मधुर सुर न सुनाई दें जिस घर से वो घर कैसा
न मांडी जाए रंगोली जिस दर पे वो दर कैसा ?
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बिना बेटी के घर लगते अमावस की घुप रातें
न रुन झुन पायलें बजतीं न होती हैं मृदुल बातें
न दीवारों पे रौनक और देहरी से चमक गायब-
देखता जो भी सोचे ये घर तो है मगर कैसा ..?
मधुर सुर न सुनाई दें जिस घर से वो घर कैसा
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वो बेटी ही तो होती है कुलों को जोड़ लेती है
अगर अवसर मिले तो वो मुहाने मोड़ देती है
युगों से बेटियों को तुम परखते हो न जाने क्यूं..?
जनम लेने तो दो उसको जनम-लेने से डर कैसा..?
मधुर सुर न सुनाई दें जिस घर से वो घर कैसा
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पालने से पालकी तक की चिंता छोड़ के आना
वो बेटों से भी बेहतर है ये चिंतन जोड़ ते लाना
उसे तुमने जो अब मारा धरा दरकेगी ये तय है-
उसे ताक़त बनाओगे जमाने से डर कैसा ?
मधुर सुर न सुनाई दें जिस घर से वो घर कैसा