2.4.22

तड़पती देह के मेले

            (गूगल से साभार)
*तड़पती देह के मेले*
फिसलता है पसीना सर से
भिगो देता है जिस्मों को
शहर,कस्बे, बस्ती में,
लगा करतें है तब अक्सर
तड़पती देह के मेले
तड़पती देह के मेले ।
दरकती की भू ने समझाया
तल में जल है अब कमतर
कि चेहरे और धरती को
अफजल की जरूरत है।
धरा पर घास, पौधे पेड़ लगाओ
रोक लो मीत अब पानी ।
न जी पाएंगे हम और तुम
हुआ न हमने जो पानी ।।
गगनचुंबी इमारत पर
सतपुड़ा के जंगलों में
मूक पंछी और पशुओं को बचा लो
संतुलन प्रकृति का बचा लो।
न कहना फिर कभी अक्सर
मरुस्थल में लगा करते हैं
तड़पती देह के मेले
तड़पती देह के मेले ।
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

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