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रविवार, सितंबर 30, 2018

सोशल फ़ोर्स क्या है ...?



किसी ने मुझसे सवाल किया कि क्या सामाजिक बदलाव की भूमिका में न्यायपालिका व्यवस्थापिका कार्यपालिका प्रेस की भूमिका होती है क्या यदि हाँ तो कैसी ?
श्रीमान मुझे बताएं कि आप कैसे बदलाव की बात कर रहे हैं ?
मेरे प्रतिप्रश्न को अपनी ओर आया प्रहार समझ कर भाई साहब जरा सा तनावग्रस्त दिखे । मित्र को यह समझाना पड़ा कि भाई बदलाव बदलाव दो तरह के होते हैं.. सृजनात्मक  एवं विध्वंसक . मित्र जरा शीतल हुए.. उनने सृजनात्मक बदलाव को चुना .
जो कुछ बात हुई  उसे अपनी शैली में आप सबसे बाँट रहा हूँ.
सकारात्मक बदलाव  में प्रमुख भूमिका होती है सामाजिक-बल अर्थात Social Force की. जिसका प्रवाह एक खास तरह का वर्ग करता है...  जिसमें एक या दो अथवा अधिकतम पांच फीसदी लोग संलंग होते हैं. यही समूह निर्माणकर्ता  है सोशल फ़ोर्स का . जिसमें विचारक चिंतक आध्यात्मिक विश्लेषक कलाकार साहित्यकार चित्रकार किस्सा बाज़ी करने वाले  लोग शामिल  हैं . इनके सतत सृजन से वैचारिक बदलाव आता है. जो प्रसारित होकर सामान्य दिनचर्या वाले लोगों की सोच में बदलाव लातें हैं.  वैचारिक बदलाव से ही एक प्रभावी  सामाजिक-बलबनता है जिसे हम सोशल फोर्स कह सकते हैं । 
 प्रजातांत्रिक राष्ट्र भारत के संदर्भ में देखा जाए तो  सामाजिक बल अर्थात सोशल फोर्स समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की सफल-कोशिश की है । ऐसे सकारात्मक बदलाव के लिए ज़िम्मेदार हज़ारों उदाहरण मिलते हैं. कुछ  उदाहरण हैं सभी तीर्थंकर, बुद्ध, चाणक्य,  संत-कबीरनानक मीरा तुलसी और आज़ादी के लिए क्रांतिकारी तथा अहिंसावादी दौनों प्रकार के लोग, इनके प्रयास ही समाज में बदलाव सकारात्मक बदलाव लाते हैं.
मेरा मानना है कि हर सम्राट या राजा प्रमुखरूप से केवल क्षेत्ररक्षण का कार्य करना . उसके    उसकी जिम्मेदारी लोगों के लिए कुएं बावड़ी बनवाना उन्हें निर्भीक जीवन जीने की गारंटी देना साथ ही साथ न्याय देने की गारंटी देना राजा का धर्म है यही धर्म राष्ट्रधर्म है जिसका पालन करना राजा के पद पर  बने रहने की लिए प्राथमिक शर्त भी थी.
 भारतीय इतिहास को देखें तो राजा के कुल-गुरु की भूमिका राजा के लिए नियमों को बनाने में  प्रमुख हुआ करती थी. अब प्रजातांत्रिक स्थितियां इतर हैं क्योंकि अब संचार, डाटा, आदि प्रासंगिक हैं. फिर भी बौद्धिक समूह का उपयोग सत्ता द्वारा किया जाता है.
समाज के कारण ही विकृति आ रही हैं सत्य है  वास्तव में अब समाज में सोशल फोर्स निर्माण  होने की अनुकूलता नहीं है.  बल्कि उसे नकारात्मक दिशा में ले जाने के कई उदाहरण हैं. कुछेक बुद्धिजीवी तो लिजलिजे नक्सली आन्दोलन के समर्थन में आ खड़े हुए हैं. साथ ही कुछ व्यवस्था को ब्लैकमेल करने तक को उतारू रहते हैं. बेहतरीन उदाहरण है गुजरात का पटेल आंदोलन जो समाज को विपरीत दिशा में ले जा रहा है ऐसे और भी कई आंदोलन है जिनके जरिए सामाजिक कुंठा बहुत तेजी से उभरी है. कई बार सियासी व्यक्तियों के कहे  एक वाक्य का इतना सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव होता है जिसका अंदाजा कोई नहीं लगा सकता . जैसे सुभाष बाबू ने कह दिया था- तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा..!या गांधी बाबा बोले-करो या मरो !ये वाक्य सोशल-फ़ोर्स पैदा करने के लिए कहे गये थे.. असरदार थे. असरदार वाक्य तो माई के लालजैसा शब्दांश भी बना किसी ने ताली बजाई तो कोई एकजुट हुआ. [यह केवल उदाहरण के रूप में देखा जाए ]  
