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15.1.22

कहानी : आचार्यं चन्द्रद्मोहन जैन की लेखक श्री सुरेंद्र दुबे

          लेखक : श्री सुरेन्द्र दुबे 
ओशो की समालोचना के मुख्य बिन्दु कौन से हैं? पहला-ओशो। दूसरा- ओशो की देशना। तीसरा-ओशो कम्यून। चौथा-ओशो के अनुयायी। ओशो स्वयं के विरोधाभासी वक्तव्यों और आचरण की वजह से आलोचना के केन्द्र-बिन्दु हैं। वे एक तरफ अपने पुनर्जन्म का किस्सा बयां करते हुए विवाहित आदर्श दम्पति के यहाँ नया जन्म लेने का रहस्य खोलते हैं, वहीं दूसरी तरफ अपनी देशना में विवाह और परिवार व्यवस्था की कटु निंदा करते हैं। साथ ही ध्यान-उत्सव केन्द्रित उन्मुक्त-प्रेमालाप स्थली अर्थात कम्यून-सिस्टम की वकालत करते हैं। जहाँ सब सबकी और सब सबके होते हैं। किसी भी पल मेल-मुलाकात का स्तर आध्यात्म के शिखर से स्खलित करके, साधक को चौपाया बना सकता है। तुर्रा ये कि इस तरह दमनविहीन तरीके से कामऊर्जा को रामऊर्जा में रूपांतरित किया जा सकता है। मेरी दृष्टि में ओशो का पहले तो आदर्श दम्पति की संतान होने और फिर समाज को गलत राह पर ले जाने जैसा अनुचित रवैया सर्वथा दोमुखी व विरोधाभासी होने के कारण आलोचनीय है। इसी तरह बाल्यकाल से वे धर्मों के पाखंड की पोल खोलने वाला व्यवहार करते रहे और अंतत: भली-भाँति जानते-बूझते हुए स्वयं वैसी ही बुराइयों वाले एक अराजक धर्म के भगवान बन गए। एक ऐसा धर्म जिसमें परम्परागत धर्मों जैसी कई अनुचित कुरीतियों ने बरबस ही सिर उठा लिया। इस तरह मैं धार्मिकता सिखाता हूँ, धर्म नहीं, वाला आदर्श स्वत: धराशायी हो गया। अब प्रश्न ये उठता है कि वे जन्मजात रुप से स्वयं के अशोभनीय व्यवहार की आदत को विद्रोही-चेतना निरुपित कर आखिर समाज को क्या संदेश देना चाहते थे? ज़रा ईमानदारी से सोचिए कि जो बच्चे गलती से भी उनकी तथाकथित 'स्वर्णिम बचपन' (ग्लिम्प्सेस ऑफ़ गोल्डन चाइल्डहुड) शीर्षक संस्मरण-पुस्तक पढ़ लेंगे, उन पर कितना बुरा असर पड़ सकता है? क्या आप अपने बच्चों की हद दर्जे की बदतमीजी-बदमिज़ाज़ी बर्दाश्त कर पाएंगे? यदि आप एक शिक्षक हैं, और रजनीश जैसा विद्यार्थी आपकी कक्षा में अराजक व्यवहार करे तो आपको कैसा महसूस होगा? जब वो अपने संस्मरण में स्कूल और टीचर्स की अपमानजनक छवि प्रस्तुत करेगा, तो क्या आपको पीड़ा नहीं होगी? यदि आप एक पिता हैं, और आपका बेटा घर की दुकान में कभी हाथ न बंटाए तो क्या आपको दुख नहीं होगा? जरा बताइए, यदि किसी कॉलेज के प्रोफेसर की भरी क्लास में तर्क-वितर्क-कुतर्क के जरिए भद्द पीट दी जाए, तो उसे कितना अपमान महसूस होगा? यह सब युवक रजनीश के गौरवपूर्ण कृत्य थे, जो बड़े गर्व से बोले, लिखे फिर छापे गए। अनुयायी सुन-पढ़कर फूले नहीं समाते कि हमारे सद्गुरु