डा राम मनोहर लोहिया जी ने कहा था- "ज़िंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करतीं" अगर लोहिया ने सही कहा है तो हमें अपने ज़िंदा होने पर संदेह है. निर्भया यानी ज्योति सिंह के जीने मरने से किसी को क्या फर्क पडेगा. पड़े भी क्यों भारत में जो जब ज़रूरी तौर पर होना चाहिए वो तब हो ही कैसे सकता है . जब सब जानते हैं कि निर्भया यानी ज्योति के बलिदान के बाद टनों से मोमबत्तियां पिघला तो दीं आम जनता ने... सुनो निर्भया की माँ....! और हाँ पिता तुम भी सुन लो...!! हमने भी अगुआई की थी ... उस दिन मोमबत्ती जला कर ये अलग बात है उसी पिघले मोम पर आप सवाल सुलगा रहे हो ..!
क्या रखा है इस सबमें जाओ जब संभव होगा तब हम बदलेंगे ..... क़ानून अभी हमको फुरसत नहीं हमको विरोध करना है ... ताकत दिखानी है तब तक आप इंतज़ार करो ..
ऐसा इस लिए कहा जा रहा है क्योंकि शोकमग्न हूँ रो रहा हूँ .. देश उस हकीम के सामने है जो पर्ची पर दवा लिखने के लिए कलम तलाश रहा है . कितने असहिष्णु हैं वे लोग जो सहिष्णुता के लिए दोहरे मानदंड रखते हैं . पूरे विश्व को समझ आ गया है . यह भी समझ चुका है देश कितना भुल्लकड़ है . जो डा. लोहिया जी के शब्द भुला बैठा मुझे तो संदेह है कि हम ज़िंदा हैं भी कि नहीं . बार बार साँसों से पूछने को जी चाहता है कि- तीन साल तक क्यों नहीं हम भारतीय केवल एक ही बात समझाने में कामयाब नहीं हुए कि जो बलात्कारी है वो सर्वदा वयस्क ही है . हो सकता था कि जड़मतियाँ सुजान हो जातीं ..?
हम भी कमजोर साबित हुए ... यद्यपि सब सोच रहे थे कि निर्भया के बाद और निर्भया न होंगी इस निर्भया को भी न्याय मिलेगा पर हमारे दिवा-स्वप्न थे .. अब टनों पिघली मोम पर एक सवाल सुलग रहा है ... दोष किसका है ......... शायद ज्योति यानी निर्भया का ही है जो उस बस में जा बैठी .
अलविदा बेटी अलविदा अब हम खुद ठगे गए हैं तेरे लिए कहाँ से लाएं न्याय ?