आज समाज सिन्मेंट्स में बंटा हुआ है. समाज के वर्गीकृत हिस्सों की अपनी अपनी आकांक्षाएं हैं कोई भी राष्ट्र हर वर्गीकृत हिस्से को संतुष्ट नहीं कर सकता . सबके अपने अपने हिस्से के सच के बारे में  सोचा सोचता है.  
नकारात्मक सामाजिक फोर्स से सभी भयभीत भी है . पर भय उस कबूतर से सीखा हुआ है जिसे बिल्ली नजर आते ही आँख बंद करने का अभ्यास है.
आप रोज चैनल्स पर बहस देखते हैं बहस करने वाले बदलाव पसंद नहीं करते विशेष अपने हिस्से का यश बटोरने चैनल्स पर जाते हैं टीवी चैनल्स भी अपने हिस्से की पापुलैरिटी हासिल करते हैं समाज में कोई बदलाव नहीं आता ना ही टीवी चैनल से निकल कर आई रिकमंडेशन का कोई महत्व ही है । अगर हम आज के दौर का सबसे मजबूत स्तंभ प्रेस को मानते हैं तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जिसमें न्यू मीडिया भी शामिल है संयमित हुआ जा रहा है इसका प्रभाव इसलिए भी अधिक है क्योंकि दृश्य और श्रव्य का सम मिश्रित प्रभाव बेहद उच्च स्तर का होता है और मस्तिष्क पर वह सारे तर्क जो बहुधा कुतर्क ही होते हैं हावी हो जाते हैं और समाज में जो सकारात्मक बदलाव का आकांक्षी वातावरण बनाना चाहते हैं वे उसे अनदेखा कर देते हैं अनदेखा करना उनकी मजबूरी है उन्हें मालूम है कि नकार खाने में तूती की आवाज कब सुनी जा सकती है । तो मैंने अपने वक्तव्य में अब तक यह कहा कि समाज में किस तरह का बदलाव अगर आप चाहते हैं सकारात्मक बदलाव के लिए क्रिएटिविटी को बढ़ावा दीजिए नकारात्मक बदलाव के लिए कोई जगह शेष ना रहे मस्तिष्क में कुछ ऐसे प्रयास कीजिए पर क्या यह प्रयास व्यवस्थापिका कार्यपालिका न्यायपालिका और प्रेस कर सकता है ? नहीं कदापि नहीं यह चारों स्तंभ समाज में सकारात्मक बदलाव के महत्वपूर्ण घटक हो सकते हैं लेकिन पृथक पृथक रूप से देखा जाए तो बदलाव लाने का दायित्व इन का नहीं है बदलाव लाने के लिए सोशल फोर्स की जरूरत है सोशल फोर्स इस बात को रेखांकित करता है कि अमुक व्यवस्था ठीक है अथवा नहीं ।
बेटियों की सुरक्षा और जन्म की सुरक्षा के लिए सामाजिक वातावरण अनुकूल हुआ  तो समाज में एक बदलाव सा दिखाई देने लगा अब तो जबलपुर जैसे छोटे कस्बा नुमाँ  शहर में  भी अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में पदक आने लगे हैं यह बदलाव ऐसे हुआ कि पिछले 20 वर्षों में सामाजिक चिंतन में खासा बदलाव आया कि केवल डाक्टर इंजीनियर नहीं अन्य विषयों पर भी ध्यान देना चाहिए. अभिभावकों ने बच्चों को प्रोत्साहित किया. पहले इस बात की कल्पना की ही नहीं जाती थी परंतु अब ऐसा लगता है कि एक वातावरण बन गया है वातावरण निर्माण में सोशल फोर्स अति महत्वपूर्ण है । इसकी सुरक्षा संरक्षा व्यवस्थापन और इसके लोक व्यापीकरण की जिम्मेदारी व्यवस्थापिका कार्यपालिका न्यायपालिका और मीडिया की है । आप समझ रहे हैं ना स्पष्ट है किए चारों स्तंभ सोशल चेंजिंग के लिए एक टूल है ना की बदलाव ला सकते ।

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