वीर योद्घा विंग कमांडर अभिनंदन वर्थमान के साथ परिस्थिजन्य दुर्घटना के दुख के बीच आईएएफ की बालाटोक स्ट्राइक के बाद दुनिया भर से जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं वह उम्मीदों से कहीं ऊपर, उत्साहजनक हैं।
राजनीतिक दलों के सुरों में दुर्लभनीय एका है। मीडिया खासकर टीवी के एंकरों का कहना ही क्या..वे चंदबरदाई से भी चार हाथ चौबीस गज आगे हैं। होना भी चाहिए। इसके उलट कुछ बौद्धिक अपने चिरपरिचित विमर्श में चले गए हैं कि युद्ध से क्या होगा? कई इस खोजबीन में लगे हैं कि पुलवामा के पीछे कहीं मोदी का तो हाथ नहीं? ऐसे लोगों को अपनी जिग्यासा के शमन के लिए बीबीसी हिंदी में छपा दक्षिण एशिया मामलों की विशेषज्ञ क्रिस्टीन फेयर का नजरिया पढ़ लेना चाहिए।
दो और महत्वपूर्ण किरदारों पर अपनी नजर है..वे हैं उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती। उमर अब्दुल्ला की प्रतिक्रिया एक होनहार और होशियार राजनीतिग्य जैसी है जबकि महबूबा के लिए ऐसी है मानों स्ट्राइक बालटोक में नहीं उनके दिलपर हुई है।
इन सबके बीच हमें गर्व से भर देने का जो संदर्भ है वह है आईएएफ की सर्जिकल स्ट्राइक का एमपी यानी कि मध्यप्रदेश कनेक्शन.. ग्वालियर.. जबलपुर.. रीवा की फ्लाइंग लेफ्टिनेंट अवनी चतुर्वेदी..।
आज की बात यहीं से शुरू करते हैं.। अपना मध्यप्रदेश बिल्कुल देश के दिल में बसा है। मैं हमेशा से यह सोचता था कि जब सीमा में युद्ध छिड़ेगा तो अपना क्या योगदान होगा? लेकिन नहीं, जिस तरह शरीर के सभी अंग मनुष्य के पौरुष के पीछे होते हैं वैसे मातृभूमि का किरचा-किरचा समरांगन बन जाता है। ग्वालियर के खाते में यही गौरव आया।
बालाटोक में विप्लव मचाने वाले मिराज हमारे ग्वालियर के एयरबेस से उड़े। आपरेशन के लिए राजस्थान का बीकानेर एयरबेस तैयार था और ग्वालियर स्टैंडबाई.. लेकिन चकमा देने की दृष्टि से ग्वालियर से आपरेशन शुरू हुआ। दूसरे दिन जब यह रिपोर्ट पढ़ने को मिली तो यकीनन मध्यप्रदेश वासियों का भाल गर्वोन्नत हो गया।
इसके बाद जल्दी ही ये खबर आई कि आतंवादियों के अड्डों को खाक में मिला देने वाले बम जबलपुर की खमरिया फैक्ट्री में बने थे।
खमरिया फैक्ट्री यानी कि ओएफके जिसे अँग्रेजों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के समय स्थापित किया था। यहीं वो थाउजेंड पाउंडर बम बने थे। वैसे भी तोपके गोले क्लस्टर बम, टारपीडो, छोटी मिसाइलें यहीं बनती हैं। इनके खोल दूसरी आयुध निर्माणियों से बनकर आते हैं फिलिंग यहीं होती है।
यहां से मेरा भावनात्मक रिश्ता इसलिए भी है कि मेरा जन्म खमरिया की श्रमिक बस्ती में ठीक उन्हीं दिनों हुआ था जब भारत और चीन का युद्ध छिड़ा हुआ था। मेरे पिताजी यहीं काम करते थे जो बाद में एक बम बनाने की मशीन सुधारते हुए शहीद हुए थे। मेरे बड़े भाई जो कि छह महीने पहले इसी फैक्ट्री के फिलिंग सेक्शन में काम करते हुए रिटायर्ड हुए हैं जहां तोप के गोलों, बमों में एक्सप्लोसिव भरे जाते हैं।
ओएफके के फिलिंग सेक्शन्स में ही सबसे ज्यादा विस्फोट होते हैं, बमों में विस्फोटक भरते हुए। हर साल दो चार मौतें होती हैं, आठ दस अंग-भंग होते हैं, पर बिना यश और प्रचार की कामना किए ये भी अपन-अपने मोर्चों में वैसे ही डटे रहते हैं जैसे कि हमारे फौजी सरहद में, नेवी के सेलर समंदर में और हवाई लड़ाके आसमान में।
पहले तो यहां की खबरें भी छनकर बाहर नहीं आ पाती थीं। थैंक्स सोशल मीडिया कि उसने जश्न मनाने और खुशियां बाँटने का मौका दिया।
सन् 65 की भारत पाक जंग में खमरिया के बमों ने ही अभेद्य कहे जाने वाले अमेरिकी पैटनटैंकों को तोड़ा था..। मेरे पिता जी उसकी स्मृति में एक फाग गाया करते थे..दुनिया मां ऊँचा नाम करै खमरिया के गोला..। बालाटोक स्ट्राइक के बाद वो फाग याद आ गया, उसे सोशल मीडिया में जैसे ही शेयर किया ओएफके से जुड़े श्रमिकों, अफसरों और यादों की जुगाली करते बैठे रिटायर्ड कर्मचारियों की भावनाएं प्रतिक्रिया स्वरूप गर्वाश्रु बनकर झरने लगी।
ओएफके में चालीस साल नौकरी करने के बाद अब चेन्नई में रह रहे जीआरसी नायर की अँग्रेजी में व्यक्त प्रतिक्रियाएं पढिए-
-Till date the wars and other operations of Indian Armed forces were carried out by the products of Ord.Fys. American Patton Tanks were destroyed by our ammns. But our contributions were never appreciated by the media or by the politicians. Now we have the social media and we ourselves should high light this.
