29.3.13

झल्ले की सतफ़ेरी ने खाई भांग

कार्टूनिष्ट: श्री राजेश दुबे 
            होली की रात जब झल्ले  होलिका दहन करवा के घर  लौटे तो गुलाल में इस क़दर पुते थे कि  उनकी सतफ़ेरी तो घबरा  गईं कि जाने कौन आ घुसा घर में. फ़िर आवाज़ सुनी तब जाकर उनकी हार्ट-बीट नार्मल हुईं. नार्मल होते ही उनने सवाल किया- 
           
खाना नै खाहौ का  ..?

न आज मेरो व्रत है..

काहे को..

पूर्णिमा को ..!

कौन है जा कलमुंही पूर्णिमा ज़रा हम भी तो जानें...!

हमसैं जान के का करोगी मेरी जान..कैलेंडर उठाओ देख लो 

वो तो देख लैहौं मनौ बताओ   व्रत पूर्णिमा को है ..! 
झल्ले : हओ
श्रीमति झल्ले : कर आप रये हौ..भला जा भी कौनऊ बात भई..?

               श्रीमति झल्ले उर्फ़ सतफ़ेरी बज़ा फ़रमा रहीं हैं. झल्ले निरुत्तर थे पर हिम्मत कर बोले -काय री भागवान तैने का भंग मसक लई..?

                      नईं तो कल्लू तुमाए लाने पान लाए हथे आधौ हम खा गये ! बा में भांग हती का ? ओ मोरी माता अब जा होली गई होली में. 
     अच्छी भली छोड़ के गये थे झल्ले सतफ़ेरी को कल्लू के लाए पान ने लफ़ड़ा कर दिया अब भांग के नशे में सच्ची सच्ची बात कहेंगी. इस तनाव में झल्ले ने कल्लू को पुकारा तो कल्लू झट हाज़िर आते ही पूछा - काय भैया का हुआ..?
का वा कुछ नईं,  बता मेरा पान मुझे देता साले सतफ़ेरी को काय दिया तूने..?
लो कल्लो बात, दादा जब हमने कक्का जी को आपके भेजे नोट दये हते तौ आपनैं  हमाई  लाई लुटवा दई हती . और आज़..
अरे मूरख पैसा और पान में फ़रक है.. पगला देख  सतफ़ेरी ने पान खाओ पान में हती भांग अब तोहे होली के पुआ न मिल हैं. .. का समझौ..!
सब समझ गओ दादा का करें बताओ..?
का कर हो.. अब जो कछु करने हुए बई कर है तोरी सतफ़ेरी-भौजी. 
               भांग मिले पान खाके सतफ़ेरी के दिमाग मे एकाएक न ज़ाने किधर से अकूत  ज्ञान का प्रवाह हुआ की मत पूछिए . बोली हमको टिकट दिलाय दो। हम वार्ड पार्षद बनेंगी 
काय और जे मौड़ा मोड़ी कौन पाल है ?
तुम और कौन ? पालनें अब हम तो चुनाव लड़ हैं समझे टिकट चायने है हमें  बस नातर हम चली मायके 
                भंग के नशे में सतफ़ेरी की ज़िद्द झल्ले डर गया पता नहीं क्या कर बैठेगी.  कहते हैं भंग का नशा तीन दिन तक उतरता नहीं  और जो आदी न हो उसको तो चार दिन तक पूरी तरह गिरफ़्त में रखता है. सतफ़ेरी की मांग पर मुहल्ले में ऐन धुरैड़ी के दिन नकली चुनाव हुए.. वो भी असली जैसे.. सारे वोट सतफ़ेरी भौजी को डाले गये. सतफ़ेरी चुनाव जीतीं.. भाषण दिया अचानक गहरी नींद ने सतफ़ेरी को जकड़ लिया. दूसरे दिन सब लोगों ने सतफ़ेरी की चिटिंग शुरु की -सतफ़ेरी भौजी तुम तो पार्षद हो.. तुम चुनाव जीतीं थी. हमारे मुहल्ले में अब कोई संकट न हो ऐसा कुछ करो.. ?
           सतफ़ेरी जो अब होश में थी बोली- "भैया हरो, हमने कोई चुनाव नई लड़ौ न हम जीते तुमने जौन सतफ़ेरी को चुनाव लड़वाओ बा टुन्न हती सबरे उम्मीदवार ऐंसई होत हैं.. जिताबे वारे सुई टुन्न होत हैं.. "
  सतफ़ेरी के इस बयान को गम्भीरता से लीजिये अब आप किसी ट्न्न को न तो चुनाव लड़वाएं और न ही वोट देते समय खुद टुन्न हों.. 

