14.1.20

कल्लू का सोशियो-पॉलिटिकल चिंतन : गिरीश बिल्लोरे मुकुल

हमारे कल्लू भाई दिन भर काम धंधे में मशरूफ रहते हैं . सुबह उठते गर्म पानी रखते अपने लिए और दो कप चाय एक खुदके और एक अपनी पत्नी परमेसरी के लिए  बना देते हैं । 
      तब जाकर परमेसरी बिस्तर से बाहर निकलती वह भी ऐसी अंगड़ाई लेते हुए जैसे सपेरे की टोकरी से वह निकलती है  जिसका नाम आमतौर पर हमारे यहां रात में नहीं लेते ।  कल्लू भाई की सुबह  तो यूं ही होती है  । 
      बड़ी मुश्किल परमेसरी रोते झीकते  कलेवा बनाती कल्लू  कलेउ के तौर पर रोटी और अथाना प्याज के साथ निपटा के निकलते और सीधे थोक सब्जी मंडी में जाकर सब्जियां खरीदते फिर.... गली-गली चलाना पड़ता आलू ले लो प्याज ले लो टमाटर ले लो की टेर के साथ  । 
लगभग तीन चार  बजे तक सब्जी बेच के कल्लू भाई ₹500/ -₹600/ तक कमा लेते हैं । 
       उन्हें पेट भरने के लिए इतना पर्याप्त समझ में आता पर हालात तब मुश्किल में आ जाते जब कभी परमेसरी बीमार हो जाती ।  यूं तो वह अक्सर बीमार रहती बीमारी क्या आराम करने की इच्छा हो तो बीमार होने का ऐलान करना परमेसरी की मूल प्रवृत्ति में शामिल है । 
    और इसी के सहारे परमेसरी को  आराम मिल जाता और कल्लू को ओवरटाइम  ।        
कल्लू एक प्रतीक हैं उस निम्न मध्यवर्ग के जिनको सम्पूर्ण विकास का अर्थ नहीं मालूम । अर्थ तो बहुतेरों को भी नहीं मालूम जिनके कांधे पे आज-कल-परसों की ज़वाबदेही है जैसे नेता, मंत्री, संत्री, हीरो हीरोइन, बालक,  किशोर, युवा,  जेएनयू जाधवपुर आदि के छात्र छात्राएं ।
  किसी ने बताया है कि इस साल कल्लू सोच रिया है कि 15 अगस्त नहीं मनाएगा ! उसने टीवी पे देखा लौंडे जिन्ना वाली आज़ादी मांग रए हैं ? गांधी वाली कल्लू के बाप के ज़माने की है वो समझ गया इस बार नई वाली आज़ादी मिलेगी । अरे बच्चे मांग कर रहे हैं तो मिलेगी है न पाठकों ?  
    कोई रैली को विकास मानता है तो कोई आज़ादी को जिन्ना वाली  भी मानने लगे हैं  कल्लू क्या जाने यह दौर भीषण बेवकूफी भरा दौर बस जलाओ पुलिस को गरियाओ सवाल उठाओ ट्रेन फूंको, 
  कल्लू ऐसा नहीं करता वो आंदोलित नहीं वो आदर्श भारतीय है बच्चे के निजी स्कूल की फीस टाइम पर देता है । डाक्टर को फीस देता है भले कर्ज़ा काढ़ के दे देता है । भले ही लोग उसे बेवकूफ समझें 