भगवान बचपन-जवानी में कितने रिबेलियस थे। उनके परिजनों को क्रान्तिदृष्टा पूत के पांव पालने में ही नज़र आ गए थे। बहरहाल, जब वे आचार्य रजनीश बने तो दर्शन का पाठ्यक्रम पूर्ण कराने से उनको क्या लेना-देना, वे तो आगामी योजना अंतर्गत प्रवचनों की पूर्व तैयारी के लिए बेचारे विद्यार्थियों को धाराप्रवाह युगकबीर की वाणी सुना रहे थे। इससे पहले अखबार की जिम्मेदारी मिली तो प्रथम पृष्ठ पर हार्ड न्यूज से उन्हें क्या, वे तो सॉफ़्ट न्यूज छापने पर आमादा थे। जिस तारण तरण परम्परा के परिवार में जन्म लिया, उन्हीं संत की जयंती में लेक्चर के लिए बुलाया, तो जो मुँह में आया बोलने लगे। 'स्वधर्मे निधन्ं श्रेय:, परधर्मो भयावहा', ये सूत्र तक ध्यान न रहा। जब जबलपुर से उड़ान भरी तो अपने उत्थान में नींव की ईंट बनने वालों की उपेक्षा में बिल्कुल समय न लगाया। मुम्बई से पूना तक सबसे अधिक साथ निभाने वाली निजी सचिव माँ योग लक्ष्मी को प्रतिबंधित करते समय करुणा-मुदिता-मैत्री और कृतज्ञता-आभार जैसे शब्द विस्मृत हो गए। उसे अमेरिका में हाशिये में रखकर उपेक्षा का इनाम दिया। कुछ ऐसा ही प्रसाद रजनीशपुरम की आधारशिला माँ आनंद शीला को भी मिला, जो बद अच्छा-बदनाम बुरा की कहावत बनकर अभिशप्त हो गई। फिर भी यह उनकी सदाशयता ही कही जाएगी कि उन्होंने 'डोंट किल हिम' जैसी किताब रुपी करुणा छलकाकर उस कहावत को सच कर दिया कि माता कभी कुमाता नहीं होती। इसी तरह जिस स्वामी विनोद भारती ने सुपर स्टार की सम्भावना त्यागकर तुम्हारी शरण गहि उसे भी जरा से आज्ञापालन न कर पाने जैसे दोष के कारण पतला टीन कहकर प्रतिबंधित करने में देर न लगाई। अपने यूटोपिया को साकार करने के लिए मुम्बई से ही रेचन-कैथोर्सिस, एनकाउन्टर ग्रुप की मंहगी थैरपी जैसे धन-उगाही के स्रोत निकाले। पूना में प्रवचन की फीस तक ली जाने लगी। साहित्य भी आम आदमी की हैसियत से उंचे दामों में बेचा जाने लगा। कुल मिलकर आभिजात्य वर्ग के भगवान को परवान चढ़ाने की दिशा में पूर्ण मनोयोग से काम हुआ। देश के प्रधानमन्त्री का एतिहासिक माखौल उडाया गया। इतना ही नहीं इस हरकत पर गर्व भी किया गया। भले ही मूलत: इसी वजह से भारत से अमेरिका प्रस्थान की स्थिति निर्मित हुई, पर बहाना इलाज का रचा गया। ओरेगन, अमेरिका में रजनीशपुरम जैसा सेंट्रल एसी नगर साकार हुआ, 93 रॉल्स रॉयस जैसी लग्जरी कारों का काफिला खड़ा  हुआ। किन्तु सिर्फ चार दिन की चान्दनी फिर अंधेरी रात। आशय ये कि चार साल में रजनीशपुरम जैसा यूटोपियाई संसार ठीक वैसे ही तहस-नहस हो गया, जैसे पिछले दिनों भारत के राम नाम की मर्यादा न रखने वाले दाढ़ी वालों का राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय धर्म-साम्राज्य नेस्तनाबूत हुआ। अमेरिका से बेदखली