वामन मेशराम
जाति व्यवस्था कब से आई क्यों आई इसे समझने के लिए हमें समझना होगा कि हम एक तरह की कबीलों में रहने की मानसिकता के आदिकाल से ही शिकार हैं। और यह मानसिक स्थिति हमसे अलग नहीं हो पाती है।
भारत में इसे जाति व्यवस्था कह सकते हैं तो यूरोप में इसे रंग भी और नस्लभेद की व्यवस्था के रूप में अंगीकार किया है। उधर अब्राहिमिक संप्रदायों ने तो तीन खातों में बांट दिया है । इतने से ही काम नहीं चला और गंभीर वर्गीकरण प्रारंभ कर दिए गए किसी रिपोर्ट में देख रहा था कि अकेले इस्लाम में 70 से अधिक सैक्ट बन गए हैं । सनातनीयों ने भी शैव वैष्णव शाक्त आदि के रूप में समाज को व्यक्त कर दिया था।समाज के विकास के साथ असहमतियाँ पूरे अधिकार के साथ विकसित होती चली गईं । जाति व्यवस्था का कोई मौलिक आधार तो है नहीं भारतीय समाज में जाति व्यवस्था का प्रवेश होना कबीले वाली मानसिकता का सर्वोच्च उदाहरण है।
वामन मेश्राम जैसे लोग जिसका फायदा उठाकर एक विशेष समूह को टारगेट कर की केवल सामाजिक भ्रम पैदा कर रहे हैं। वास्तव में उनके पास ऐसा कोई आधार भारतीय संविधान के लागू होने के बाद शेष तो नहीं है। वर्तमान परिस्थितियों में भी वैसी नहीं है जैसा उनके द्वारा परिभाषित किया जा रहा है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था के वर्तमान स्वरूप को देखने से स्पष्ट होता है कि-"अब भारत में जातिगत संरक्षण जैसे मसलों पर मजमा लगाना अर्थहीन और राष्ट्रीय एकात्मता के भाव को तार तार करना है...!"
अब तो वामन मेश्राम और बामसेफ का नैरेटिव उतना ही अप्रासंगिक है जितना ब्रिटिश इंडिया के समय एवं उसके पहले हुआ करता था। अब बाकायदा सामुदायिक समरसता कीजिए न केवल वातावरण तैयार है अगर वातावरण का असर ना हुआ तो कठोर कानूनी प्रावधानों को चाहे जितना से कोई भी उपयोग में ला सकता है।
हां यहां एक खास बिंदु उभर कर आता है जिस से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि-"अब मुद्दा विहीन बामसेफ के पास केवल व्यवस्था को डराने धमकाने के अलावा अपने लोगों को उकसाने का कार्य बाकी रह गया है !"
हाल के दिनों में 10 या 11 साल के बच्चे ने एक भाषण प्रतियोगिता में कहा था कि-"आज भी भारत में दलित महिलाओं का शोषण सर्वाधिक हो रहा है..!" मैं जानता हूं कि उस बच्चे का मस्तिष्क इतना तो पता भी नहीं चल सकता । उस बच्चे के माता पिता को भी जानता हूं जो एक खास है एजेंडे को लेकर हर जगह मुखर हो जाते हैं । बच्चे के भाषण में लैगेसी साफ नजर आ रही थी । हम सब जानते हैं कि कमजोर का शोषण करना शोषक की मूल प्रवृत्ति है। हम देखते हैं कि जहां तक महिलाओं के अधिकारों दिव्यांगों के अधिकारों या किन्नरों के अधिकारों की बात होती है तब हमारा चिंतन खो जाता है। यह एक मानसिकता है इसे बदलना होगा। वर्तमान परिस्थितियों में ना तो वामन मेश्राम प्रासंगिक हैं ना ही वे लोग ही प्रासंगिक हैं जो वर्गीकरण करते हैं और वर्ग संघर्ष कराने या उसे जीवित रखने पर विश्वास करते हैं। किंतु डेमोक्रेटिक सिस्टम में ऐसी कोई सेफ्टी गार्ड नहीं लगे हैं जो यह तय कर दें कि ऐसे अप्रासंगिक विषयों पर जहर न उगल सकें ।
यूट्यूब पर एक वीडियो देख रहा था एक सिख वक्ता ने बामसेफ की मीटिंग में ना केवल राम की परिभाषा को बदल दिया बल्कि गुरु तेग बहादुर के बलिदान को भी नकारते हुए ब्राह्मण वर्ग को यह तक कह दिया कि यदि सांप और ब्राह्मण एक साथ नजर आ जाए तो पहले ब्राम्हण को मारना चाहिए।
यूट्यूब धड़ल्ले से ऐसे वक्तव्य को जारी रखता है जो न केवल हिंसा बल्कि सामाजिक समरसता की धज्जियां उड़ाते हैं। हाल के दिनों में सत्य सनातन के एक चैनल को यूट्यूब में प्रतिबंधित कर दिया । इस चैनल पर कभी भी हमने हिंसा को प्रमोट करते हुए किसी को भी नहीं देखा सुना । जबकि बामसेफ जैसी संस्थाओं के चैनल निर्भीकता के साथ के अप्रासंगिक एवं दुर्दांत कंटेंट प्रस्तुत करते हैं। विश्व गुरु बनने की राह में अगर यही जरूरी है तो फिर सपना देखते रहिए ।