कल्लू और उसकी बचत
कल्लू 400 से 500 रुपए बचा पाता है । बचत के नाम पर 2500 भी बचाना चाहता है... वो ताक़ि उसका राशिफल सही हो जाए पर न तो बचत होती न ही राशिफ़ल सही निकलता ! 
कल्लू के कुछ दोस्तों ने छपाक कुछ ने देखी तानाजी भी पर उसने नहीं । उसकी यही आदत फ़िज़ूल खर्ची से बचाती है और कमीने मित्र उसे बेवकूफ समझतें हैं । 
       अब बताइए फ़िल्म देखेगा तो उसका पैसा फ़िल्म दिखाने वाले थियेटर मालिक से लेकर प्रोड्यूसर यूनिट में बंट जाएगा । उससे छपाक वाली लक्ष्मी जैसी बेचारियों को क्या लाभ होगा ? कोई चैरिटी थोड़े न कर देगी फिलम कम्पनी बताओ भला ? 
हालांकि कल्लू ने ये सोचके फ़िल्म न देखी हो ऐसा नहीं उसे तो फिल्मी के अर्थशास्त्र अल्फा-बेट भी नहीं मालूम । हमने तो यूं ही लिख दिया ताकि आपको समझ आ जाये 😊 ?
कुल मिलाकर कल्लू की बचत करने की कोशिश की तारीफ करने की कोशिश कर रहा हूँ हमारे मोदी जी बोले थे न मेडिसन-स्कैवर पर हम पर्सनल सैक्टर को विकसित करेंगे ? 
अरे पर्सन अगर बचत करे पाया तो  पूंजी बनेगी, पूंजी बनेगी तो पर्सनल सैक्टर नज़र आएगा पर ये सब भाषण की बातें हैं इन पर अधिक मत सोचो बुद्धू बने रहो कल्लू जैसे । 
और हां आज तो बस इतनी बात जान लो कल्लू फिल्म नहीं देखता है केवल प्रमेसरी और उसका लड़का फ़िल्म देखता है । 

कल्लू का डेमोक्रेसी में योगदान 

           कल्लू मुन्ना चाचा जिसको बोलते उसे वोट दे देता है,उसका एक कारण है ।  हुआ यूँ कि जब से वोट दे रहा है उसका कैंडिडेट हार जाता था । उसे बड़ा दुःख होता , इस दुःख का ज़िक्र उसने मुन्ना चाचा से किया । मुन्ना चाचा ने कहा अबसे हम जिसको कहें उसका ईवी एम बटन दबाना । बस तब से अब तक कल्लू का घोर भरोसा है मुन्नाचाचा पर ।  कल्लू आदर्श निम्न मध्यम वर्गीय भारतीय है ।  जिसे भाषण सुनाई तो देता है पर समझ में नहीं आता ..हाँ उसे पता है जब भी आंदोलन होते हैं तब उसका टैक्स का कुछ रोकड़ जलता है जैसा मुन्ना चाचा बतातें हैं । पर कैसे और क्यों जलता है कल्लू के लिए विचारणीय नहीं । कुल मिला कर कल्लू मस्त लाइफ जी रहा है । उसका बेटा भी सब्जी का ठेला लगाएगा बस और क्या ? कल्लू के बहाने किसको हमने किसको और कितना निपटाया आप खुद समझो मीज़ान लगालो भई ....!

5.1.20

कब होगा अनहक बुलंद, कब राम राज फिर आएगा



हम देखेंगे...!!
अमन ज़वां फिर से होगा, वो वक़्त  कहो कब आयेगा जब
बाज़ीचा-ए-अत्फालों में जब, बम न गिराया जाएगा
कब होगा अनहक बुलंद, कब राम राज फिर आएगा
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे वो दिन, वो दिन जरूर फिर आयेगा .
पेशावर जैसा मंज़र भी , फिर न दोहराया जाएगा
ननकाना जैसा गुरुद्वारों  पर फिर संग न फैंका जाएगा
वादा कर दो तुम हो ज़हीन, शब्दों के जाल न बुनना अब
हाथों में बन्दूक लिए कोई कसाब न आयेगा ..!
आवाम ने जो भी सोचा है,उस पे अंगुली मत अब तू उठा
जब आग लगी हो बस्ती में, तो सिर्फ तू अपना घर न बचा
ख़ल्क़-ए-ख़ुदा का राज यहाँ जहां मैं भी हूँ और तुम भी हो
ये घर जो तेरा अपना है, हमसाये का तारान यहाँ तू न गा ।
गुस्ताख़ परिंदे आते हैं, खेपें बारूदी ले लेकर -
बेपर्दा होतें हैं जब भी तब- बरसाते
अक़्सर पत्थर ।
न ख़ल्क़ वहां, न स्वर्ग वहां, सब बे अक्ली की बातें हैं-
कोशिश तो कर आगे तो बढ़, हर घर ख़ल्क़ हो जाएगा ।।
गिरीश बिल्लोरे मुकुल





