23.3.16

“विश्व के विराट होने का बोध होना ज़रूरी है ...!”


                        एक आध्यात्मिक सन्दर्भ में दूसरों के लिए जीना और खुद के लिए जीना दो शिखर है .  इन दोनों शिखरों के बीच एक गहरी खाई है. एक शिखर से दूसरे शिखर के बीच कोई पुल सरीखा एक भी रास्ता नहीं है . खुद के लिए जीते जीते आपको उड़कर दूसरों के लिए जीने वाले शिखर पर जाना पड़ता है.
परन्तु सबको उड़ने की ताकत और पंख  भौतिक रूप से न कभी मिले हैं न मिलेंगे . तो फिर विकल्प क्या है हम कैसे आध्यात्मिक पथ के पथचारी हो सकते है...?
सोचो आप जीने की कलाओं से परिपूर्ण हैं . आपके पास शब्द हैं विचार हैं, तर्क हैं परन्तु संवेदनाएं मृतप्राय: हैं . अर्थात आप सामष्ठिक कल्याण के लिए अभी तैयार नहीं .
आपमें उड़ान भरने की क्षमता कहाँ . कि आप बहुजन हिताय सोचें !.. आप जैसे ही अपने में संकुचित होंगें तुरंत आप में से आत्मशक्ति का क्षरण होना शुरू हो जाता है. इस क्षरण को ढांकने आप एक कल्ट ओढ़ लेंगें - कि आप ये हैं आप वो हैं . अक्सर हमने सुना है – अमुक जी इस शीर्ष पद पर हैं तमुक जी उस शीर्ष पद पर हैं. और दौनों यानी ये अमुक जी और तमुक जी अपने लग्गू-भग्गूओं को विश्व समझ लेते हैं . इनमें से एक श्रीमान हैं – श्रीमन “क” अब नाम न पूछना आप तो जानते ही हैं कि नाम में या रक्खा है ..! तो श्रीमन “क” किसी को सत्य का बोध कराते तो कभी स्वामित्व का, और कभी पितृत्व का पर हमेशा स्वयं में ये बोध रखते कि समक्ष में आए व्यक्ति में  “लघुता” है . मेरी दृष्टी में श्रीमन ने विराट का दर्शन कभी नहीं किया वरना वे आत्माभिमुख न होते . इतनी घुमावदार बात से बेहतर बात ये है कि मैं कुछ शब्दों में संक्षेप में कह ही दूँ तो सुनिए दो टूक “अगर आप जब जब खुद को आलमाइटी समझने लगो तो विराट के दर्शन अवश्य करो” समस्या ये है कि विराट दर्शन कैसे हों ?

न यशोदा हैं आप न आपने किसी कृष्ण को अपना पुत्र बना रखा है. सोचता हूँ कि क्या सुझाव दूं ....... ताकि तुमको विराट दर्शन हो ? ....... मेरे पास एक प्रयोग है जो मैं अक्सर करता हूँ..... जी हाँ खुद को लघु कर लेता हूँ ......... फिर सब कुछ  विराट हो जाता है ........ और पंख के साथ परवाज़ भी  हासिल हो जाती मुझे उड़ के आध्यात्मिक शिखर के लिए उड़ लेता हूँ .. सुना लघुता धारण करते ही  विराट दर्शन होते हैं ......... इससे बेहतर तरीका और क्या होगा ?   

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