9.11.14

तू देख की क्या रंग है तेरा मेरे आगे..!!

 
गो हाथ को जुम्बिश नहीं हाथों में तो दम है
रहने दो अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे…!

                       बात यूं तो एहसास करने की है. लिखना भी नहीं चाहता पर क्या करूं लेखक जो ठहरा लिखे बिना काम भी तो नहीं चलता.कब तक छिपाए बैठूंगा अपना दर्द सीने में जो मेरा मित्र है . सोचता हूं कि आत्महिंसा कितनी ज़ायज़ है ? 
उत्तर मिलता है- मात्रा में पूछोगे तो कहूंगा कि लेशमात्र भी नहीं अवधि में ? तो निमिष मात्र भी नहीं....कदापि नहीं..!
तो क्या लड़ जाऊं ..?
न इसकी ज़रूरत ही नहीं है.. !
तो क्या करूं.. 
बस खुद से बातें करो खुद को प्रेम से समझाओ.. और जिसने तुम पर अनाधिकृत दबाव डाला है उसे एहसास करा दो कि - भाई, अब सीमाएं पार होती नज़र आ रहीं हैं.. मेरे खिलाफ़ होते अपने आचरण में बदलाव लाओ. अत्यधिक सहनशीलता दिखाने की ज़रूरत नहीं. क्यों कि यही है "आत्म-हिंसा..!"
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                 मित्रो, एक मित्र के सार्वजनिक आचरण से आघातित हो मैने स्वयं से सलाह ली. फ़िर वही किया . क्योंकि खुद पर हो रही हिंसा का प्रतिहिंसक हो ज़वाब देना गलत है सो बेहतर है कि आत्महिंसा के मूलकारण की ओर  खिलाफ़ क़दम ताल की जावे पूरी दृढ़ता से.. किया भी यही मैने . 
          फलस्वरूप मित्र ने मुझे  फ़ेसबुक पर अनफैंड कर लिया. उसका निर्णय मुझे अच्छा लगा. चूंकि मैं हिंसक नहीं हूं अतएव मैने अपनी ओर से सहज समझाइश से इतर कुछ भी नहीं किया. 
                साथ ही  मैं उन रिश्तों को ढोना भी नहीं चाहता जो सिरे से अप्रिय हों. पर व्यवसायिक मज़बूरियां हों कि उनको जीवंत रखा जावे. इन मज़बूरियों के सामने घुटने टेक होना आत्महिंसा है.    
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               मुझे अच्छी तरह याद है.. कुछ लोग मेरी शिकायतें लेकर ओहदेदारों तक जा पहुंचे. सबके सब जब एक्सपोज़ हुए तो मैने उनसे पूछा भी. पर उनके झूठ बोलते चेहरों को माफ़ करना ही मैने उचित समझा क्योंकि जब मैं उनमें से कुछेक से पूछ रहा था तो चचा ग़ालिब बोले :- 
मत पूछ की क्या हाल है मेरा तेरे पीछे?
तू देख की क्या रंग है तेरा मेरे आगे
 . मै जानता हूं कि दुनिया का असली चेहरा यही है. इससे इतर कुछ भी नहीं और फ़िर दुनियां मेरे लिये क्या है इस बारे में चचा ग़ालिब मेरे जन्म के पहले ही लिख चुके हैं :- 
बाजीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनियाँ मेरे आगे
होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे..!! 
           मित्रो ये फ़साना है मेरा न हमारा हमारे इर्दगिर्द बारहा ये फ़साना मुसलसल ज़ारी है ईमां और कुफ़्र के बीच के सवाल पर कुछ न कहो शांत रहे मन जो कहे वो करो  चचा ग़ालिब की मानो यक़ीनन खूब सही कहा है उनने कि सदा ईमान को मित्र बनाए रखो 
इमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
क'अबा मेरे पीछे है क़लीसा मेरे आगे  
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 अब रात का तीन बज़ चुका है सोना भी ज़रूरी है... चलो सोता हूं किसी की नींद उड़ा के.. पर अब आत्महिंसा न होने दूंगा.. मिसफ़िट हूं आप कहां फ़िट करेंगे इस वाक़्ये को आप जाने ..... अब तो बस चचा का ये शेर गुनगुनाके सो जाऊंगा
(भले वो मेरे बारे में खूज़ खबर ले )
   नफ़रत का गुमाँ गुज़रे है मैं रश्क़ से गुज़रा
  क्यूँ कर कहूँ लो नाम न उसका मेरे आगे .

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