26.3.13

" चम्मचों की वर्तमान दशा और उनकी भविष्य की दशा "


                                                                  राष्ट्रीय स्तर पर यशस्वियों की लम्बी फ़ेहरिश्त को देख कल्लू यश अर्जन के गुंताड़े में लग गये.एक दिन अल्ल सुबह कल्लू  आए बोले दादा-"नाम, नाम में का रखा है है इसे तो हम भी कमा सकते हैं..!"
 हम- कमाओ नाम कमाओगे तो हम हमारा मुहल्ला, तुम्हारी चाय की दुकान, सब कछु फ़ेमस हो जाएगा कमाओ कमाओ नाम कमाओ..!
कलू - दादा, एक ब्राह्मण का आशीर्वाद सुबह से मिला तो हम आज सेई काम शुरु कर देते हैं.
         हम भी बुजुर्गियत भरे भाव से मुस्कुराये उधर कल्लू फ़ुर्र से गायब. 
                              पता नहीं क्या हुआ कल्लू को. यूं तो आज़ कल आधे से ज़्यादा लोग खुद को सुर्खियों में देखना चाहते हैं. पर एक कल्लू ऐसा इंसान था जो वास्तव में इंसान था अब इसे कौन सा भूत सवार हुआ कि वो यशस्वी हो जाना चाहता है. हमने सोचा अब जब आएगा तो समझा देंगे कि यश अर्जित करने की लालसा को होली में डाल दो.. हमने अच्छे-अच्छों को यशासन से तिरोहित ही नहीं औंधे मुंह गिरते देखा है. 
               पिछले हफ़्ते कल्लू अचानक आ टपके चेहरा पर सफ़लताओं से उत्तेजित थे  बोले महाराज आपके चरणों के आशीर्वाद से हम नेता जी के चिलमची हो गये हैं. जिधर जाते हैं उधर नेताजी के साथ हमारा भी स्वागत सत्कार होता है गुरू.. अब तो पक्का है देर सवेर हमारा भी सितारा चमकेगा. !
हम : खुलके बोलो कल्लू कौन सा कारूं का खजाना पा गये हो भई ?
कल्लू : दादा, वो झलकन भैया हैं न उनकी पार्टी के हम मेम्बर बन गये. आप तो जानते हो न झलकन भैया के सितारे कित्ते बुलंदी पे चल रहे हैं.  बस उनकी चमचा गिरी करने लगे हैं. फ़त्ते भैया उनसे मिलवाए थे हमको. मां कसम  महाराज़  हमाए तो भाग खुल गये. झलकन भैया एक दिन इस प्रदेश के सबसे बड़े नेता होंगे और हम हम जो उनकी चम्मची कर रए हैं.. चमक जाएंगे !
हम : आओ, खाना खाते हैं..! 
