संदेह को सत्य समझ के न्यायाधीश बनने का पाठ हमारी ."पुलिस " कोअघोषित रूप से मिला है भारत /राज्य सरकार को चाहिए की वे,सामाजिक आचरण के अनुपालन कराने के लिए,पुलिस को दायित्व नहीं देना चाहिए . इस तरह के मामले,चाहे सही भी हों विषेशज्ञ से परामर्श के पूर्व सार्वजनिक न किएँ,जाएँ , एक और आरुशी के मामले में पुलिस की भूमिका,के अतिरिक्तदेखा जा रहा है पुलिस सर्व विदित है .
सामान्य रूप से पुलिस की इस छवि का जन मानस में अंकन हो जाना
समाज के लिए देश के लिए चिंतनीय है , सामाजिक-मुद्दों के लिए
बने कानूनों के अनुपालन के लिए पुलिस को न सौंपा जाए बल्कि पुलिस इन मामलों के निपटारे के लिए
विशेष रूप से स्थापित संस्थाओं को सौंपा जाए ।
संदेह को सत्य समझ के न्यायाधीश बनने का पाठ हमारी पुलिस को
अघोषित रूप से मिला है भारत /राज्य सरकार को चाहिए की वे
सामाजिक आचरण के अनुपालन कराने के लिए
पुलिस को दायित्व नहीं देना चाहिए . इस तरह के मामले
चाहे सही भी हों विषेशज्ञ से परामर्श के पूर्व सार्वजनिक न किएँ
जाएँ , एक और आरुशी के मामले में पुलिस की भूमिका,के अतिरिक्त
देखा जा रहा है पुलिस सर्व विदित है .
सामान्य रूप से पुलिस की इस छवि का जन मानस में अंकन हो जाना
समाज के लिए देश के लिए चिंतनीय है , सामाजिक-मुद्दों के लिए
बने कानूनों के अनुपालन के लिए पुलिस को न सौंपा जाए बल्कि पुलिस इन मामलों के निपटारे के लिए
विशेष रूप से स्थापित संस्थाओं को सौंपा जाए .
सामान्य रूप से पुलिस की इस छवि का जन मानस में अंकन हो जाना
समाज के लिए देश के लिए चिंतनीय है , सामाजिक-मुद्दों के लिए
बने कानूनों के अनुपालन के लिए पुलिस को न सौंपा जाए बल्कि पुलिस इन मामलों के निपटारे के लिए
विशेष रूप से स्थापित संस्थाओं को सौंपा जाए ।
संदेह को सत्य समझ के न्यायाधीश बनने का पाठ हमारी पुलिस को
अघोषित रूप से मिला है भारत /राज्य सरकार को चाहिए की वे
सामाजिक आचरण के अनुपालन कराने के लिए
पुलिस को दायित्व नहीं देना चाहिए . इस तरह के मामले
चाहे सही भी हों विषेशज्ञ से परामर्श के पूर्व सार्वजनिक न किएँ
जाएँ , एक और आरुशी के मामले में पुलिस की भूमिका,के अतिरिक्त
देखा जा रहा है पुलिस सर्व विदित है .
सामान्य रूप से पुलिस की इस छवि का जन मानस में अंकन हो जाना
समाज के लिए देश के लिए चिंतनीय है , सामाजिक-मुद्दों के लिए
बने कानूनों के अनुपालन के लिए पुलिस को न सौंपा जाए बल्कि पुलिस इन मामलों के निपटारे के लिए
विशेष रूप से स्थापित संस्थाओं को सौंपा जाए .
"किंतु इस सबसे पहले इधर भी गौर करें "
दर असल पुलिस को लेकर सामाजिक सोच नेगेटिव होने के कारण जग ज़ाहिर हैंकिंतु कभी आपने पुलिस वालो के जीवन पर गौर किया होगा तो आप पाया ही होगा
व्यक्तिगत-पारिवारिक जीवन कितना कठिनाइयों भरा होता है .