31.12.19

मुकदमा : पीयूष बाजपेयी की तीखी व्यंग्यात्मक टिप्पणी

पीयूष बाजपेयी
तेंदुए ने बोला थैंक्स जज साहब
आपने मेरे बाप दादा की प्रॉपर्टी को मेरे और मेरी आने वाली पीढ़ी के लिए वापस कराया। जिस मदन महल, नया गांव, ठाकुर ताल की पहाड़ी पर आज से 40 से 50 साल पहले मेरे दादा दादी, काका काकी, नाना नानी रहा करते थे, जज साहब आपने उसी प्रोपर्टी को वापस दिलाया। अभी तक में यहाँ से वहाँ भटक रहा था। मेरा मालिकाना हक आपने वापस दिलाया, इसके लिए जितना भी धन्यवाद दू आपको कम है। आज में अपनी जगह पर घूम रहा हूं, खेल रहा हु, और सुबह मॉर्निग वाक भी कर लेता हूँ। लोग मुझे देखते है दूरबीन से कि मै पहाड़ पे बैठा हूँ। बड़ा अच्छा लगता है जब ये लोग देखते है मुझे। क्योंकि मैंने भी इनको देखा है मेरी जमीन पे घर बनाते हुए। मेरे दादा दादी ने ये जगह इसलिए नही छोड़ी थी कि वो डर गए थे। बल्कि इसलिए यहाँ से गये कि उनको रहने खाने के लिए इन्ही लोगो ने मोहताज कर दिया। आज समझ मे आया कि मुझमे और नजूल आबादी भूमि में रहने वाले परिवार और मै एक जैसे ही है। हम दोनों के लिए जज साहब आपने ही मालिकाना हक दिलाने के आदेश दिए। लेकिन पता नही क्यों ये भू माफिया के जैसे कुछ लोग अभी भी लगे है पीछे कि इस तेंदुए को भगाओ तो यहाँ से, पता नही क्यों इन लोगो का क्या बुरा किया है। मेरे बच्चे भी है साथ में और पत्नी भी है।। पत्नी तो कई हफ़्तों से कह रही है चलो यहाँ से ये लोग जीने नही देंगे हमकों , पर मै बोला कुछ दिन तो बिताओ पहाड़ में, जैसे वो अमिताभ बच्चन कहते है की कुछ दिन तो बिताओ गुजरात में। खेर ज्यादा दिन नहीं रह पाएंगे। क्योंकि आपने हमारे लिए कोई ऐसा प्रबंध नही किया अपने आदेश में कि हम परिवार के साथ यहाँ रह सके। वैसे जो लोग मुझे जानते है उनको पता है कि 15 से 20 दिन में उनको कोई परेशानी नही होने दी, अच्छे पड़ोसी की तरह ही हम उनके साथ रहे। तो जज साहब एक काम और कर दे ये जमीन हमारी है तो हमारा खसरे में नाम जरूर चढ़ा दिया जाए। वरना कुछ लोग हमारे आस पास बड़े बड़े घर बना लेंगे और ये एसडीएम और तहसीलदार से लेकर नगर निगम वाले नेताओं के कहने पर फिर से पहाड़ को बेच देंगे। आने वाली पीढ़ियों को पता ही नही चलेगा कि कोई तेंदुआ भी यहाँ रहता था। जज साहब आपके एक आदेश ने जीवन बदल दिया है हमारा। कई दशक बाद आया हूं अपने गांव में इसे मेरा गांव मेरा घर ही बना दो।
आपका प्यारा और बेचारा तेंदुआ।

