साभार : मल्हार ब्लाग से |
दु:ख के झंडे हाथ दे गए !
बाबूजी तुम हमें छोड़ कर
नाते-रिश्ते साथ ले गए...?
काका बाबा मामा ताऊ
सब दरबारी दूर हुए..!
बाद तुम्हारे मानस नाते
ख़ुद ही हमसे दूर हुए.
अब तो घर में मैं हूँ माँ हैं
और पड़ोस में विधवा काकी
रातें कटती अब भय से
नींद अल्ल-सुबह ही आती.
क्यों तुम इतना खटते थे बाबा
क्यों दरबार लगाते थे
क्यों हर एक आने वाले को
अपना मीत बताते थे
सब के सब विदा कर तुमको
तेरहीं तक ही साथ रहे
अब माँ-बेटी के साथी
जीवन के संताप रहे !!
अब सबको पहचान लिया है
अपना-तुपना जान लिया है
घर में क्यों आते थे ये सारे
मैंने तो पहचान लिया है
• गिरीश बिल्लोरे "मुकुल"