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29.6.11

दो कविताएं : तारीफ़ / बैसाखियां

तारीफ़ 
तुम जो कल तक
आंकते थे कम
आज भी आंको
उतने ही नंबर दो मुझे जितने देते आए हो
मित्र ..?
मत मेरे यश को सराहो
मुझे याद है तुम्हारे
पीठ पीछे कहे विद्रूप स्वरों के शूल
जो चुभे थे
जी हाँ वे शूल जो विष बुझे थे
मित्र
अब सुबह हो चुकी है
तुम्हारी वज़ह से
सच तुम्हारी वज़ह से ही
मैंने बदला था पथ
जहां था ईश्वर
बांह पसारे मुझे सहारा दे रहा था
उसे ने ये ऊंचाई दी है मुझे
काश तुम न होते मुझे
कम आंकने वाले
तो आज मैं यहाँ न होता !!

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बैसाखियां.....!!


मुझे भरोसा है

अपनी बैसाखियों पर 
तुम से ज़्यादा
यक़ीन  करो...
वे झूठ नहीं बोलतीं
ये पीछे से प्रहार भी नहीं करतीं
ये बस साथ देतीं हैं
और तुम
अक्सर 
उगलते हो ज़हर 
करते हो प्रहार
पीठ के पीछे से
फ़ैंक देते हो
फ़र्श पर 
उसे और चिकना करने 
तेल 
ताक़ि मैं गिर सकूं !!

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