29.12.19

असहमतियाँ यह सिद्ध नहीं करती कि कोई आपका विरोधी ही है

असहमतियाँ यह सिद्ध नहीं करती कि कोई आपका विरोधी ही है
               
जी हां मैं यही सब को समझाता हूं और समझता भी हूं कि अगर कोई मुझसे सहमत है तो वह मेरा विरोधी है ऐसा सोचना गलत है । सामान्यतः ऐसा नहीं हो रहा है.... वैचारिक विपन्नता बौद्धिक दिवालियापन और आत्ममुग्धता का अतिरेक तीन ऐसे मुद्दे हैं जिनकी वजह से मानव संकीर्ण हो जाता है । इन तीनों कारणों से लोग अनुयायी और किसी के भी पिछलग्गू  बन जाते हैं । सबके पिछलग्गू बनने की जरूरत क्या है क्यों हम किसी के भी झंडे के पीछे दौड़ते हैं वास्तव में हमारे पास विचार पुंज की कमी होती है और हम विचार धारा के प्रवाह में कमजोर होने की वजह से दौड़ने लगते हैं । वैचारिक विपन्नता बौद्धिक दिवालियापन आत्ममुग्धता का अतिरेक किसी भी मनुष्य को पथभ्रष्ट करने वाली त्रिवेणी है ।
    जब आप किसी चर्चित लेखक के लेखन में मैं शब्द का प्रयोग देखें तो समझ जाइए कि वह आत्ममुग्ध है आत्ममुग्धता के अतिरेक में संलिप्त है और यह संलिप्तता अधोगामी रास्ते की ओर ले जाती है । क्योंकि जैसे ही आप अपने लेखन और चिंतन में स्वयं को प्रतिष्ठित करने की जुगत भुलाएंगे तो तुरंत एक्सपोज हो जाते हैं । लघु चिंतन की परिणीति स्वरूप जब बड़े-बड़े लेख लिखे जाते हैं तो कुछ लोग उसमें अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाते हैं और जो मौजूद नहीं होता वह लोग कल्याण का भाव । वैचारिक विद्रूप चाहे आत्ममुग्धता से प्रारंभ होती है और मनुष्य को अधोपतन की ओर ले जाती है.... !
    एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को यह कन्वेंस कराने की कोशिश करता है कि उसका मार्ग श्रेष्ठ है...! ऐसा लगता है वह सेल्फ एडवोकेसी के सारे हथकंडे अपना रहा है । यह जरूरी नहीं है कि मैं गांधीजी से शत-प्रतिशत सहमत रहूं यह भी जरूरी नहीं है कि नेशनल मंडेला के प्रति मेरी अंधभक्ति हो तो यह भी जरूरी नहीं है कि लियो टॉलस्टॉय को हूबहू स्वीकार लिया जाए रजनीश यानी आज का ओशो कैसे स्वीकार्य होगा स्वीकार्य तो जग्गी भी नहीं होंगे । जब कोई कार्ल मार्क्स को अपने अंदाज में कोई पोट्रेट करता है .... तो जरूरी नहीं कि आप सभी सहमत हो जाएं !
     क्योंकि देश काल परिस्थिति के अनुसार ही कोई व्यक्ति अनुकूल होता है अतः कालांतर में अस्वीकृति भी संभव है असहमति भी संभव है... इसका यह मतलब नहीं की कार्ल मार्क्स को सिरे से खारिज कर दिया जाए टॉलस्टॉय भी सिरे से खारिज करने योग्य नहीं है नाही महात्मा जी परंतु सदियों से एक व्यवस्था रही है जो हमने स्वयं स्वीकार्य की है कि अगर हम बहुसंख्यक समर्थकों के विरुद्ध जाते हैं तो लोग हमें दुश्मन समझने लगते हैं अब देखिए ना आयातित विचारधारा में बह रहे लोगों ने कितने हथकंडे नहीं अपना लिए पर क्या संभव है कि पूरा विश्व साम्य में में शामिल रहे या मूर्ति पूजा का विरोध मूर्ति पूजक को क्षति पहुंचा कर या मूर्ति को तोड़कर किया जाए आपका अधिकार केवल असहमति तक हो सकता है मूर्ति तोड़कर आप ना तो उसकी आस्था को खत्म कर सकते और ना ही अमूर्त ईस्ट को स्थापित ही कर सकते हैं । दुश्मन यही करता है लेकिन भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था में असहमति को दुश्मनी का पर्याय नहीं माना गया है यहां तक कि अगर हम हजारों साल पुराना सोशल सिस्टम ध्यान से देखें तो हमें लगता है कि हर काल में असहमतियों को अभिव्यक्त किया  गया । परंतु अभिव्यक्ति करने वाले को शत्रु नहीं माना ऐसे हजारों उदाहरण है परंतु समकालीन परिस्थितियों में अधोपतित होती मानसिकता के कारण असहमति को गंभीरता से लिया जा रहा है और असहमति की अभिव्यक्ति करने वाले को शत्रु की संज्ञा दी जा रही है ऐसा नहीं है हमारी आपकी वैचारिक असहमति हमारी शत्रुता की वजह नहीं हो सकती.... फिर हम शत्रुता को मूर्त स्वरूप क्यों देते फिर रहे हैं ?
    इस प्रश्न की जब पतासाज़ी की तो पता चला- " मनुष्य संकीर्णता का शिकार है क्योंकि वह अत्यधिक आत्ममुग्ध है...! भयभीत भी है कि कहीं उसकी पहचान ना खो जाए....!
