व्यक्तिचर्चा : मलय दासगुप्ता

रोज रोज कुछ ना कुछ नया मौजूद होता है ब्रह्मांड में । रोज कोई एक नया व्यक्ति मिलता है रोज कोई एक नया ख्याल आता है। 
    श्री मलय दासगुप्ता से मिलने की कोई खास वजह नहीं है । सार्वजनिक जीवन में कौन कब किस से मिलता है उसे याद रखना भी बड़ा मुश्किल होता है । यह तो मुलाकात है बहुत कम हुई है पर एक दूसरे को पहचाने नहीं कोई कमी नहीं रह गई है। सामान्यतः हर किसी पर कलम चलाने की भी इच्छा नहीं होती.... ! यह एक स्वाभाविक एक स्वाभाविक मनोवृत्ति है ।  मलय जी मुझसे आयु में बड़े हैं समझ और चिंतन में भी। अंग्रेजी हिंदी बांग्ला जिनकी मातृभाषा है के बेहतरीन जानकार है। अध्ययन तो इतना है मानो उनके ब्रेन की हार्ड डिस्क में लाखों किताबों जमा हो। ऐसा अंदाज कब लगाया जा सकता है जबकि बातचीत के दौरान रेफरेंसेस अर्थात अर्थात् संदर्भ तुरंत ही निकलते हैं। दासगुप्ता साहब से बात करने का आनंद ही कुछ और है। एक बेहतरीन कम्युनिकेटर हैं। किसी वैचारिक गुच्छे से उनका कोई लेना-देना नहीं। कविता और सृजन से उनका गहरा नाता है । व्यक्ति चर्चा की इस क्रम में आज उनके बारे में कुछ जानकारी प्रस्तुत है
परिचय
नाम:- मलय दासगुप्ता "मलय"
पिता का नाम:- स्व. उपेन्द्र कुमार दासगुप्ता
जन्म तिथि व स्थान:- २९ अगस्त १९५२, जबलपुर म. प्र.
सेवानिवृत सीनियर एडिटर डिफेंस अकाउंट्स डिपार्टमेंट (मिनिस्ट्री ऑफ डिफेंस) अकाउंट्स ऑफिस व्हीकल फैक्ट्री जबलपुर ।
बचपन से ही हिन्दी, बांग्ला, अंग्रेज़ी पठन पाठन में अभिरुचि।
तीनो भाषाओं की कविताओं में अतीव अनुराग।
माडल हाई स्कूल जबलपुर "सम्प्रति लज्जा शंकर झा" में शालेय शिक्षण १९६३ से १९६९।
तात्कालिक भाषण, वादविवाद व काव्य पाठ विधाओं में विशेष आग्रह, अंतर्शाले प्रतियोगिताओं में प्रतिभागी। हस्तलिखित वार्षिक शालेय पत्रिका लेखन में विशेष योगदान। संपादकीय विषय वस्तु लेखन में निज अभिप्राय की अभिव्यक्ति देना विशेषता थी।
१९७२ में शासकीय विज्ञान कॉलेज जबलपुर से बीएससी डिग्री। तदनतर १९९२ में एम. ए. हिंदी व १९९८ में L.L.B रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय ।
१९८४-८५ से १९९६ तक आकाशवाणी जबलपुर द्वारा आयोजित कविता पाठ व कविगोष्ठी में आमंत्रित।
शिर्डी सांई भजन और राधा कृष्ण कीर्तन - भक्ति गीत मिलाकर १०० से अधिक गीतों की रचना, २००७ में स्वरचित सीडी "प्रेम के रंग अनेक" का विमोचन प्रख्यात संगीत गुरु निर्देशक गायिका  डॉ शिप्रा सुल्लेरे द्वारा कंपोजिंग व गायन ।
२०१७ जबलपुर नर्मदा महोत्सव में स्वरचित जबलपुर नगर परिचय गीत का पद्मश्री डॉ सोमा घोष द्वारा गायन।
अध्यात्मिक विषयवस्तुओं में सदैव गहन अभिरुचि रही आयी है।
"नर्मदा परिक्रमा" पर परिभ्रमण दृष्टिकोण से नैसर्गिक सौंदर्य व तीर्थाटन अन्तर्गत अध्यात्म व पर्यटन के समन्वित स्वरूप पर अनुभूति परख लेखन।
रामकृष्ण कथामृत अन्तर्गत अनेक दृष्टांत पर मौलिक चिंतन व लेखन।
भगवद गीता के जीवन संदर्भित कथनों पर मौलिक टिप्पणी व आलेख।
नर्मदा पर बांग्ला पुस्तक "तपो भूमि नर्मदा" के २ खंडो का हिंदी में अनुवाद ।
६९ वर्ष की वयः संधि में कविता, आध्यात्म लेखन व चिंतन, भजन और गीत लेखन ही दिनश्चर्या है।
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ईष अनुभूति 