एक दूसरी प्रतिक्रिया
-My first reaction was to appreciate Air Force and the Ordnance Factory Employees.Now I am proud of my colleagues of F6 Section and the Khamarians for their role in protecting our country. We were there in all the wars but never got the appreciation from anybody.Hence forth we all to join this move to high light our role.
एक और भावुक अभिव्यक्ति
Hame garve hai apni nokri per, jai ho 🇮🇳👳indian ammn ku, jai ofk, jai ma durga jee ki
भावविह्वल कर देने वाली ऐसी न जाने कितनी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं।
ओएफके जैसी कितनी आयुध निर्माणियों के श्रमिकों के लिए यह गर्व का क्षण होगा। किसी ने गोले का खोल बनाने के लिए टंगस्टन-जस्ता को धमन भट्ठियों में पिघलाया होगा, तो किसी टर्नर ने खराद पर चढ़ाकर शार्प किया होगा। यही समवेत भावनाएं ही राष्ट्र की आत्मा है..और जब ऐसे पराक्रम के क्षण आते हैं तो लगता है कि जीना सफल हो गया।
मैं उन बौद्धिकों की बात नहीं करता जो हमारे जवानों पर थूकने, पत्थर बरसाने वालों के भी मानवाधिकार का परचम थामें इंडिया इंटरनेशनल में प्रेसकांफ्रेंस संबोधित करते हैं और सुप्रीमकोर्ट में याचिकाओं का बोझ बढ़ाते हैं।
बहरहाल ग्वालियर और जबलपुर के लिए गौरव का ये क्षण तो है ही अपने विंध्यवासियों के लिए भी कम नहीं। सोशलमीडिया पर रीवा की बेटी अवनि चतुर्वेदी की फोटो तैर रही है- कि आतंकियों का काम तमाम करने वाली टुकड़ी की कमान उसके हाथों में थी। इसे आप भावनाओं का महज प्रकटीकरण भी कह सकते हैं।
बालाटोक स्ट्राइक में कौन थे..कौन नहीं यह तो उस आपरेशन के सुप्रीम कमांडर ही जानते हैं..। कभी उचित समय पर हो सकता है कि इन वीर जाँबाजों के परिचय को देश के साथ साझा करें। लेकिन अवनि जैसी बेटियों के पराक्रमी क्षमता के स्मरण का अवसर तो बनता ही है।
अवनि के पिता दिनकर प्रसाद चतुर्वेदी रीवा में जल संसाधन विभाग में इंजीनियर हैं..उन्हें कल से ही बेटी के हिस्से की ढेर सारी शुभकामनाएं मिल रही हैं।
रीवा में ही पली-पढ़ी-बढ़ी अवनी देश की एक मात्र महिला फाइटर पायलट हैं जो बिना कोपायलट के मिराज और सुखोई उड़ा सकती हैं, दुश्मन के इलाके को विध्वंस कर सकती हैं। वे न्यूक्लियर वारहेड से लैश फाइटर्स प्लेन उड़ाने और अजांम तक पहुचाने में प्रवीण हैं।
सोशलमीडिया में कई और पायलट बेटियों को लेकर जब खबरें वायरल हुईं तो बीबीसी हिंदी ने अपनी रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया कि भारत में एकमात्र महिला फाइटर पायलेट हैं जो सुखोई-मिराज से आपरेशनल उड़ान भर सकती हैं वो हैं अवनि चतुर्वेदी।
खेल और युद्ध की स्प्रिट एक जैसे होती है। दर्शक निरपेक्ष या तटस्थ नहीं रह पाता। उसका अंतरमन किसी खिलाड़ी की परकाया में प्रवेश कर जाता है..लगभग ऐसा ही कुछ युद्ध के समय होता है। आज हर देशवासी की आत्मा किसी न किसी योद्धा की काया में बैठी है। भावनाओं का यह ज्वार जरूरी है। हर महान राष्ट्र की बुनियाद तलवार की नोक पर रखी जाती है और उसका स्वाभिमान तबतक ही जिंदा रह सकता है जबतक की उसकी तलवार में नित-नई धार चढ़े। मुरचाई तलवारें पुरातत्व संपदा बनकर रह जाती हैं जिनपर इतिहासकार जुगाली करते हैं और फोकटिए बौद्धिकों के युद्ध के विरुद्घ विमर्श।
वैश्विक प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि बालाटोक का विध्वंस कितना जरूरी था और यह सिलसिला तब तक चलते रहना चाहिए जबतक कि मानवता के दुश्मन आतंक का कारोबार बंद नहीं कर देते। देश का जन बच्चा भी यही चाहता है। सरकारें आती जाती रहें पर स्वाभिमान का स्तर इसी तरह अपने चरम पर बने रहना चाहिए..।
आलेख :- जयराम शुक्ल