काल के कपाल पे, प्रश्न
कुछ उछाल के
बोध तुम करा रहे,
नित नए कमाल के ...!!
चेतना के पास हो,
ऐसा लग रहा कहाँ ?
कोई जल रहा यहाँ कोई
जल रहा वहाँ ?
हाथ गुमशुदा हुए,
दिन लदे मशाल के ..!!
लिखे हैं ग्रन्थ
आपने, आग जो उगल रहे
ग्रंथियों में
आपकी, नागनाथ पल रहे..!
“नर्तन नित अग्नि” का,
चेतना सम्हाल लें !!
रक्त बीज हूँ मुझे शूल आके मत चुभा
हरेक बूँद में मुझे ताज़ा ताज़ा मुझको पा
प्राण ही जो चाहिए तो प्रेम से निकाल ले !!
नर्तकी है आग देख मस्त होक चल रही
कल तलक जो आग मेरे सीने में थी पल !
एक भी हो अगर, चिंगारी तू निकाल दे !!
धर्म क्या है मर्म का, मर्म क्या है धर्म का -
ज्ञान जो नहीं तो तू , दुशाला ओढ़ शर्म का !
मत बना सबब इन्हें - रोजिया बवाल के !!
नर्तकी है आग देख मस्त होक चल रही
कल तलक जो आग मेरे सीने में थी पल !
एक भी हो अगर, चिंगारी तू निकाल दे !!
धर्म क्या है मर्म का, मर्म क्या है धर्म का -
ज्ञान जो नहीं तो तू , दुशाला ओढ़ शर्म का !
मत बना सबब इन्हें - रोजिया बवाल के !!