    और यह सब होता है  वैचारिक विपन्नता के कारण जिसका सीधा रिश्ता है अध्ययन और चिंतन में पारस्परिक सिंक्रोनाइजेशन का अभाव...!
     यह बहुत रहस्यवादी बात नहीं है यह मानसिक स्थिति है अगर स्वयं को पतन से बचाना है तो असहमति को एक तथ्य के रूप में स्वीकार थे चाहिए अहंकार के भाव को नर्मदा की तेज धारा में प्रवाहित कर आइए । असहमति यों को फेस करने की क्षमता को विकसित करना ही होगा ।
        आयातित विचारधारा में वर्ग और वर्ग संघर्ष दो महत्वपूर्ण तथ्य उभर कर आते हैं जो वर्तमान में नैसर्गिक नहीं है वर्तमान में वर्ग निर्मित किए जा रहे हैं ताकि वर्ग संघर्ष कराया जा सके । वर्ग संघर्ष होते ही आप नेतृत्व के शीर्ष पर होंगे । जिसके लिए आपको हल्के और संकीर्ण विचारधारा दे अनुयायियों की जरूरत होगी जैसा हाल में नजर आता है अब जबकि जाति वर्ग संप्रदाय यहां तक कि धर्म भी गौड़ हो चुके हैं तब लोग अपने हित के लिए इतिहास को पुनर्जीवित करते हैं और किसी को विक्टिम बताकर किसी दूसरे से उलझा देते हैं जिसका किसी से कोई लेना देना नहीं । आए दिन हम ब्राह्मणों के खिलाफ वक्तव्य देते हैं एक विचारक ने को भीड़ को इतना उकसाया है कि वह मनुस्मृति की प्रतियां खरीदते हैं और जला देते हैं मनुस्मृति मुद्रक को इससे बहुत लाभ होता है लेकिन देश को देश को वर्ग संघर्ष हासिल होता है परंतु उस कथित विद्वान को नेतृत्व चमकाने का मौका मिल जाता है । यह एक ऐसा उदाहरण है जोकि सर्वदा अशोभनीय और चिंताजनक है । अगर आप ऐसा करेंगे तो उसकी प्रतिक्रिया होगी बहुत दिनों तक इग्नोर नहीं किया जा सकता आखिर दूसरा पक्ष भी बावजूद इसके कि वह संवैधानिक व्यवस्था का अनुयाई है अपने ऊपर लगे आरोप और अनाधिकृत अपमानजनक उल्लेख के खिलाफ कभी ना कभी तो संघर्ष के लिए उतारू होगा । यहां बौद्धिक होने का दावा करने वाले लोगों को चाहिए कि वे कैसे भी हो सामाजिक समरसता को ध्यान में रखें और वर्तमान परिस्थितियों को जितनी सरल है उससे भी सरल सहज और सर्वप्रिय बनाएं परंतु ऐसा नहीं होगा क्योंकि वर्गीकरण कर वर्ग बना देना और युद्ध कराना वैमनस्यता पैदा करना सामान्य जीवन क्रम में शामिल हो गया है । सतर्क रहें वे लोग जो किसी के अंधानुकरण में पागल हुए जा रहे हैं साफ तौर पर बताना जरूरी है कि वे पतन की ओर जा रहे हैं । जीवन का उद्देश्य यह नहीं है कि आप अपनी बात मनवाने के लिए देश को समाज को विश्व को होली में दहन करने की कोशिश करें एक कोशिश की थी मोहम्मद अली जिन्ना ने असहमत हूं कि वे कायदे आजम कहलाए यह खिताब महात्मा ने दिया था इसका अर्थ यह नहीं कि मैं महात्मा को प्रेम नहीं करता महात्मा मेरे लिए उतने ही पूज्य हैं बावजूद इसके कि मैं उनके कुछ प्रयोगों को असफल मानता हूं तो कुछ प्रयोगों को मैं श्रेष्ठ कहता हूं जो महात्मा के हर प्रयोग को श्रेष्ठ मानते हैं वह मुझे अपना दुश्मन समझेंगे लेकिन ऐसा नहीं है अहिंसा का सर्वोत्तम पाठ उनसे ही सीखा है तो जाति धर्म और आर्थिक विषमता के आधार पर मनुष्य का मूल्यांकन करने की कोशिश को रोकने का आधार भी महात्मा गांधी के चिंतन ने मुझे दिया है । गांधीजी कुटीर उद्योगों को श्रेष्ठ मानते थे ओशो ने गांधी जी के इस विचार पर असहमति व्यक्त की तो अब आप तय कर लीजिए कि क्या गांधीजी के विरोध में थे ओशो ऐसा नहीं है जो जब अंकुर होता है वह तब स्थापित करने योग्य होता है ओशो ने यही किया उन्होंने गांधीजी को खारिज नहीं किया परिस्थिति बदलते ही कुछ परिवर्तन आने चाहिए और आए भी भारत ने ओशो के सुविचार को स्वीकारा । यानी हमें कुल मिलाकर मतों विचारों विचारधाराओं धर्मों संस्कारों का यथारूप सम्मान करना चाहिए और उसके अनुपालन को के खिलाफ वर्गीकरण नहीं करना चाहिए वर्गीकरण से वर्ग पैदा होते हैं और वर्ग संघर्ष का कारण बनते हैं क्योंकि बौद्धिक रूप से सब सक्षम है ऐसा संभव कहां ? अस्तु अपना विचार लेख यहीं समाप्त करने की अनुमति दीजिए मुझे मालूम है इतना बड़ा लेख बहुत कम लोग पढ़ेंगे फर्क नहीं पड़ता क्योंकि लिखा उनके लिए गया है जो इसे विस्तारित कर सकते हैं ।
सर्वे जना सुखिनो भवंतु
 ॐ राम कृष्ण हरी

