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शुक्रवार, नवंबर 12, 2010

बच्चन के बच्चा हुआ, नाम हो बच्चू सूर मां और बाप के नाम की छाप रहे भरपूर

बेहद विचित्रताओं भरा जीवन किंतु सपाट और तीखा-व्यंग करने वाले स्वर्गीय हरिशंकर परसाई जी का अनूठा और दुर्लभ चित्र प्रस्तुत करते हुए बेहद रोमांचित होता जा रहा हूं. आज लिखना चाह रहा हूं "दशद्वार से सोपान" पर किंतु उसी क़िताब में क्षेपक से छिपी इस तस्वीर को आप सबके सामने लाकर मन रोमांच से भर आया. यह करामात स्वर्गीय शशिन यादव की है, "करामात" शब्द का प्रयोग  क्यों कर रहा हूं इस विषय पर बाद में बात करूंगा. अभी बच्चनजी की कृति पर चर्चा ही करूंगा. अव्वल तो यह साफ़ कर देना चाहता हूं कि मैं कुछ भी नहीं पढ़ता और जब पढ़ता हूं तो उसे ही जो जीवनोपयोगी हो ..
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                             दशद्वार से सोपान तक  
"यह कृति की समीक्षा नहीं बल्कि सार्वकालिक कहने की कोशिश है"
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"तेज़ी जी  से शादी करने का अर्थ  अपमान से ज़्यादा उस युग में आंकना भी गलत था.  बच्चन जी का तेजि जी से विवाह एक पाप के तुल्य मानी गई सामान्य रूप से जीवन में आप देखें तो पाएंगे कि यदि आप पर ऐसा कोई आरोप झूठा ही सही लग जाए तो सबसे पहले रिश्तेदारी की गांठ जो कस के लगाई होती है जिसे मान-मनुहार से जोड़ा जाता है सबसे पहले "फ़्रीज़र में जमे बर्फ़ की तरह " रिसने लगती है. एकाध बार कोई मित्र मण्डली आपके संग साथ बैठी तो बैठी वरना जितना ज़ल्द से ज़ल्द  हो सके कन्नी काटने की कोशिश भी करती है और तो और काट भी लेती  है.मैं भी बच्चन जी की इस पीर को उस समय समझ पाया था जब परिवार के एक रिश्तेदार की पुत्र वधू ने उनको दहेज़ प्रताड़ना के मामले में जेल भिजवा दिया हम नार्मदेय-ब्राह्मणों में दहेज न तो मांगा जाता और न ही दिया जाता. बात फ़ैलते ही लोगों ने उनसे दू्री बनानी शुरु कर दी  . मेरे घर में बड़े भैया की शादी होने वाली थी... मेरी मां तो सच सव्यसाची थीं उन्हैं  सबसे स्नेह था जानतें हैं घर में बिराजे गणेश जी  सहित  पूजा-कक्ष से सारे आराध्यों को आमंत्रित कर सब से पहला कार्ड देने उसी  उपेक्षित परिवार में  गईं थी बाबूजी को साथ लेकर गईं. लौटने पर कौतुहल वश मैने पूछा :- क्या ज़रूरी था  उधर सबसे पहले जाना पहले अमुक को न्योता देते इस घर में तो बाद में भी जा सकते थे हम बच्चों मे से कोई दे आता (तब मैं बाईस बरस का बच्चा था) इस पर मां बाबूजी मेरी बात सुन कर मंद मंद मुस्कुराए मां ने कहा था:-"पप्पू,कैसा कवि है तू..?"
मेरे सवाल का ज़वाब मुझे मिला और आत्मकथा के इस भाग ने उसकी व्याख्या की . किसी ने  कुंठा वश  दो पंक्तियां लिखीं थी तब  शिशु अमिताभ को देखते हुए:-
बच्चन के बच्चा हुआ, नाम हो बच्चू सूर
मां और बाप के नाम की छाप रहे भरपूर
अपमानित करने लिखी गईं पंक्तियाँ सटीक थीं अमित जी आज सबसे महत्वपूर्ण ज़रूरी और लोक प्रिय हैं इसमें कोई शक नहीं 
मधुशाला को लेकर हंगामे से सभी परिचित हैं  अब आप ही देखिये इस चतुष्पदी को कहां है मादकता -
क्षीण, क्षुद्र, क्षणभंगुर, दुर्बल मानव मिटटी का प्याला,
भरी हुई है जिसके अंदर कटु-मधु जीवन की हाला,
मृत्यु बनी है निर्दय साकी अपने शत-शत कर फैला,
काल प्रबल है पीनेवाला, संसृति है यह मधुशाला।(कविता कोष से समीक्षार्थ साभार)
मेरी नज़र में कोई गंदगी नहीं विशुद्ध अध्यात्म है मधुशाला मैं पीने वालों में से नहीं फ़िर भी साबित कर सकता हूं कि बच्चन हाला-के कवि न थे .बच्चन समग्र इधर  मिलेगा ० =>;"कविता-कोष में"
                 यहां एक बात साफ़ तौर पर कहना है कि किसी भी विक्टिम को अपराधी की तरह ट्रीट किया जाने से बड़ा अपराध और कोई नहीं  न तो आप-हम स्रजक और नियंता हैं न ही किसी के न्यायाधीश ही स्वयम प्रभू होने का दावा करना सत्ता का अहंकार मात्र होता है.
"एक बार एक एक धूर्त राजा जो चापलूसी पसंद अपने मंत्री को आईना देखने की सलाह दे रहा था  सउदाहरण   उसने धूर्त राजा ने बताया कि मंत्री तुम्हारे कितने अपराध हैं लोग तुमको राज्य में सबसे ज़्यादा नापसंद करतें हैं तुम्हारी छवि ठीक नहीं खुद का सुधार करो . मंत्री को समझ में आ गया कि राजा का अब अंत निकट है सो उसे बचाना भी ज़रूरी है. वरना पराधीनता भी तय है. सो उसने राजा से रात को जन रुचि परखने चला जावे वेष बदल कर. यदि सच हुआ तो मुझे देश निकाला दे दीजिये .
धूर्त राज़ा ने सोचा मंत्री उसे चुनौती दे रहा है फ़ौरन सूर्यास्त के पूर्व देश से प्रस्थान  के आदेश दे दिये. सुविज्ञ ज्ञानवान के राजा का छोटा भाई खुश हुआ. बस भाई को नज़र बंद कर अगले ही दिन मुकुट हथिया लिया . आशय साफ़ है कानों से मूर्ख और धूर्त देखते हैं आँखों से पढ़े-लिखे किंतु  सत्यान्वेषी अंतस-के नेत्रों से देखते हैं .
आज के परिदृश्य में उस राजा की तरह देखने वालों की संख्या सर्वाधिक है.
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                           अभी-अभी 
पोस्ट यथा संभव जटिल नहीं है . मुझे यकीन है किन्तु
अरविन्द  मिश्र जी के सर के ऊपर से सर्र से निकलना
यानी मुझे कुछ और सरल प्रवाह में लिखना होगा ताकि ...?
      बच्चन जी की आत्म-कथा चार भाग में

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