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रविवार, जून 15, 2014

“भारत में शिक्षा : एक चिंतन "



विश्व  के सापेक्ष हमारा अक्षर ज्ञान 
 कमतर है ऐसा कथन हमारी सामाजिक व्यवस्था के  माथे पर लगा सवाल है जिसका हल तलाशना न केवल अब ज़रूरी है वरन समग्र विकास के लिये आवश्यक है कि  शिक्षा को अब अक्षर ग्यान से ऊपर उठाना ही होगा .
“भारत में शिक्षा” को केंद्रीय विषय बना कर अगर आप विचार करें तो पाएंगे कि भारत में शिक्षा एक अज़ीबोगरीब स्थिति या कहूं कि आकार ले चुकी है. जहां लोग अपने बच्चों के लिये शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता वाले पायदान पर रख रहें हैं वहीं दूसरी ओर शिक्षा के लिये उन लोगों परिवारों की कमी नहीं जो आज़ भी इस तरह के मिथक से बाहर नहीं आ पाए हैं जिसमें कहा है-“पढ़ै लिखै कछु न होय : हल जोते कुटिया भर होय ” ऐसी कुठिया भर होय की कल्पना उन दिनों की है जब कि  किसान के पास विकल्पों की कमी थी . हाथ में केवल हल-बैल थे, पारिवारिक विरासत वाली भूमियां थीं, आकाश  से बरसात की उम्मीदें थीं. गांव था जहां शिक्षा का मंदिर न था, शिक्षा की गारंटी न देती थी सरकार, संचार संसाधन न थे, अब सब कुछ है तो   क्यों स्कूल न भेजने वाली इस जनोक्ति जिसमें कहा है - ल जोते कुटिया भर होय को जन मानस  बाहर का रास्ता नहीं दिखाता . 
 वास्तव में भारतीय मानस अपनी विचारधारा न बदलने की आदत से मज़बूर है. उसे पूर्वज़ों का सिखाया सदा अच्छा लगा है .. परंतु परिवर्तित होते समय के साथ ग्रामीण भारत को अपनी सोच बदली है.. उसे मालूम कराना होगा कि अन्न की चिंता उसे कम से कम शिक्षा स्वास्थ्य के संदर्भों में नहीं करनी चाहिये.  भारत एक ऐसा देश बन चुका है जो खाने की गारंटी दे रहा है अपने सारे नागरिकों कों.    तो आम नागरिक को चाहिये कि शिक्षा जिसका अधिकार है उसे हासिल हो . कोई भी बच्चा स्कूल न जाने वाला न रहे. सड़क पर भीख न मांगी जावे. बूट पालिश न करें बच्चे.. फ़िर कोई विदेशी फ़िल्मकार "स्लम डाग " कहकर भारतीय बच्चों का अपमान न करे . 
स्रोत : विकी पीडिया 
स्रोत : विकी पीडिया 


केंद्र और राज्यों की सरकारें जिस ज़द्दोज़हद में हैं वो है शिक्षा के अधिकार को ठीक तरीके से लागू कराना . अब तो भारत सरकार ने निराश्रित यानी माता पिता विहीन बच्चों के लिये "फ़ास्टर केयर " नाम से एक ऐसी कारगर योजना राज्य सरकारों के ज़रिये लागू करने की कोशिश कर दी है जिससे माता-पिता विहीन बच्चों को प्रतिमाह रु. 750/- उनके पालकों को दिये जावेगें. इस की राशि अब दुगने से ज़्यादा हो जाने की उम्मीद है. फ़िर राज्य सरकारें भी अपने अपने वित्तीय प्रबंधन से धन मुहैया करा रहीं हैं. तो फ़िर सवाल उठता है कि आम नागरिक इससे बेखबर हो क्यों शिक्षा के महत्व को समझ नहीं पा रहे हैं. गहरी पड़ताल करने पर पता चलता है कि  सामाजिक पारिवारिक प्राथमिकताएं शिक्षा को पीछे ढकेलतीं हैं. उसमें कहीं न कहीं मान्यताएं भी शामिल हैं.  विकी पीडिया पर प्रकाशित NFHS 2007 के आंकड़े यद्यपि पुराने हैं पर उनका ज़िक्र इस कारण ज़रूरी है ताकि यह समझा जा सके कि अब स्कूल के खिलाफ सोच का अंत शुरू हो रहा है. वर्त्तमान में स्कूल के प्रति सकारात्मक  समझ में इज़ाफ़ा हुआ है.  

            
                                        ताज़ा  स्थिति देखिये 

http://iipsenvis.nic.in से साभार
लिंक "भारत में साक्षरता दर: 1951-2011"

  भारत में शिक्षा के विकास के लिये ग्राम स्तर तक किये जा रहे प्रयासों को अनदेखा करना भी गलत है. देश की आंगनवाड़ियां अब फ़ीडर यूनिट के मानिंद कार्य करने लगीं हैं. प्रमाण स्वरूप  आदिवासी क्षेत्र की एक आंगनवाड़ी का दृश्य देखा जा सकता है =>  https://www.facebook.com/photo.php?v=651301521612296&l=5268434772482404739
(Post by Girish  Mukul )
अब अगर देश के सम्पूर्ण एवम सर्वांगीण विकास की बात करनी है तो हमें इन बिंदुओं पर काम, करना ही होगा

  1. सामाजिक एवम पारिवारिक प्राथमिकता के क्रम में शिक्षा को सबसे ऊपर रखने के प्रयास तेज़ करना
  2. शिक्षा के अधिकार को प्रबलता से लागू करना कराना,
  3. फ़ीडर यूनिट्स को मज़बूत बनाना
  4. निज़ी शिक्षण संस्थानों को व्यवसायिकता से मुक्त कराना 
  5. व्यवसायिक शिक्षा के पाठ्यक्रम माध्यमिक स्तर के लिये तैयार कराना
  6. उच्चतर माध्यमिक शिक्षा को शिक्षा के अधिकार में शामिल करना        

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