कोशिश की कितनी ही बार
आलोकित करू तेरी प्रेम रश्मि हृदय में बार बार
ऐसा हुआ नहीं अब तक संभव हो न सका हे नाथ 
तुम्हारा आसन मेरे जीवन में वही जहा गहन अंधकार 
उस लता सा अस्तित्व मेरा 
सूख गया जिसका मूल
प्रस्फुटन को कलिया आतुर 
पर खिलता नहीं फूल 
मेरे जीवन में महिमा तेरी 
न हो सकी साकार
कदाचित इसे ही तो कहते है 
वेदना का निर्मम उपहार 
प्रेम सजल नयन नहीं
खिलता नहीं पुण्य प्रताप
प्रपंच प्लावन बहे जीवन धारा 
रह गया शोक संताप 
वैभव मंडित तथापि नीरस 
कैसा ऐश्वर्य विहीन परिधान !
अंतहीन चाहत के रहते
मेरी यही तो पहचान 
उत्सव कभी हुआ नहीं जीवन
न आया मधुमास 
ना ही नवीन का आगमन
या आनंद संतृप्त अश्रुपात 
कौन करता आश्वस्त "मलय" तथापि
करने भगीरथ प्रयास
बहेगी जीवन में प्रेम भागीरथी कभी
लेकर ईष अनुराग लेकर ईष अनुराग 
कोशिश की कितनी ही बार
आलोकित करू तेरी प्रेम रश्मि हृदय में बार बार
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स्मृति शेष
गोधूलि की डूबती सांझ में सुरमई जब रंग भरे
आए थे तुम प्रियें जब अस्तगामी की लाली ढले 

संशय था मन में कुछ कहने को पर कह ना सके
देखा था मैंने सलज्ज् संकोच की लाली तुम्हारे अरविंद मुख पे 

रुके नहीं चले गए थे, जाते जाते देखा था अर्थपूर्ण चितवन से  
सौम्य आग्रह मर्मस्पर्शी वेदना थी मृदु दृष्टि निकच्छेप में 

गोधूलि की डूबती सांझ में सुरमई जब रंग भरे
जब भी देखता हूं उड़ते शुभ्र विहंग दल, शरतीर सा नभनीेल तले 

उठती है टीस "मलय" वेदना विगलित अंतर्मन घिरे 
बोलते नयन कंपित अधर छुब्ध लालिमा मुख कमल 

मुखरित ना हो सका था प्रेम अंततः वियोग गहन छणों में
साक्षी स्वरूप थे दर दीवार मेरे साथ संताप संतृप्त म पल पल में  

आए थे तुम प्रिय जब अस्तगामी की लाली ढले
गोधूलि की डूबती सांझ में सुरमई जब रंग भरे
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दिन ललित बसंत के 

