साभार : समालोचना ब्लॉग |
कहते
हैं खाए बिना ज़िंदा रह सकता हूँ पर लिखे बिना नहीं . मानव की आदिम प्रवृत्ति है –“सिगमेंट-शिप”
जिससे वो बंधा रहना चाहता है . जहां उसे आत्म सुरक्षा का आभास बना रहता है .मानव
जन्मजात पशु है . वो गुर्राता है, डराता है, डरता भी है, इस बीच उसे पावर चाहिए ......... पावर के
लिए सबसे पहले अपनों को अधीन करना चाहता है करता भी है . फिर अपने अधिकारों का
अधिरोपण शेष समूह पर करता है . केंद्र में सबके वही होता है जो सत्ता सियासती
तरीके अख्तियार कर संचालित करता है . सत्ता को संचालित करने जो ज़रूरी है वो है
संसाधन ....... अर्थात अधिकाँश भाग शीर्ष का . मैन-पावर, धन, भूमि, यानी नक़्शे के
भीतर स्थित सब कुछ सत्ता में . पर कालान्तर में प्रजातांत्रिक व्यवस्थाएं प्रभावी
हुईं और राजशाही सामंताशाही ने प्रस्थान
किया. और साथ ही साथ शुरू होता है आदिम
कबीलियाई प्रवृत्ति को उकसाने का खेल . कोई भी व्यक्ति अथवा समूह सत्ता से अधिक दिन दूर नहीं रह पाता जो सत्ता का
सुख भोग चुका है अथवा आकांक्षी है . उसके डी एन ए में राज करने की प्रवृत्ति ज़िंदा
जो होती है .
समुदाय का समर्थन पाने वो सारे हुनर अपनाता है
........ उसमें एक है ......... “वर्गीकरण करना” जाति, धर्म, रंग, आदि आदि के आधार
पर ........ फिर उनकी न दुखने वाली रगों
को दुखने वाली रग साबित कर देने का प्रयोग ठीक वैसे ही करता है जैसे कुछ अभिभावक
अपने बच्चे को अपने वश में करने पूछते हैं – बेटा, पेट दुःख रहा है ...... यहाँ ,
न यहाँ ...... अरे हाँ लो फूंक मारता हूँ ........ ठीक हो जाएगा. बस फिर बज्जू
चलेंगे टॉफी लायेंगे ...... बच्चा बहल जाता है .
लोग समुदाय को
वर्गीकृत कर उनको ध्रुवीकृत करते हैं फिर उसे प्रोवोग कर खुद के लिए रास्ता बनाते हैं .
वो रास्ता सत्ताभिमुख होता है . शायद बेजा न लगे तो सच में कहूं – “वर्ग संघर्ष
: एक संक्रामक बीमारी है ?” जिसे बड़ी चतुराई से वायरल किया जा रहा है