‘इतिहास’ बडा
चमत्कारी विषय हैं. इसको खोजते
खोजते हमारा सामना ऐसे स्थिति से होता हैं, की हम आश्चर्य में पड जाते हैं. पहले हम
स्वयं से पूछते हैं, यह कैसे संभव हैं..? डेढ़ हजार वर्ष पहले इतना उन्नत और अत्याधुनिक
ज्ञान हम भारतीयों के पास था,
इस
पर विश्वास ही नहीं होता..!
प्रशांत पोळ |
गुजरात के सोमनाथ मंदिर
में आकर कुछ ऐसी ही स्थिति होती हैं. वैसे भी सोमनाथ मंदिर का इतिहास बड़ा ही
विलक्षण और गौरवशाली रहा हैं. १२ ज्योतिर्लिंगों में से पहला ज्योतिर्लिंग हैं
सोमनाथ..! एक वैभवशाली, सुंदर शिवलिंग..!! इतना
समृध्द की उत्तर-पश्चिम से आने वाले प्रत्येक आक्रांता की पहली नजर सोमनाथ पर जाती
थी. अनेकों बार सोमनाथ मंदिर पर हमले हुए. उसे लूटा गया. सोना, चांदी, हिरा, माणिक, मोती
आदि गाड़ियाँ भर-भर कर आक्रांता ले गए. इतनी संपत्ति लुटने के बाद भी हर बार सोमनाथ
का शिवालय उसी वैभव के साथ खड़ा रहता था.
लेकिन केवल इस वैभव के
कारण ही सोमनाथ का महत्व नहीं हैं. सोमनाथ का मंदिर भारत के पश्चिम समुद्र तट पर
हैं. विशाल अरब सागर रोज भगवान सोमनाथ के चरण पखारता हैं. और गत हजारों वर्षों के
ज्ञात इतिहास में इस अरब सागर ने कभी भी अपनी मर्यादा नहीं लांघी हैं. न जाने
कितने आंधी, तूफ़ान आये, चक्रवात आये लेकिन किसी भी आंधी, तूफ़ान, चक्रवात
से मंदिर की कोई हानि नहीं हुई हैं.
इस मंदिर के प्रांगण में
एक स्तंभ (खंबा) हैं. यह ‘बाणस्तंभ’ नाम से जाना जाता हैं. यह स्तंभ कब से वहां
पर हैं बता पाना कठिन हैं. लगभग छठी शताब्दी से इस बाणस्तंभ का इतिहास में नाम आता
हैं. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं की बाणस्तंभ का निर्माण छठवे शतक में हुआ हैं. उस के
सैकड़ों वर्ष पहले इसका निर्माण हुआ होगा. यह एक दिशादर्शक स्तंभ हैं, जिस पर समुद्र की ओर इंगित करता एक बाण हैं.
इस बाणस्तंभ पर लिखा हैं –
‘आसमुद्रांत
दक्षिण धृव पर्यंत
अबाधित ज्योतिरमार्ग..’
इसका अर्थ यह हुआ – ‘इस बिंदु से दक्षिण धृव तक सीधी रेषा में एक
भी अवरोध या बाधा नहीं हैं.’
अर्थात
‘इस समूची दूरी में जमीन का
एक भी टुकड़ा नहीं हैं’.
जब मैंने पहली बार इस
स्तंभ को देखा और यह शिलालेख पढ़ा,
तो
मेरे रोंगटे खड़े हो गए. यह ज्ञान इतने वर्षों पहले हम भारतीयों को था..? कैसे संभव हैं..? और यदि यह सच हैं, तो कितने समृध्दशाली ज्ञान की वैश्विक धरोहर
हम संजोये हैं..!
संस्कृत में लिखे हुए इस
पंक्ति के अर्थ में अनेक गूढ़ अर्थ समाहित हैं. इस पंक्ति का सरल अर्थ यह हैं की ‘सोमनाथ मंदिर के उस बिंदु से लेकर दक्षिण धृव
तक (अर्थात अंटार्टिका तक), एक सीधी रेखा खिंची जाए तो
बीच में एक भी भूखंड नहीं आता हैं’. क्या यह सच हैं..? आज
के इस तंत्रविज्ञान के युग में यह ढूँढना संभव तो हैं, लेकिन उतना आसान नहीं.
गूगल मैप में ढूंढने के
बाद भूखंड नहीं दिखता हैं, लेकिन वह बड़ा भूखंड. छोटे, छोटे भूखंडों को देखने के लिए मैप को ‘एनलार्ज’ या
‘ज़ूम’ करते हुए आगे जाना पड़ता हैं. वैसे तो यह बड़ा
ही ‘बोरिंग’ सा काम हैं. लेकिन धीरज रख कर धीरे-धीरे
देखते गए तो रास्ते में एक भी भूखंड (अर्थात 10 किलोमीटर X
10 किलोमीटर
से बड़ा भूखंड. उससे छोटा पकड में नहीं आता हैं) नहीं आता हैं. अर्थात हम मान कर
चले की उस संस्कृत श्लोक में सत्यता हैं.
किन्तु फिर भी मूल प्रश्न
वैसा ही रहता हैं. अगर मान कर भी चलते हैं की सन ६०० में इस बाण स्तंभ का निर्माण हुआ
था, तो भी उस जमाने में पृथ्वी
को दक्षिणी धृव हैं, यह ज्ञान हमारे पुरखों के
पास कहांसे आया..? अच्छा, दक्षिण धृव ज्ञात था यह मान भी लिया तो भी
सोमनाथ मंदिर से दक्षिण धृव तक सीधी रेषा में एक भी भूखंड नहीं आता हैं, यह ‘मैपिंग’ किसने किया..? कैसे
किया..? सब कुछ अद्भुत..!!
