17.12.15

“क्या सच कमजोरों को दुनियाँ में जीने हक़ है भी कि नहीं..!”


  आज एक बार फिर मेरी नज़र में एक मूर्ख सरकारी अधिकारी के बयान से अपना आलेख शुरू करूंगा जिसने एक बार कहा था-“कमजोर को स्थाईत्व का हक़ कदापि नहीं ! ”
उस नामुराद असहिष्णु अफसर का यह कथन हम जैसे लोगों के लिए असहिष्णु हो सकता हैं किन्तु ज्ञान का हर विस्तार उसे संपुष्ट यानी कन्फर्म करता है  अर्थ-शास्त्र राजनीति-शास्त्र, कायिक-विज्ञान या कहें हर जगह कमजोर के स्थायित्व के अंत की निकटता का विस्तार से उल्लेख है . इस  पुष्टि  के बावजूद इस विषय पर लिखने की जोखिम इस लिए भी उठाया जा रहा है क्योंकि यह सिद्धांत मानवीय सन्दर्भों में यह विषय सर्वथा अग्राह्य होना चाहिए पर समाज में इस बात को इस तरह घुट्टी में पिलाया गया है कि-"कमजोर को अनदेखा करो..!"
यह विचार इतना परिपक्व हो चुका है कि सामाजिक ढाँचे में रच बस सा गया है . और फिर यहीं से आरम्भ होती है असमानता की यात्रा “कमजोर यानी शीघ्र समाप्त होने वाला” जब ये विचार और विस्तार पाता है तो बेशक सामाजिक संरचना इसे आत्म-सात कर लेती है . अरब देशों में नारी के अधिकारों का ज़िक्र करें तो बायोलोजिकल कारणों से पुरुषोचित साम्य न होने के कारण उसे अलग बंदिशों से जूझना  पड़ता है तो मनु-स्मृति अपाहिजों को संगत में पंगत तक में बैठाए जाने की अनुमति नहीं देता . पुरुष-नारी, सबल-दुर्बल, वरिष्ठ-कनिष्ठ, धनाड्य-अकिंचन, ज्ञानी-अज्ञानी, बुद्धिहीन-बुद्धिमान जैसी स्थितियों में जब जीवन के अधिकार अतिक्रमित होते हैं तब लगता है अगर आपमें कोई कमी है जो समाज की बहुसंख्यक आबादी में अपेक्षाकृत अधिक है .... तो नि:संदेह आपके अधिकारों में कटौतियां लादी जा सकतीं हैं . फिर वह मानवाधिकार को अतिक्रमित क्यों न करे सामाजिक पुष्टिकरण प्राप्त होना कठिन नहीं .
किन्नरों के लिए सामाजिक सोच तो इतनी विपरीत है कि उनको अत्यधिक उपेक्षा का शिकार होना होता है ये सब जानते हैं .
भारत जैसे देश में विधवा को सामाजिक-संस्कारों से दूर रखा जाना  दूसरा अहम् सवाल है अन्य धर्मों में भी अब आवाजें उठने लगीं हैं कि दबाव न हो अब कुछ बदलाव हो पर उस आवाज़ को कब सुना जावेगा ये सब उस वर्ग की क्षमता के विकास पर निर्भर करता है शायद ? उधर अपाहिजों को संवेदनाएं अवश्य हासिल हैं किन्तु समानता देने में हिचकिचाना सामाजिक दस्तूर है . ये भारतीय सामाजिक स्थिति नहीं वरन सम्पूर्ण विश्व में यही दृश्य आप सहज देख सकते हैं . भारत के सन्दर्भों में सरकारी कानूनी कारणों से सोच में कुछ हद तक बदलाव आया है खासकर महिलाओं एवं बच्चों की स्थिति में पर निर्भया काण्ड जैसी स्थितियां अचानक संकेत दे देतीं हैं कि - "हम अभी आदिम जंगली सभ्यता से मुक्त नहीं हुए .  कभी ओमप्रकाश बाल्मीकी की किताब "जूठन" याद आती है तो सिहरन हो ही जाती है .   आप   खुद को सबल समझने वाले पुरुषों की नज़रें देखिये तो आप पाएंगे - वे नारी के सौन्दर्य का दर्शन करते समय कितनी हिंसक एवं लालची हो जातीं हैं . अगर आप अचानक किसी असामान्य वस्त्र पहनी लड़की या महिला को हिंसक एवं लोभी नज़रों से  देखने वाले से सवाल करें - "भाई, इन देवी में आपको माँ, बहन अथवा बेटी की छवि कहीं नज़र आई ?" - विश्वास कीजिये ज़वाब मिलेगा - "मेरी बेटी ऐसी नहीं मेरी माँ का पहनावा वैसा है , मेरी बहन तो ऐसी है आदि आदि .." यानी कुल मिला कर नारीदेह पर कपड़े वैसे हों जो कथित रूप सबल होने के दम्भी पुरुष उत्तेजित अथवा लोभी न हों . सार यह कि औरत वो पहने जो पुरुष चाहे . नारी के स्तन देख कर हमें अपनी माँ याद क्यों नहीं पातीं जिस से झरे अमृत ने जीवन दिया ...?
क्यों हैं  हमारी नज़र एक आक्रमणकारी की नज़र शायद हम एक ऐसे आचरण को ओढ़कर बैठे हैं जिसे सिर्फ "कमज़ोर" की तलाश है ..!
           कमजोर को तलाशिये ज़रूर तलाशिये पर उसे सक्षम बनाने के लिए वरना यह खाई बेशक बेहद गहरी होती चली जावेगी फिर उभरेंगें ऐसे चित्र जो भयावह होंगें जिसे आप न देख पाएंगे .. 
अब सोच में बदलाव का अब समय है जीने और अधिकारों में साम्य की ज़रुरत को विकसित हो रही सभ्यता का दुर्भाग्य ही कहा जावेगा. उस मूर्ख अफसर आभारी होना ही है जिसने “कमजोर को स्थाईत्व का हक़ कदापि नहीं ! ” देने वाले विचार से रूबरू कराया वरना ये संक्षिप्त चिंतन संभव न था .

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