7.11.13

दादा ईश्वरदास रोहाणी : कुछ संस्मरण...

 बावरे-फ़क़ीरा एलबम विमोचन  

दादा दादा दादा... 
आखिर क्या थे दादा जबलपुर वालों के लिये. सबके अपने अपने संस्मरण होंगे कुछ बयां होंगे कुछ बे बयां आंसुओं में घुल जाएंगें पर हर उस व्यक्ति के मानस  पटल से  दादा का व्यक्तित्व ओझल नहीं होगा जो दादा से पल भर भी मिला हो. सैकड़ों लोगों की तरह मेरा भी उनसे जुड़ाव रहा है. हितकारणी विधि महाविद्यालय के चुनावों में मेरा ज्वाइंट-सेक्रेटरी पोस्ट के लिये इलेक्शन लड़ना लगभग तय था. प्रेसिडेंट पद के प्रत्याशी  कैलाश देवानी ने कहा मैं दादा का आशीर्वाद लेने जांऊगा.. तुम भी चलो..गे..?
  मैं उनको जानता ही नहीं फ़िर वो क्या सोचेगें.. 
 मेरी बात सुन मित्र कैलाश देवानी ने कहा- एक बार चलो तो सब समझ जाओगे..    
   मित्र की बात मुझसे काटी नहीं गई. हम रवाना हुए.. हमें आशीर्वाद के साथ मिली नसीहत - सार्वजनिक जीवन में धैर्य सबसे ज़रूरी मुद्दा है. आप को सदा धैर्यवान बनना होगा. मेरा आप के साथ सदा आशीर्वाद है. बात सामान्य थी पर व्यक्तित्व का ज़ादू दिलो-दिमाग़ पर इस कदर हावी हुआ कि साधारण किंतु सामयिक शिक्षा जो तब के  हम युवाओं के लिये ज़रूरी थी इतनी प्रभावी साबित हुई कि हम भूल नहीं पा रहे . 
            दादा से फ़िर मुलाक़ातें कम ही हुईं पर वर्ष ९० में सरकारी नौकरी में आने के दो बरस बाद जबसे वे विधायक बने शासकीय, साहित्यिक, सांस्कृतिक आयोजनों में उनके साथ मिलने के कई अवसर आए. जिन आयोजनों का मुझे संचालन करना होता था यदि दादा उसमें मौज़ूद होते तो मुझे बहुत संबल दिया करते थे. सहज थे तभी न ..
       साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक आयोजनों में दादा की मौजूदगी पूरे स्नेह के साथ हुआ करती थी. वे तब न तो खुद को नेता प्रदर्शित करते थे न ही अलग थलग होना साबित कर रहे होते. बड़ी आत्मीयता से नाम सरनेम के साथ बुलाते थे.. चाहे वह श्रोता सभा में कहीं भी उपस्थित क्यों न हो. वाह क्या याददाश्त है.. यह सोचकर हम सब आश्चर्य चकित हो जाते. इसी प्रकार एक बार मैं शासकीय प्रोटोकाल के तहत एक शासकीय आयोजन में शामिल हुआ. प्रवेश द्वार के नज़दीक हमारी ड्यूटी थी.. व्यवस्था की ज़िम्मेदारी थी.. दादा ने आते ही ...अभिवादन के उत्तर में. “कैसे हैं गिरीश बिल्लोरे जी पूछ कर मुझे और मेरे साथ खड़े अधिकारियों को आश्चर्य में डाल दिया.”
  
मुस्कान बिखेरी शायद आश्वस्त हो गए. 
    इसी तरह दो बरस पहले एक सरकारी आयोजन के संचालन में संचालनकर्ता की स्थिति असहज देखते ही दादा को जाने क्या सूझा कि मंच पर तैनात एक अधिकारी मेरे पास आये धीरे से बोले.. दादा तुमको संचालन के लिये बुलवा रहे हैं.. मंच काफ़ी ऊंचा था मुझसे बैसाखियों के सहारे उस पर चढ़ने की स्थिति कठिन थी. पर मित्र अधिकारियों ने मुझे ऐसे मंच पर चढ़ाया कि मुझे कोई कठनाई न हुई . दादा ने मुझे माईक सम्हालते देखा एक हल्की सी मुस्कान बिखेरी शायद आश्वस्त हो गए. .. थे.
   गुणों को पहचाना उसे प्रकाशित करना उनसे उम्दा कौन जानता वाह कितना अदभुत व्यक्तित्व था ...        
        जिस व्यक्तित्व की मैमोरी इतनी तेज़ हो कि वो जिससे एक बार मिल ले उसे सनाम याद रखे बरसों बाद तक चमकारी क्षमता का धनी होगा ही. संयोग वश उनके निर्वाचन क्षेत्र, मेरा भी कार्यक्षेत्र रहा. अक्सर गांवों की जनता में उनके लिये असाधारण सम्मान देखा है मैने. वहां काम करने वाले सरकारी अधिकारी कर्मचारी जानते हैं कि दादा ईश्वरदास जी रोहाणी जननायक थे.
    एक निर्वात उनके बाद दिलों में अवश्य पैदा हुआ बेशक शहर सदमें में है.. दु:खी है लोग.. दादा एक ऐसे आईकान थे जिसकी पुनरावृत्ति अब जाने होगी ...
 अनवरत श्रृद्धांजलियां    

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