सोचिए जब बेटी के साथ ,मुस्कुराने का वक्त हो तब उनको वी आई पी ड्यूटी में लगे होना हो,पिता बीमार हैं और सिपाही बेटा नौकरी बजा रहा हो ,या होली,दीवाली,ईद,दीवाली,इन सब को दूर से देखने वाले पुलिस मेन की संवेदना हरण होना अवश्यम्भावी है. चलिए सिर्फ़ पुलिस की आलोचना करने के साथ साथ व्यवस्था में सुधार के लिए चर्चा कर उनको संवेदनशील,ईमानदार,ज़बावदार,बनाने सटीक सुझाव दें, कोई तो कभी तो सुनेगा ही ।
पुलिस जीवन के लिए मेरी सोच जो मैंने,उन दिनों देखी थी जब मैं लार्डगंज पुलिस-कालोनी में बच्चों को ट्यूशन पढाता था
बहुत करीब से इनको देखा था तब आँखें भर आया करतीं थीं उस स्थिति पर आधारित है . आप भी इसे देख सकतें हैं आज भी कमोबेश दशा वही है ।
प्रेरणा :
भाई समीर यादव की पोस्ट "शहीद पुलिस "से प्रेरित हुआ हूँ और संग साथ हैं बीते दिनों की यादें जिन दिनों बेरोज़गारी के दौर में ट्यूशन पढाता मैं लार्डगंज जबलपुर के वाशिंदे पुलिस वालों के बच्चों को जिनमें से अधिकाँश अच्छी नौकरियों में अब मिलते हैं कभी कभार नमस्ते मामाजी के संबोधन सहित
भाई समीर यादव की पोस्ट "शहीद पुलिस "से प्रेरित हुआ हूँ और संग साथ हैं बीते दिनों की यादें जिन दिनों बेरोज़गारी के दौर में ट्यूशन पढाता मैं लार्डगंज जबलपुर के वाशिंदे पुलिस वालों के बच्चों को जिनमें से अधिकाँश अच्छी नौकरियों में अब मिलते हैं कभी कभार नमस्ते मामाजी के संबोधन सहित
15 टिप्पणियां:
आपने सही मुद्दा उठाया है .
विवेक जी आप का आभारी हूँ
पुलिस के प्रति हमारी सोच
के मनोवाज्ञानिक विमर्श की ज़रूरत है .
पुलिस जीवन के लिए मेरी सोच जो मैंने
उन दिनों देखी थी जब मैं लार्डगंज पुलिस
कालोनी में बच्चों को ट्यूशन पढाता था
बहुत करीब से इनको देखा था तब मेरी
आँखें भर आइन थीं
पुलिसिया कार्यप्रणाली पर विस्तृत "विमर्श' किया जा सकता है...आपने एक सार्थक पहल की है...बुनियादी सुविधाओं के बिना जो भी प्रयास होता है, वह हवाई साबित होता है. 'देशभक्ति-जनसेवा' के आदर्श वाक्य और सोच से एक समय तक कार्य किया जा सकता लेकिन पूरा सिस्टम ही जब धराशायी हो चुका हो तो ....फ़िर अगल-बगल देख कर काम करना कार्यप्रणाली को अद्यतन करने जैसा माना जाता है. बहुत कुछ कहा जा सकता है......आप आगे बढ़ें
Sameer Bhai
Shukriya
मेरा वास्ता नही पडा आज तक , लेकिन हर तरह के लोग सब जगह मिलते है.
धन्यवाद
राज जी
सही है सबको ऐसे लोग नही मिलाती
शुक्रिया जी
अच्छा विषय उठाया किंतु इस देश का दुःख:द बिन्दु यही है की
त्याग की तारीफ़ करने वाले कम ही मिलतें हैं अच्छा मुद्दा उठाया
आपने संतुलित भी बात देखें कौन-कौन करेगा ?
thanks aal of you
बहुत अच्छा मुद्दा लिया है विमर्श के लिए, बधाई.
आपने सही विषय को बिल्कुल सटीक तरीके से उठाया है ! असल में हमारी आदत है हर बात के लिए पुलिस को दोष देना ! पुलिस जो अच्छा काम करती है उसके लिए उसको जनता से कुछ भी प्रसंशा नही मिलती ! बहुत हुआ तो विभागीय प्रोमोशन मिल गया ! यानी पुलिस वालो को एकदम मशीनी किसने बनाया ? हमने ! और आशा करते हैं की सब कुछ अपनी आशा अनुरूप हो ! पुलिस की मानसिकता को बिल्कुल मशीनी बना दिया गया है ! आप पुलिस को मानवीय व्यवहार दीजिये आपको या किसी को भी उनसे शिकायत नही रहेगी ! असल में इतने दवाब में काम करना आसान काम नही होता ! और पुलिस वाले कहीं आसमान से नही आते ! आपके हमारे बंधू बांधव और रिश्तेदार ही पुलिस में हैं ! धन्यवाद !
सही मुद्दा..धन्यवाद.
पुलिसजनों की आम तकलीफों और उनके सामाजिक सरोकारों की और भी ध्यान दिया जाना चाहिए खासकर सरकार को भी . इस क्रम को आप बनाये रखे. यह अच्छा प्रयास होगा हम ब्लागर बंधुओ की और से. बधाई और शुभकामना .
mujhe aaj shradhaa jee ke blog se yahan pahunchkar apaar khushee huee kyonki main police vale ka jeevan jee raha hoon ...
...dukhad sirf ye hai ki hamari ek chhoti galati hamare pure jeevan ki eemandari ki seva ko mita deti hai aor nitya ki tarah kuchh kharab logaon men kaee achhe polce valon ko jaleel aur kurban kar diya jata hai......
han sudhar police publice dono me jaroori hai
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