीवन भर मित्रता निभाने वाले, भील शबरी के जूठे बैर खाने वाले, वनवासियों को साथ लेकर उनका आत्मविश्वास बढ़ाकर रावण जैसे शक्तिशाली राजा का मान मर्दन करने वाले रघुनाथ ऐसा कार्य करें, यह असंभव है। इस प्रसंग को जोडऩे का कारण पूरी तरह राजनीतिक ही रहा होगा।

जहाँ तक शूद्रों के ऊपर किये जाने वाले अत्याचार करने और तपस्या न करने देने की बात है तो शास्त्रों में कहीं भी शूद्र को तपस्या करने, यज्ञ करने का निषेध नहीं किया गया है। सनातन धर्म के सर्वोच्च ग्रन्थ वेदों के आधार पर ये बात सर्वसिद्ध है। वेदों के नाम और सर्ग के अनुसार हमने यहाँ इस विषय को स्पष्ट करने का प्रयास किया है।

वेदों में शूद्रों के विषय में कई मन्त्र एवं श्लोक हैं जो समाज में शूद्रों के महत्व का वर्णन करते हैं। वेदों में शुद्र को अत्यंत परिश्रमी कहा गया है। तप शब्द का प्रयोग अनंत सामथ्र्य से जगत के सभी पदार्थों की रचना करने वाले ईश्वर के लिए वेद मंत्र में हुआ है।

महापुराण में कहा गया है कि त्रेता युग में केवल एक वेद था, यजुर्वेद। यजुर्वेद मुख्य रूप से यज्ञों का विधान है। यज्ञ आर्य संस्कृति में सबसे मत्वपूर्ण, फलदायी एवं पवित्र कर्म माना गया है। अग्नि पवित्र है और जहां यज्ञ होता है, वहां संपूर्ण वातावरण, पवित्र और देवमय बन जाता है। यज्ञवेदी में ‘स्वाहा’ कहकर देवताओं को भोजन परोसने से मनुष्य को दुख-दारिद्रय और कष्टों से छुटकारा मिलता है। यजुर्वेद में कई मन्त्र हैं जो शूद्र को यज्ञ तप करने का अधिकार देते हैं। जिनसे स्पष्ट है कि शूद्र को यज्ञ आर्यों का सबसे पवित्र कर्म करने का पूर्ण अधिकार था।
यजुर्वेद अध्याय 30 मन्त्र 5 में कहा गया है – तपसे शुद्रम् अर्थात् तप यानी कठोर कर्म करने वाले पुरुष का नाम शुद्र है।
     यजुर्वेद अध्याय 16 मन्त्र 27 कहता है – नमो निशादेभ्य अर्थात् – शिल्प-कारीगरी विद्या से युक्त जो परिश्रमी जन (निषाद यानी शुद्र) हैं उनको नमन है ।
    ऋग्वेद 10. 53. 5 में कहा गया है – पञ्च जना मम होत्रं जुषन्तां गोजाता उत ये यज्ञियास: अर्थात् पांचों वर्गों के मनुष्य यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र एवं अतिशूद्र यानी अवर्ण मेरे यज्ञ को करें। इसमें वर्ण व्यवस्था से बाहर के अतिशूद्रों का भी वर्णन है।
     वेदों में शूद्रों के लिये अधिक जानकारी के लिए क्लिक करें :
वैदिक ग्रंथों में नहीं किया गया है शुद्रों के साथ भेदभाव




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