इसका अर्थ यह हैं की ‘बाण स्तंभ’ के
निर्माण काल में भारतीयों को पृथ्वी गोल हैं, इसका
ज्ञान था. इतना ही नहीं, पृथ्वी को दक्षिण धृव हैं
(अर्थात उत्तर धृव भी हैं) यह भी ज्ञान था. यह कैसे संभव हुआ..? इसके लिए पृथ्वी का ‘एरिअल व्यू’ लेने
का कोई साधन उपलब्ध था..? अथवा पृथ्वी का विकसित
नक्शा बना था..?
नक़्शे बनाने का एक शास्त्र
होता हैं. अंग्रेजी में इसे ‘कार्टोग्राफी’ (यह मूलतः फ्रेंच शब्द हैं.) कहते हैं. यह
प्राचीन शास्त्र हैं. इसा से पहले छह से आठ हजार वर्ष पूर्व की गुफाओं में आकाश के
ग्रह तारों के नक़्शे मिले थे. परन्तु पृथ्वी का पहला नक्शा किसने बनाया इस पर एकमत
नहीं हैं. हमारे भारतीय ज्ञान का कोई सबूत न मिलने के कारण यह सम्मान ‘एनेक्झिमेंडर’ इस
ग्रीक वैज्ञानिक को दिया जाता हैं. इनका कालखंड इसा पूर्व ६११ से ५४६ वर्ष था.
किन्तु इन्होने बनाया हुआ नक्शा अत्यंत प्राथमिक अवस्था में था. उस कालखंड में
जहां जहां मनुष्यों की बसाहट का ज्ञान था, बस
वही हिस्सा नक़्शे में दिखाया गया हैं. इस लिए उस नक़्शे में उत्तर और दक्षिण धृव
दिखने का कोई कारण ही नहीं था.
आज की दुनिया के वास्तविक
रूप के करीब जाने वाला नक्शा ‘हेनरिक्स
मार्टेलस’ ने साधारणतः सन १४९० के
आसपास तैयार किया था. ऐसा माना जाता हैं, की
कोलंबस ने इसी नक़्शे के आधार पर अपना समुद्री सफर तय किया था.
‘पृथ्वी गोल हैं’ इस प्रकार का विचार यूरोप के कुछ वैज्ञानिकों
ने व्यक्त किया था. ‘एनेक्सिमेंडर’ इसा पूर्व ६०० वर्ष, पृथ्वी को सिलेंडर के रूप में माना था. ‘एरिस्टोटल’ (इसा पूर्व ३८४ – इसा
पूर्व ३२२) ने भी पृथ्वी को गोल माना था.
लेकिन भारत में यह ज्ञान
बहुत प्राचीन समय से था, जिसके प्रमाण भी मिलते
हैं. इसी ज्ञान के आधार पर आगे चलकर आर्यभट्ट ने सन ५०० के आस पास इस गोल पृथ्वी
का व्यास ४,९६७ योजन हैं (अर्थात नए
मापदंडोंके अनुसार ३९,९६८ किलोमीटर हैं) यह भी
दृढतापूर्वक बताया. आज की अत्याधुनिक तकनीकी की सहायता से पृथ्वी का व्यास ४०,०७५ किलोमीटर माना गया हैं. इसका अर्थ यह हुआ
की आर्यभट्ट के आकलन में मात्र ०.२६% का अंतर आ रहा हैं, जो नाममात्र हैं..! लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले
आर्यभट्ट के पास यह ज्ञान कहां से आया..?
सन २००८ में जर्मनी के
विख्यात इतिहासविद जोसेफ श्वार्ट्सबर्ग ने यह साबित कर दिया की इसा पूर्व दो-ढाई
हजार वर्ष, भारत में नकाशा शास्त्र
अत्यंत विकसित था. नगर रचना के नक्शे उस समय उपलब्ध तो थे ही, परन्तु नौकायन के लिए आवश्यक नक़्शे भी उपलब्ध
थे.
भारत में नौकायन शास्त्र
प्राचीन काल से विकसित था. संपूर्ण दक्षिण आशिया में जिस प्रकार से हिन्दू
संस्कृति के चिन्ह पग पग पर दिखते हैं, उससे
यह ज्ञात होता हैं की भारत के जहाज पूर्व दिशा में जावा, सुमात्रा, यवद्वीप
को पार कर के जापान तक प्रवास कर के आते थे. सन १९५५ में गुजरात के ‘लोथल’ में
ढाई हजार वर्ष पूर्व के अवशेष मिले हैं. इसमें भारत के प्रगत नौकायन के अनेक
प्रमाण मिलते हैं.
सोमनाथ मंदिर के निर्माण
काल में दक्षिण धृव तक दिशादर्शन,
उस
समय के भारतियों को था यह निश्चित हैं. लेकिन सबसे महत्वपूर्व प्रश्न सामने आता
हैं की दक्षिण धृव तक सीधी रेखा में समुद्र में कोई अवरोध नहीं हैं, ऐसा बाद में खोज निकाला, या दक्षिण धृव से भारत के पश्चिम तट पर, बिना अवरोध के सीधी रेखा जहां मिलती हैं, वहां पहला ज्योतिर्लिंग स्थापित किया..?
उस बाण स्तंभ पर लिखी गयी उन पंक्तियों में,
(‘आसमुद्रांत
दक्षिण धृव पर्यंत, अबाधित ज्योतिरमार्ग..’)
जिसका उल्लेख किया गया हैं, वह ‘ज्योतिरमार्ग’ क्या है..?
यह आज भी प्रश्न ही हैं..!
- प्रशांत
पोळ