25.12.19

पुराने किले का जालिम सिंह : आलोक पुराणिक

इस पोस्ट के लेखक व्यंगकार आलोक पौराणिक जी हैं । जिनसे पूछे बिना हमने अपने ब्लॉग पर इसे छाप लिया... जिसे मैटर लिफ्टिंग कहतें है ... आभार आलोक जी ☺️☺️☺️☺️ 

टीवी चैनल पर खबर थी-पवन जल्लाद आनेवाला है तिहाड़ जेल में फांसी के लिए।
टीवी के एक वरिष्ठ मित्र ने आपत्ति व्यक्त की है-बताइये जल्लाद का नाम कुछ ऐसा होना चाहिए जोरावर सिंह जल्लाद आनेवाला है या जुझार सिंह, प्रचंड सिंह जल्लाद आनेवाला है।
जल्लाद का नाम पवन प्रदीप जैसा हो तो टीवी न्यूज ना बनती।
न्यूज दो तरह की होती है, एक होती है न्यूज और दूसरी होती है टीवी न्यूज।
टीवी न्यूज ड्रामा मांगती है, अनुप्रास अलंकार मांगती है। जुझार सिंह जल्दी पहुंचकर जल्दी देगा फांसी-इस शीर्षक में कुछ अनुप्रास अलंकार बनता है। ड्रामा ना हो तो टीवी न्यूज ना बनती।
कुछ टीवी चैनलवाले कुछ जल्लादों को पकड़ लाये हैं-जो रस्सी से कुछ कारगुजारी करते दिख रहे हैं। टीवी रिपोर्टर बता रहा है कि ऐसे बनती है रस्सी, जो फांसी के काम में आयेगी।
जब कई टीवी चैनल कई जल्लादों को फांसी स्टार बना चुके थे, तो बाकी चैनलों को होश आया कि जल्लाद तो सारे ही पहले ही पकड़े जा चुके हैं  चैनलों द्वारा। मैंने निहायत बेवकूफाना सुझाव दिया-तो एक काम करो, नये बच्चों को पकड़ लो और बता दो ये प्रशिक्षु जल्लाद हैं, इंटर्न जल्लाद है, भविष्य के जल्लाद हैं।

एक मासूम रिपोर्टर ने सवाल  पूछ लिया-ये बच्चे बड़े होकर जल्लाद ना बने, तो हम झूठे ना बनेंगे।

सब हंसने लगे। झूठे दिखेंगे, झूठे दिखेंगे-इस  टाइप की चिंताएं अगर टीवी पत्रकार करने लगें, तो फिर हो गया काम। फिर तो किसी भी काम ना रहेंगे टीवी  पत्रकार। पवन जल्लाद का नाम बदलकर टीवी चैनल कर सकते हैं-जुझार सिंह जल्लाद या प्रचंड प्रताप जल्लाद, टीवी न्यूज की पहली जरुरत यह है कि उसे टीवी के हिसाब से फिट होना चाहिए। टीवी न्यूज में भले ही न्यूज बचे या ना बचे, टीवी का ड्रामा जरुरी बचना  चाहिए।