                         ज़रा सी नानुकुर के बाद कल्लू भाई मान गये. उनकी हमारे डायनिंग हाल  में डायरेक्ट एंट्री थी, बचपन के दोस्त जो थे. कुर्सी पर यूं बैठे गोया हालिया निर्वाचित हुए हों.  बातचीत चालू हुई. खाना भी आया. हर ढौंगे में चम्मच सिर के बल धंसे थे. कुछेक चम्मच "स्पून-स्टैंड" में उल्टे टंगे थे . हमारा ध्यान खाने पर कम चम्मचों के अस्तित्व पर अधिक  था. डायनिंग रूम में स्तब्धता.. सिवाय श्रीमति जी के ये खाओ, रोटी दूं और मुंह में निष्पादित हो रही चर्वण-क्रिया के अतिरिक्त कोई शोर शराबा न था. दो तीन रोटी पेट में समाते ही कल्लू का मुंह बोलने को बाध्य हो गया बोलने लगे -भैया , बड़े  चिंतित नज़र आ रए हौ ? का बात है.. ज़रा बताओ..?
हम :- भाई कल्लू, हम " चम्मचों की वर्तमान दशा और उनकी भविष्य की दशा "  पर चिंतनरत हूं..?  
कल्लू : हिंदी में बोलो महाराज इत्ती मंहगी भाषा हम नहीं जानते.. हा हा हा 
हम :- हा हा हा , भाषा पर मंहगाई डायन का असर.. हा हा 
कल्लू :- हां तो महाराज़ बताओ न अपनी अजीबोग़रीब बात का अर्थ बताओ न " चम्मचों की वर्तमान दशा और उनकी भविष्य की दशा " क्या है..?
हम ने भी बिना नानुकुर किये बताया- देखो भाई.. चम्मचों की वर्तमान दशा ये है कि वे दाल,सब्जी, अचार, आदि वाले बर्तनों में सिर के बल डले हैं. जो चमचे काम नहीं कर रहे होते वो देखो चम्मच स्टैंड में लटके हैं वो भी गले से .. हा हा 
पर काम तो आते हैं न.... कल्लू बोला यह कथन कह कर उसने अपने को उपयोगी सिद्ध करने की कोशिश की. पर हम ने भी नहले पर दहला मारा "भैये, ग़रीबों की रसोईयों में इनका महत्व नहीं.."
   कल्लू भाई ने पलटकर चम्मच भविष्य की दशा के बारे में जानने ज़हमत नहीं उठाई गोया कि वे घबरा रहे हों कि पता नहीं हम क्या कहें और कहा फ़ंसा लें अपने बातों के बुनाव में ..
                                मित्रो, मेरे इस आलेख से भयभीत होकर राष्ट्रीय महत्व के कार्य चम्मच गिरी से मुंह मोड़ने की गलती मत कर बैठिये हमारे टाइप के लेखक विचारक कवि तो बस यूं ही शब्दों से खेला   करतें हैं  . अरे जब इतने बड्डे बड्डे महान साहित्यकार  बाल भी बांका न कर पाए व्यवस्था का तो मेरी क्या कॊवत। आप तो दफ्तर में , नेता जी कने जब जाओ तो फुल स्टेनलेस के चमचमाते  
 चम्मच  बनके जाओ. पता नहीं कब  कृपा हो  और  मोदी जी की जगह आपका नाम उछल आए  आका के मुंह से ?   

