गिरीश बिल्लोरे “"मुकुल”
मिस्टर लाल
मेरे ज़ेहन में बसा वो चरित्र है जो न तो हटाए हटता न ही भगाए भागता.. हर हाल में
बेहाल मिस्टर लाल का ऐसा चरित्र था कि आप दूर से असहज हो जाएं पास आकर उनके आपको मानसिक दुबलापन
महसूस होने लगता .. न न आप चिंता मत कीजिये मिस्टर लाल अब आपसे कभी न मिल पाएंगे
क्योंकि वे इन दिनों लापतागंजवासी हो गये.
उफ़्फ़ ये क्या सोच लिया आपने ? मैने कब कहा कि वो –परलोक सिधारें हैं ! अर्रे
वो तो ऐसी जगह गये हैं जिसका हमको पताईच्च नईं है. जिस जगह का पता न हो वो
लापतागंज ही तो कहायगा न भाई.. !
मिस्टर जाति से मानव जाति के थे जीव थे पेशे
से सेवानिवृत्त अफ़सर, वृत्ति से आत्ममुग्ध, आर्थिक स्थिति वास्तव में अच्छी पर
जनता के लिये दुनियां के टाप टेन ग़रीबों की सूची के पहले स्थान पर अंकित व्यक्ति
थे. तो अब आप पूछेंगे कि क्या फ़ोर्ब्स की तरह ऐसी कोई किताब निकलती है जिसमें टाप-10 ग़रीबों के नाम छपते हैं.. ? या कि फ़ोर्ब्स
में ही ये नाम छापे जाते हैं..?
अब आप इस कथा को बांच रहे हैं न ! तो बांचिये
काय बीच बीच में बोल के हमको डिस्टर्ब कर रहे हैं.. ! बताईये भला कोई ग़रीबों पर
लिख के अपनी मैग्ज़ीन बंद करायेगा. फ़ोर्ब्स को का पड़ी है गरीबों पर विचार करने की.
अपने सियासी लोगों के लिये ज़रूरी हैं ग़रीब और उनकी ग़रीबी ! सच इनके बिना सियासत एक
भी क़दम आगे चले तो कहिये .
हां तो अब कोई टोका टाकी न हो कथा फ़िर से शुरु
करता हूं जिधर से छोड़ी थी- मिस्टर जाति से
मानव जाति के थे जीव थे पेशे से सेवानिवृत्त अफ़सर, वृत्ति से आत्ममुग्ध, आर्थिक स्थिति
वास्तव में अच्छी पर जनता के लिये दुनियां के टाप टेन ग़रीबों की सूची के पहले
स्थान पर अंकित व्यक्ति थे . अखबारों में रोज़िन्ना किराना, सोना, कपड़े का भाव
देखते और लगते सरकार को कोसने. और फ़िर किसी के भी घर जाकर अपनी भड़ास निकालते- “इससे
तो अंग्रेज राज़ अच्छा था, चैन की रोटी तो खाते थे, हमारे बाप दादे दस दस औलादों की
भीड़ आसानी से पालते थे.”
आज़ से असहमति की सर्वोच्च मिसाल हैं ऐसे
वक्तव्य. गुलामी मंज़ूर पर रोजिया रेट-इज़ाफ़ा बर्दाश्त नहीं मि.लाल को. मि. लाल ने बताया था एक दिन - “स्साला जित्ते
में बेटे के दो बच्चों का एडमीशन हुआ उत्ते में तो हमारे गांव के बारह लड़के
मेट्रिक पास हो गये थे..!”
बज़ा फ़रमाया लाल साब ने एक दिन तो गज़ब ही बोल
गये-“अर्र हमारी मां ने जितनी भी औलादें जनीं सब मरते दम उनके साथ थीं और एक जे
थीं जो मरीं तो हमको अकेले क्रिया-करम कराना पड़ा ” – स्वर्गवासी अर्धांगिनी को दोष
देते मिस्टर लाल को गोया मुखाग्नि देना भी गवारा न था.
लाल साहब सुबह से म्यूनिस्पल, सरकार,
मीडिया-अखबार, मौज़ूदा पहनावे, लोगों के आचार-विचार चाल-ढाल, शिक्षा व्यवस्था, यहां
तक कि अपने दरवाज़े पर खड़े कुत्ते तक से असहमत रहते थे- एक बार हमने उनको सुना वे
मुहल्ले के भूरा नाम के कुत्ते को डंडा फ़ैंक के मारते हुए बोल रहे थे-“स्साले,
यहां ऐसे खड़ा है जैसे मैने तेरे बाप से कोई कर्ज़ लिया हो ?” कुत्ता दुम दबा के भाग
निकला. हमें लगा कि मि. लाल का कुत्ते से वर्तमान में कोई बैर नहीं उसके बाप से
अवश्य है. मित्रो , भले ही मि.लाल लापतागंज वासी हो गए पर असहमति के जीवाणु
यत्र-तत्र-सर्वत्र है. हर आदमी दूसरे को गरियाता कोसता नज़र आ जाता है. टीवी वगैरा
में रोज ऐसे किरदार बाक़ायदा बिलानागा दिखाए जाते हैं. अखबारों की सुर्खियों के
लिये ऐसे ही लोग काम आते हैं. हम आप जब सार्वजनिक स्थान पर होते हैं तब ऐसे ही
कोसते हैं न किसी को भी . राज की बात है आपको कहे देता हूं किसी को न कहिये- मि.
लाल कोई नहीं मैं हूं, तुम हो, ये हैं, वो हैं, अर्र रुको भाई हां तुम काली पतलून
वाले सा’ब तुम भी तो हो न मि.लाल.
क्या कहा-
कहां है लापतागंज ?
ये ही तो है
लापतागंज जहां मैं हूं, तुम हो, ये हैं, वो हैं, और वो भी हैं जो काली पतलून पहने
हैं . हम जहां भी होते है लापतागंज में होते हैं.