जालिम सिंह जल्लाद कैसा नाम रहेगा-इसमें अनुप्रास अलंकार भी है-एक नया रिपोर्टर पूछ रहा है।

टीवी चैनल के चीफ ने घोषित किया है-इस जालिम सिंह वाले रिपोर्टर में टीवी की समझ है। प्रदीप जल्लाद को जो जालिम सिंह जल्लाद बना दे, वही टीवी जानता है। न्यूज जानना टीवी न्यूज की शर्त नहीं है।

नाग से कटवाकर भी मारा जा सकता है किसी मुजरिम को-इस विषय पर टीवी डिबेट चल रही है किसी टीवी चैनल पर। फांसी संवेदनशील विषय है, इसके कुछ नियम कायदे हैं। नाग या नागिन से कटवा कर मारा जा सकता है या नहीं, यह विषय संसद, अदालत में विमर्श का है। पर नहीं, इस पर नाग विशेषज्ञ, एक तांत्रिक और एक हास्य कवि विमर्श कर रहे हैं। हास्य कवि अब कई गंभीर विमर्शों में रखे जाते हैं, लाइट टच बना रहता है। हास्य कवि बता रहा है कि यूं भी कर  सकते हैं-फांसी की सजा पाये बंदे को प्याज के  भाव पूछने भेज सकते हैं। वो भाव  सुनकर ही मर जायेगा। प्याज के भाव संवेदनशील विषय हैं, फांसी की सजा संवेदनशील विषय है। पर टीवी न्यूज पर सब कुछ ड्रामा होता है।

जालिम सिंह जल्लाद आ रहा है-इतने भर से ड्रामा नहीं बनता है। यूं हेडिंग लगाओ-काली पहाड़ी के पुराने किले से जालिम सिंह  जल्लाद आ रहा है-एक टीवी चैनल चीफ ने सुझाव दिया है।

मैंने कहा कि यूं लगाओ ना –हजार साल  पुराने किले से पांच सौ साल का जल्लाद आ रहा है।

एक नये रिपोर्टर ने कहा-पर हम झूठे नहीं दिखेंगे क्या।

टीवी चैनल चीफ ने अंतिम ज्ञान दिया  है-टीवी न्यूज में हम सच झूठ की इतनी फिक्र करने लगे, फिर तो हम बेरोजगार हो जायेंगे।

23.12.19

गिरीश बिल्लौरे के दोहे

दोहे...!!
ऐसा क्या है लिख दिया, कागज में इस बार
बिन दीवाली रंग गई- हर घर की दीवार ।।
जब जब हमने प्रेम का, परचम लिया उठाए
तब तब तुम थे गांव में, होली रहे जलाए।
मैं क्यों धरम बचाऊँगा, धरम कहां कमजोर
मुझको तो लगता यही कि- चोर मचाते शोर ।।
मरा कबीरा चीख के- जग को था समझाय
पर मूढन की नसल को, बात समझ न आए ।।
सरग नरक सब झूठ है, लावण्या न हूर ।
खाक़-राख कित जात ह्वै, सोच ज़रा लँगूर ।।
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

17.12.19

सुभाष घई जी बदलाव चाहते हैं शिक्षा प्रणाली में

Renowned film maker director and producer Subhash Ghai expressed his thought in Jabalpur on the occasion of Osho Mahotsav held in Jabalpur 11 to 13th of December 2019 , Mr Ghai supported the idea of Prashant kouraw who is the owner of Vivekanand wisdom School . Video received from Dr Prashant kouraw