22.3.13

मिस्टर लाल हर हाल में बेहाल


श्रीमान लाल 
                             
गिरीश बिल्लोरे “"मुकुल”                 
   मिस्टर लाल मेरे ज़ेहन में बसा वो चरित्र है जो न तो हटाए हटता न ही भगाए भागता.. हर हाल में बेहाल मिस्टर लाल का ऐसा चरित्र था कि आप दूर से असहज हो जाएं पास आकर उनके आपको मानसिक दुबलापन महसूस होने लगता .. न न आप चिंता मत कीजिये मिस्टर लाल अब आपसे कभी न मिल पाएंगे क्योंकि वे इन दिनों लापतागंजवासी हो गये.
           उफ़्फ़ ये क्या सोच लिया आपने  ? मैने कब कहा कि वो –परलोक सिधारें हैं ! अर्रे वो तो ऐसी जगह गये हैं जिसका हमको पताईच्च नईं है. जिस जगह का पता न हो वो लापतागंज ही तो कहायगा न भाई.. !
     मिस्टर जाति से मानव जाति के थे जीव थे पेशे से सेवानिवृत्त अफ़सर, वृत्ति से आत्ममुग्ध, आर्थिक स्थिति वास्तव में अच्छी पर जनता के लिये दुनियां के टाप टेन ग़रीबों की सूची के पहले स्थान पर अंकित व्यक्ति थे. तो अब आप पूछेंगे कि क्या फ़ोर्ब्स की तरह ऐसी कोई किताब निकलती है जिसमें टाप-10 ग़रीबों के नाम छपते हैं.. ? या कि फ़ोर्ब्स में ही ये नाम छापे जाते हैं..?
      अब आप इस कथा को बांच रहे हैं न ! तो बांचिये काय बीच बीच में बोल के हमको डिस्टर्ब कर रहे हैं.. ! बताईये भला कोई ग़रीबों पर लिख के अपनी मैग्ज़ीन बंद करायेगा. फ़ोर्ब्स को का पड़ी है गरीबों पर विचार करने की. अपने सियासी लोगों के लिये ज़रूरी हैं ग़रीब और उनकी ग़रीबी ! सच इनके बिना सियासत एक भी क़दम आगे चले तो कहिये .
              हां तो अब कोई टोका टाकी न हो कथा फ़िर से शुरु करता हूं जिधर से छोड़ी थी-  मिस्टर जाति से मानव जाति के थे जीव थे पेशे से सेवानिवृत्त अफ़सर, वृत्ति से आत्ममुग्ध, आर्थिक स्थिति वास्तव में अच्छी पर जनता के लिये दुनियां के टाप टेन ग़रीबों की सूची के पहले स्थान पर अंकित व्यक्ति थे . अखबारों में रोज़िन्ना किराना, सोना, कपड़े का भाव देखते और लगते सरकार को कोसने. और फ़िर किसी के भी घर जाकर अपनी भड़ास निकालते- “इससे तो अंग्रेज राज़ अच्छा था, चैन की रोटी तो खाते थे, हमारे बाप दादे दस दस औलादों की भीड़ आसानी से पालते थे.”
      आज़ से असहमति की सर्वोच्च मिसाल हैं ऐसे वक्तव्य. गुलामी मंज़ूर पर रोजिया रेट-इज़ाफ़ा बर्दाश्त नहीं मि.लाल को.  मि. लाल ने बताया था एक दिन - “स्साला जित्ते में बेटे के दो बच्चों का एडमीशन हुआ उत्ते में तो हमारे गांव के बारह लड़के मेट्रिक पास हो गये थे..!”
    बज़ा फ़रमाया लाल साब ने एक दिन तो गज़ब ही बोल गये-“अर्र हमारी मां ने जितनी भी औलादें जनीं सब मरते दम उनके साथ थीं और एक जे थीं जो मरीं तो हमको अकेले क्रिया-करम कराना पड़ा ” – स्वर्गवासी अर्धांगिनी को दोष देते मिस्टर लाल को गोया मुखाग्नि देना भी गवारा न था.
      लाल साहब सुबह से म्यूनिस्पल, सरकार, मीडिया-अखबार, मौज़ूदा पहनावे, लोगों के आचार-विचार चाल-ढाल, शिक्षा व्यवस्था, यहां तक कि अपने दरवाज़े पर खड़े कुत्ते तक से असहमत रहते थे- एक बार हमने उनको सुना वे मुहल्ले के भूरा नाम के कुत्ते को डंडा फ़ैंक के मारते हुए बोल रहे थे-“स्साले, यहां ऐसे खड़ा है जैसे मैने तेरे बाप से कोई कर्ज़ लिया हो ?” कुत्ता दुम दबा के भाग निकला. हमें लगा कि मि. लाल का कुत्ते से वर्तमान में कोई बैर नहीं उसके बाप से अवश्य है. मित्रो , भले ही मि.लाल लापतागंज वासी हो गए पर असहमति के जीवाणु यत्र-तत्र-सर्वत्र है. हर आदमी दूसरे को गरियाता कोसता नज़र आ जाता है. टीवी वगैरा में रोज ऐसे किरदार बाक़ायदा बिलानागा दिखाए जाते हैं. अखबारों की सुर्खियों के लिये ऐसे ही लोग काम आते हैं. हम आप जब सार्वजनिक स्थान पर होते हैं तब ऐसे ही कोसते हैं न किसी को भी . राज की बात है आपको कहे देता हूं किसी को न कहिये- मि. लाल कोई नहीं मैं हूं, तुम हो, ये हैं, वो हैं, अर्र रुको भाई हां तुम काली पतलून वाले सा’ब तुम भी तो हो न मि.लाल.
क्या कहा- कहां है लापतागंज ?
ये ही तो है लापतागंज जहां मैं हूं, तुम हो, ये हैं, वो हैं, और वो भी हैं जो काली पतलून पहने हैं . हम जहां भी होते है लापतागंज में होते हैं.
    

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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...