के बाद दुनिया का कोई देश ओशो जैसी विद्रोही-आफत मोल लेने तैयार न हुआ। लिहाज़ा, विश्वभ्रमण के बाद पुनर्मूषको भव की स्थिति बनी और एक बार फिर बड़े दिल वाले अतुल्य-भारत का पूना शहर अन्तिम शरणगाह बना। अब मृत्यु हुई तो कभी अमेरिका में जेलयात्रा के दौरान थीलियम नामक स्लो पाइजन और रेडियो-एक्टिव विकिरण वाले पलंग में लिटाने की तोहमत लगाई गई, तो कभी सामान्य मृत्यु का दावा हुआ। हत्या की साजिश के किस्से भी हवा में उछले। बहरहाल, पुराने उसूलों की नई नाव लेकर, जहाँ से चले थे वहीं लौट आए की तर्ज पर ओशो के देहमुक्त होते ही उनके स्वयम्भू कर्ताधर्ताओं और देश-दुनिया में फैले आश्रम संचालक-अनुयायियों  की भूमिका तेज हो गई। नए-पुराने संन्यासी साधन की तरह इस्तेमाल होने लगे। ओशो प्रोडक्ट की तरह बेचे जाने लगे। उनकी दुकानदारी को पंख लग गए। ओशो ने 59 साल की कुल आयु में से 35 साल जो बोल-बचन दिए वे 5 हजार घन्टे की रिकॉर्डिंग से ऑडियो-वीडियो के रुप में कनवर्ट कर किराए पर चलाए गए। बेचे गए। 650 से अधिक लिपिबद्ध पुस्तकें सजाकर ओशो लायब्रेरियों का सम्मोहक संसार रचा गया। मरूंन चोला और ओशो की फोटो वाली गुरुडम की प्रतीक माला नव-संन्यास को गति देने का हथियार पूर्ववत बनी रही। जोरबा दि बुद्धा अर्थात नया मनुष्य बनाने की योजना फिलहाल प्रगतिशील है। प्लेटिनम जैसी सबसे मंहगी धातु की घड़ी और टोपे में हीरों की लड़ी से विभूषित चोंगाधारी ओशो की तस्वीरें खूब बिक रही हैं। उन्हें सबसे आधुनिक भगवान मानकर दिलो-जान लुटाने वाले भक्त वाट्सएप ग्रुप्स में सक्रिय रहते हैं। उन्हें ओशो की समालोचना से एलर्जी है, क्योंकि वे ओशो-स्तुति में तल्लीन हैं। हंसिबा खेलिबा, धरिबा ध्यानम : उत्सव आमार जाति, आनंद आमार गोत्र जैसे जुमले और कहीं की ईंट, कहीं का रोढ़ा जैसा ओशो साहित्य उन्हें मौलिक देशना प्रतीत होता है। दिल को बहलाने को गालिब ये ख्याल अच्छा है। प्लेटिनम की घड़ी पर अर्ज किया है-"कमबख्त घड़ी की सुइयों की तरह वो चले तो बहुत, लेकिन पहुंचे कहीं नहीं।" और "बंधी हुई थी कलाई पे घड़ी, पकड़ में एक भी लम्हा नहीं आया।" इस तरह जबलपुर जैसी अध्यात्म की महाभूमि पर 21 मार्च 1953 को बुद्धत्व को उपलब्ध हुए आचार्य रजनीश जगत के ओशो बनकर भी  स्वयं और अनुयायियों की महाभूलों की सूली चढ़ गए। जिद्दू कृष्णमूर्ति के बाद एक महान-दर्शन की सम्भावना त्रासदी की दुखद भेंट चढ़ गई। बहरहाल, अब 21 वीं सदी 'सुदेशना' की सदी है, जो भारत का प्रतिनिधि आध्यात्मिक स्वर है। यह ओशो से आगे की बात है, जिसका आधार मेरे भारत महान की समग्र सात्विक आध्यात्मिक ऊर्जा है। आप इससे जुडिए। स्वागतम।                     #निरंतर जारी :

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