सुभाष घई ने अपने जबलपुर प्रवास के दौरान कहा कि क्रिएटिविटी और स्पिरिचुअलिटी बुनियादी शिक्षा में शामिल की जानी चाहिए . उनका मानना है कि 200 साल पुरानी शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है इसे अभी तक कुछ हासिल नहीं हुआ और अगर कुछ हासिल किया जाना है तो पाठ्यक्रम में बेचारे बिंदु सम्मिलित किए जाने चाहिए जो आध्यात्मिकता और रचनात्मकता के नजदीक हैं । यह तो सच है कि इतनी श्री घई ने उन तमाम मुद्दों को शामिल कर लिया है जो हमारी शिक्षा प्रणाली में नकारात्मक रिजल्ट दे रहे हैं । एकांगी सा हो गया है पाठ्यक्रम अभिभावक इसे रिलाइज करते ही होंगे । पर अधिकांश अभिभावक शिक्षाविद विचारक चिंतक यहां तक कि लेखक और कवि भी इसको लेकर बहुत गंभीर नजर नहीं आते । डॉ प्रशांत कौरव के के स्कूल पर चर्चा करते हुए श्री घई पाठ्यक्रम में आमूलचूल परिवर्तन की उम्मीद रखते हैं । बेसिक शिक्षा प्रणाली में आध्यात्मिकता और सृजनात्मकता का सम्मिश्रण किया जाना जरूरी है इसे हम सब मानते हैं भारत के नव निर्माण के लिए फिल्मों की महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए । इस पोस्ट में मैं यह पूछना चाहूंगा सुभाष घई जी से कि वे इस दिशा में अपनी फिल्मों के जरिए क्या दिखा सकते हैं ? अगर यह सिर्फ बातें हैं तो इन बातों का क्या ?
सुभाष घई जी को जाना हमने अमिताभ बच्चन के जरिए अमिताभ जो जंजीर के बाद एक यूथ इंकलाब का आईकॉनिक चेहरा बन गए थे... सुभाष जी ने एंग्री यंग मैन को जन्म दिया पर उसके बाद के निर्माताओं ने 3इडियट माउंटेन मैन आदि आदि कई सारी फिल्में देकर समाज को बहुत से रास्ते बताएं । आज का युवा किसी भी नाम के पीछे नहीं भाग रहा चेतन भगत से संवाद करता है तो इतिहास जानना चाहता है । वह अमीश त्रिपाठी के जरिए भारत की सांस्कृतिक सामाजिक सभ्यता को समझने की कोशिश करता है । वह डेमोक्रेटिक सिस्टम का प्रबल समर्थक इस बात से शायद श्री घई साहब अनभिज्ञ हैं । मध्यमवर्ग भारत के परिदृश्य को एकदम बदल दिया है । विदेशों में जाकर भारत के लिए फॉरेन करेंसी भेजने वाला एक बड़ा तबका मध्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है । भारत का 70% मध्यमवर्ग आध्यात्मिक एवं सृजनात्मक नहीं है ऐसा हो ही नहीं सकता यह मेरे अपने विचार हैं सुभाष जी ने जो देखा होगा जो सुना होगा और जो समझा होगा उससे अलग सोच रहा हूं । गौरव की बात है कि वे जबलपुर आए ओशो महोत्सव में चार चांद लगाए और शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन की बात की बधाई देना चाहूंगा इस आह्वान के साथ कि वे भी अपनी फिल्मों में तब्दीलियां जाए शायद यह बात उन तक पहुंच पाती है पता नहीं परंतु मैं कुछ ऐसी शख्सियत को यह तय करना चाहता हूं जिन्होंने इनसे संपर्क किया है या अभी इनके संपर्क में हैं


मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
जन्म- 29नवंबर 1963 सालिचौका नरसिंहपुर म०प्र० में। शिक्षा- एम० कॉम०, एल एल बी छात्रसंघ मे विभिन्न पदों पर रहकर छात्रों के बीच सांस्कृतिक साहित्यिक आंदोलन को बढ़ावा मिला और वादविवाद प्रतियोगिताओं में सक्रियता व सफलता प्राप्त की। संस्कार शिक्षा के दौर मे सान्निध्य मिला स्व हरिशंकर परसाई, प्रो हनुमान वर्मा, प्रो हरिकृष्ण त्रिपाठी, प्रो अनिल जैन व प्रो अनिल धगट जैसे लोगों का। गीत कविता गद्य और कहानी विधाओं में लेखन तथा पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन। म०प्र० लेखक संघ मिलन कहानीमंच से संबद्ध। मेलोडी ऑफ लाइफ़ का संपादन, नर्मदा अमृतवाणी, बावरे फ़कीरा, लाडो-मेरी-लाडो, (ऑडियो- कैसेट व सी डी), महिला सशक्तिकरण गीत लाड़ो पलकें झुकाना नहीं आडियो-विजुअल सीडी का प्रकाशन सम्प्रति : संचालक, (सहायक-संचालक स्तर ) बालभवन जबलपुर

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