जब लौटता दफ़्तर से रास्ते में मुझे एक ज़रूरी काम होता है. बिना ड्रायवर को ये कहे कि ज़रा रुकना मैं वो काम पूरा कर ही लेता हूं जानते हैं कैसे डा. वेगड़ के पिता माता यानी अमृतलाल जी बेगड़ सपत्नीक शाम छै: बजे के आस पास अपने घर से निकलते हैं शाम की तफ़रीह पर और मुझे लगता है देव-पुरुष सहचरी के साथ मुझे दर्शन देने स्वयम बाहर आते हैं.
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मेरे सहकर्मी धर्मेंद्र के बाबूजी फ़्रीडम फ़ाइटर के सी जैन शाम पांच बजे से बेटे का इंतज़ार करती इनकी आंखें .....
फ़ादर्स डे पर ..... धर्मेंद्र कहते हैं.. "सर,अपन तो पिता के नाम पूरी ज़िंदगी कर दें तो बहुत छोटी सी बात है...!!".
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| आते ही सबसे दयनीय पौधे के पास गए |
| फ़िर अगले ही पल मुस्कुराने लगते |
मेरे बाबूजी सुबह सबेरे की अपने
छत वाले गार्डन तक जाते हैं गार्डन वाले बच्चों दुलारते हैं.. पौधे भी एहसास कर ही लेते होंगे :-''पितृत्व कितना स्निग्ध होता है " नन्हे-मुन्ने पौधे इंतज़ार करते हैं.बाबूजी बगीचे में आते ही आते ही सबसे दयनीय पौधे के पास जाते उसे सहलाते फिर एक दूसरे बच्चे पास की सबसे जरूरत मंद के पास सबसे पहले. ऐसे हैं बाबूजी. जी जैसे मेरे पास सबसे पहले
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अंजना जी के बाबूजी कैलेण्डर कलाकार डा हेमराज जैन अब नेत्र-ज्योति विहीन हैं पर आज भी कल की स्मृतियों को बांटते हैं बच्चों में ......
माता-पिता के लिये सिर्फ़ एक दिन नियत मत करो पूरा जीवन भी नियत करोगे तो कम होगा भई
बस थोड़ा सा हम खुद को बदल लें तो लगेगा कि :-भारत में वृद्धाश्रम की ज़रुरत से ज़्यादा ज़रुरत है पीढ़ी की सोच बदलने की.
बालगृह के बच्चे माता-पिता
इनके लिये एक संज्ञा मात्र है
अर्थ की तलाश में
ये बच्चे
