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30.10.08

"चिंता ही नहीं चिंतन भी : हालत-ए-महाराष्ट्र "

काफ़ी हाउस में मित्रों के बीच हुई चर्चा के संपादित अंश आपसे शेयर करना चाहता हूँ
" धर्मदेव", और राहुल राज , के मामलों के बीच झूलता है एक सवाल की क्या मेरा देश भी कबीलियाई संरचना की ,
ओर जाने तैयार है..........? यदि हाँ तो इसकी सीधी जिम्मेदारी किसकी है । कल ही मित्र मंडली के साथ हुई चर्चा में
में साफ़ हुआ की हरेक उस विषय को सियासत से दूर दूर रखना अब ज़रूरी हो गया है जो पूर्णत: सामाजिक हों ....!
यानी सियासत ओर सियासियों को सामाजिक बिन्दुओं से दूर ही रखना ज़रूरी है ताकि कोई भी लालसा सामाजिक-संरचना को असामाजिक स्वरुप न दे सके । इस के लिए ज़रूरी है यानी ऐसे
इन जैसे ,लोगो को जो अदूरदर्शी हैं को सामाजिक सरोकारों से परे रखना ही होगा। समाज विज्ञानी विश्व विराट के उत्कर्ष की सोच लेकर अपना अध्ययन सार साहित्य को देता है जबकि राजनीतिक पृष्ठ पर ऐसा कदापि नहीं है । सभी खजानो को लूटने इन हथकंडों की आज़माइश पे लगातार आमादा होते हैं । ओशो की सोच ,इस समय समयानुकूल ही है:-" लोग भय में जी रहे हैं, नफरत में जी रहे हैं, आनंद में नहीं। अगर हम मनुष्य के मन का तहखाना साफ कर सकें... और उसे किया जा सकता है।
ध्यान रहे, आतंकवाद बमों में नहीं हैं, किसी के हाथों में नहीं है, वह तुम्हारे अवचेतन में है। यदि इसका उपाय नहीं किया गया तो हालात बदतर से बदतर होते जाएँगे। और लगता है कि सब तरह के अंधे लोगों के हाथों में बम हैं। और वे अंधाधुंध फेंक रहे हैं। हवाई जहाजों में, बसों और कारों में, अजनबियों के बीच... अचानक कोई आकर तुम पर बंदूक दाग देगा। और तुमने उसका कुछ बिगाड़ा नहीं था।"
गंभीरता से देखिए सत्य के दर्शन सहज ही हो जाएंगे आतंक किसी भी रूप में हो देश के लिए ही नहीं समूची मानवता के लिए "शोक का कारण है"
मानवता का विकास करने के लिए किसी पंथ,जाति,भाषा,धर्म,क्षेत्र,वर्ग की ही प्रगति चाहने वाला कतई उपयोगी नहीं है। उसे उसके अधिकारों से वंचित कर देने में कोई बुराई भी नहीं है।
जिस देश में ऐसे तत्व सर्वोच्च संरक्षण दाता मानें जाते हों जो समूह ओर स्थान विशेष के हिता चिन्तक हों वो देश कभी सच्चे विकास को पा न सकेगा ये तय शुदा है।
मित्र चर्चा में एक बात और खुलकर सामने आयी जिसमें मित्र ये कहते पाए गए कि :"प्रजातंत्र के स्वरुप पर पुनर्विचार हो " इस सम्बन्ध में आगे कुछ कहना ठीक नहीं कहते हुए एक मित्र ने कहा -'भई, हमने कहा न अधिकारों से वंचित कर दिया जावे , ?
एक दीर्घ मौन को तोड़ने काफी हाउस का बैरा बिल लेकर आ गया भुगतान के साथ चर्चा पर विराम लगना तय था सो लग भी गया...!

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