जाति व्यवस्था कब से आई क्यों आई इसे समझने के लिए हमें समझना होगा कि हम एक तरह की कबीलों में रहने की मानसिकता के आदिकाल से ही शिकार हैं। और यह मानसिक स्थिति हमसे अलग नहीं हो पाती है।
भारत में इसे जाति व्यवस्था कह सकते हैं तो यूरोप में इसे रंग भी और नस्लभेद की व्यवस्था के रूप में अंगीकार किया है। उधर अब्राहिमिक संप्रदायों ने तो तीन खातों में बांट दिया है । इतने से ही काम नहीं चला और गंभीर वर्गीकरण प्रारंभ कर दिए गए किसी रिपोर्ट में देख रहा था कि अकेले इस्लाम में 70 से अधिक सैक्ट बन गए हैं । सनातनीयों ने भी शैव वैष्णव शाक्त आदि के रूप में समाज को व्यक्त कर दिया था।समाज के विकास के साथ असहमतियाँ पूरे अधिकार के साथ विकसित होती चली गईं । जाति व्यवस्था का कोई मौलिक आधार तो है नहीं भारतीय समाज में जाति व्यवस्था का प्रवेश होना कबीले वाली मानसिकता का सर्वोच्च उदाहरण है।
वामन मेश्राम जैसे लोग जिसका फायदा उठाकर एक विशेष समूह को टारगेट कर की केवल सामाजिक भ्रम पैदा कर रहे हैं। वास्तव में उनके पास ऐसा कोई आधार भारतीय संविधान के लागू होने के बाद शेष तो नहीं है। वर्तमान परिस्थितियों में भी वैसी नहीं है जैसा उनके द्वारा परिभाषित किया जा रहा है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था के वर्तमान स्वरूप को देखने से स्पष्ट होता है कि-"अब भारत में जातिगत संरक्षण जैसे मसलों पर मजमा लगाना अर्थहीन और राष्ट्रीय एकात्मता के भाव को तार तार करना है...!"
अब तो वामन मेश्राम और बामसेफ का नैरेटिव उतना ही अप्रासंगिक है जितना ब्रिटिश इंडिया के समय एवं उसके पहले हुआ करता था। अब बाकायदा सामुदायिक समरसता कीजिए न केवल वातावरण तैयार है अगर वातावरण का असर ना हुआ तो कठोर कानूनी प्रावधानों को चाहे जितना से कोई भी उपयोग में ला सकता है।
हां यहां एक खास बिंदु उभर कर आता है जिस से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि-"अब मुद्दा विहीन बामसेफ के पास केवल व्यवस्था को डराने धमकाने के अलावा अपने लोगों को उकसाने का कार्य बाकी रह गया है !"
हाल के दिनों में 10 या 11 साल के बच्चे ने एक भाषण प्रतियोगिता में कहा था कि-"आज भी भारत में दलित महिलाओं का शोषण सर्वाधिक हो रहा है..!" मैं जानता हूं कि उस बच्चे का मस्तिष्क इतना तो पता भी नहीं चल सकता । उस बच्चे के माता पिता को भी जानता हूं जो एक खास है एजेंडे को लेकर हर जगह मुखर हो जाते हैं । बच्चे के भाषण में लैगेसी साफ नजर आ रही थी । हम सब जानते हैं कि कमजोर का शोषण करना शोषक की मूल प्रवृत्ति है। हम देखते हैं कि जहां तक महिलाओं के अधिकारों दिव्यांगों के अधिकारों या किन्नरों के अधिकारों की बात होती है तब हमारा चिंतन खो जाता है। यह एक मानसिकता है इसे बदलना होगा। वर्तमान परिस्थितियों में ना तो वामन मेश्राम प्रासंगिक हैं ना ही वे लोग ही प्रासंगिक हैं जो वर्गीकरण करते हैं और वर्ग संघर्ष कराने या उसे जीवित रखने पर विश्वास करते हैं। किंतु डेमोक्रेटिक सिस्टम में ऐसी कोई सेफ्टी गार्ड नहीं लगे हैं जो यह तय कर दें कि ऐसे अप्रासंगिक विषयों पर जहर न उगल सकें ।
यूट्यूब पर एक वीडियो देख रहा था एक सिख वक्ता ने बामसेफ की मीटिंग में ना केवल राम की परिभाषा को बदल दिया बल्कि गुरु तेग बहादुर के बलिदान को भी नकारते हुए ब्राह्मण वर्ग को यह तक कह दिया कि यदि सांप और ब्राह्मण एक साथ नजर आ जाए तो पहले ब्राम्हण को मारना चाहिए।
यूट्यूब धड़ल्ले से ऐसे वक्तव्य को जारी रखता है जो न केवल हिंसा बल्कि सामाजिक समरसता की धज्जियां उड़ाते हैं। हाल के दिनों में सत्य सनातन के एक चैनल को यूट्यूब में प्रतिबंधित कर दिया । इस चैनल पर कभी भी हमने हिंसा को प्रमोट करते हुए किसी को भी नहीं देखा सुना । जबकि बामसेफ जैसी संस्थाओं के चैनल निर्भीकता के साथ के अप्रासंगिक एवं दुर्दांत कंटेंट प्रस्तुत करते हैं। विश्व गुरु बनने की राह में अगर यही जरूरी है तो फिर सपना देखते रहिए ।
https://youtu.be/NagyW0YArZY