28.3.15

खुला खत : विषधर मित्र के नाम



 प्रिय अभिन्न मित्र विषधर जी 
                        मधुर-स्मृतियाँ 
    प्रिय तुमने जबसे मेरी आस्तीन छोड़ी तबसे मुझे अकेलापन खाए जा रहा है । तुम क्या जानो तुम्हारे बिना मुझे ये अकेला पन कितना सालता है । हर कोई ऐरा-गैरा केंचुआ भी डरा देता है।भैये.....साफ-साफ सुन लो- "दुनियाँ में तुम से बड़े वाले हैं खुले आम घूम रहें हैं तुम्हारा तो विष वमन का एक अनुशासन है इनका....?" 
            जिनका कोई अनुशासन है ही नहीं ,यार शहर में गाँव में गली में कूचों में जितना भी विष फैला है , धर्म-स्थल पे , कार्य स्थल पे , और-तो-और सीमा पार से ये बड़े वाले लगातार विष उगलतें हैं....मित्र मैं इसी लिए केवल तुमसे संबंध बनाए रखना चाहता हूँ ताकि मेरे शरीर में प्रतिरक्षक-तत्व उत्पन्न  विकसित हो सके. जीवन भर तुम्हारे साथ रह कर कम से कम मुझे इन सपोलों को प्रतिकारात्मक फुंकारने का अभ्यास तो हों ही गया है।भाई मुझे छोड़ के कहीं बाहर मत जाना । तुम्हें मेरे अलावा कोई नहीं बचा सकता मेरी आस्तीनों में मैनें कईयों को महफूज़ रखा है। तुम मेरी आस्तीन छोड़ के अब कहीं न जाना भाई.... ।
            देखो न आज़ कल तुम्हारे विष के महत्व को बहु राष्ट्रीय कम्पनीयां महत्व दे रहीं हैं.वे  तुम्हारे विष को डालर में बदलने के लिए लोग तैयार खड़े हैं जी । सुना है तुम्हारे विष की बडी कीमत है । तुम्हारी खाल भी उतार लेंगें ये लोग , देखो न हथियार लिए लोग तुम्हारी हत्या करने घूम हैं । नाग राज़ जी अब तो समझ जाओ । मैं और तुम मिल कर एक क्रांति सूत्र पात करेंगें । मेरी आस्तीन छोड़ के मत जाओ मेरे भाई।
            मुझे गिरीश कहतें हैं कदाचित शिव का पर्याय है जो गले में आभूषण की तरह तुमको गले में सजाये रहते हैं हम तो बस तुमको आस्तीन में बसा लेना चाहतें हैं. ताकि वक्त ज़रूरत अपनी उपलब्धियों के वास्ते पक्के-वालेमित्रों के सीनों पर लोटने तुमको भेज सकूं . ये पता नहीं किस किस को सीने पे लोटने की अनुमति दे रहे हैं आज़कल ?
       तुम जानते हो न कि अब अपनी आस्तीन कटवाने वाले शोले फिल्म के ठाकुर साब ज़िंदा नहीं हैं और न ही गब्बर ...... इन दौनों से मैं प्रभावित भी नहीं हूँ साथ ही दुनियाँ में कोई भी ऐसा जन्मा नहीं कि वो सामने से आकर आस्तीन काटे......... अलबत्ता पीठ में छुरा अवश्य भौंकने वाले सर्वत्र हैं ..... अपनी पीठ जंगली भैंसे की पीठ से भी मज़बूत है ..... मंहगाई ने हमारी खुल के कुटाई की है ................ कुटते- पिटते हम बेहद मज़बूत हो गए हैं । अब देखो न भैया सौ रुपए के सौदे सुलफ में हमको तीस रूपल्ली का माल हासिल हो पाता है ................. टैक्स, करप्शन, डण्डीबाजी, में सत्तर का मटेरियल गुम जाता है । ससुरा पेट्रोल पंप जाओ तो आधा  लीटर तक की डण्डीबाजी सहज ही हो जाती है ......... बचा साढ़े चार लीटर पेट्रोल उस पर टेक्स, मिलावट , यानी दुपहिये को बीमार कर देने वाली व्यवस्था तय है । इसे देखेगा भी कौन पंप के मालिक आम आदमी तो होते नहीं यानी पूरा हिसाब लगाओ तो पक्के में घाटा हमको ही है । उस पर हमारे मुंह से किसी बगावत की कोई आवाज़ नहीं निकाल पाती भाई... हमारी “न्यूसेंस-वैल्यू” है भी कहाँ ? न हम गुंडे न मवाली, न नेता, न छात्र नेता, उस पर तुम्हारी तरह के बिना रीढ़ वाला होने का आरोप हम पर ही है .............. हमारा चिंतन क्रिकेट की हार जीत , सियासी बकवास, फिल्मी गासिप, तक सीमित है । भाई तुम होते तो आत्मबल होता, शक्ति होती, फुफकारने का नालेज होता ........
            प्रिय विषधर, अब बताओ तुम्हारे बिना मेरा रहना कितना मुश्किल है.  कई दिनों से कुछ दो-पाया विषधर मुझे हड़काए रहे  हैं मारे डर के कांप रहा हूं. अकेला जो हूं ..... हम तुम मिलकर शक्ति का भय दिखायेंगे . तुम्हारा विष ओर मेरा दिमाग मिल कर निपट लेंगें दुनियां से इसी लिये तो दोस्त तुमसे अनुरोध कर रहा हूं दोस्त ज़ल्द खत मिलते ही चले आओ ......वरना मुझे तुमको वापस लाने के सारे तरीके मालूम हैं.           
 

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