मन मधुप मधुर सुर तान जगे
रंग लाल गुलाल पलाश लगे
सरसो फूले अवनी पीत भए
प्रिय प्राण सखे
दिन ललित बसंती अान लगे
मन डोल गयों मधु रंग के संग
तन बन गयो नवरंग के अंग
चहुं अोर बहे महके सुरभि
मादक महुए संग बाजे मृदंग
कासे कहूं प्रिय प्राण सखॆ
दिन ललित बसंती आन लगे
नवनीत लगे कोपल तरुवर
नवतरंग में जागे है सरोवर
जीवंत लगे आशा की लहर
हुए प्राणवंत अब आठो प्रहर
कह ना सकूं अब प्राण सखे
दिन ललित बसंती आन लगे
उदास पवन "मलय" टीस लगे
जब कूक कोयलिया हूंक उठे
अनुराग रंग खग मृग और वृंद
अभिराम रूप धरे सृष्टि अनंत
प्रिय प्राणवंत हे प्रियंवदे
दिन ललित बसंती आन लगे
दिन ललित बसंती आन लगे
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कुछ आसान नहीं रह गया 

भ्रष्टाचार की मखमली पायदान पर 
ईमान का हर कदम अब थक गया है
यारों ! इक ज़िन्दगी जी लेना अब आसान नहीं रह गया है ।
यहां हवा का रुख देख बात करने लगे है लोग
तमाशबीनों की भीड़ से इन्कलाब की उम्मीद 
आसान नहीं रह गया है
लोकतंत्र की चौपाल पर लगती है राजतंत्र की पंचायत
कानून के लंबे हाथ, वे हाथ नहीं आते जो रसूखदार और खास
किनके भरोसे महफूज़ है आम जनता की जिंदगानी
कहना आसान नहीं रह गया है
वादों में होती है लब्जों की कवायद
दिखाए जाते है उम्मीद के सब्जबाग
अब कौन बहा लाएगा कल्याण की भागीरथी
कहना आसान नहीं रह गया है।
यूं तो तालीम की हर किताब से 
निकलती है सदाचार की गंगा
हकीकत की तपती रेत पर
कहा तक बह पाएगी कहना आसान नहीं रह गया है।
फूल है खुशबू वही
भौरों की गुनगुनाहट वही
पर बोझिल हवाओं में "मलय"
मौसम का फिर खुशनुमा होना
अब आसान नहीं रह गया है।
 भ्रष्टाचार की मखमली पायदान पर 
ईमान का हर कदम अब थक गया हैl
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प्रेम असीम
लड़ाई हर हाल में बुरी नहीं होती, हर हाल में सुकून भी भली नहीं होती
वह इश्क़ परवान चढ़ता ही नहीं, तकरार की जहां गुंजाइश नहीं होती
प्रेम में झंझट कहीं छुपी सी है रहती, शिकवे शिकायत में खूब खिलती महकती
मासूम है इतना रूठने पर दिल ए नादान 
अश्क आंखों में लबों पर हसी दे जाती 
प्रेम में गहराई अनंत 
प्रेम का आकाश दिगंत
आलम तन्हाई की होती है लहरों के नीचे
क्योंकि परमार्थ के सागर में स्वारथ की जड़े नहीं होती
जो उड़ा आसमान लिए इश्क़ परवाज़ 
छोड़ ख्वाइशों की दुनिया के थोथे अरमान
अब कदम पड़ते है फलक पर या "मलय"
दयारे - इश्क़ में दूर दूर तक ज़मी नहीं मिलती
लड़ाई हर हाल में बुरी नहीं होती, हर हाल में सुकून भी भली नहीं होती
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अनुपम तुम आए थे
अनुपम तुम आए थे आज प्राची आलोक में
अरुण वर्ण पारिजात पुष्प लिए हाथों में
निद्रित शहर नीरव पथ पथिक ना थे
अकेले ही चले गए थे स्वर्णिम रश्मि रथ में
रुकते थमते चलते देखते थे मेरे वातायन को
कदाचित देखा था तुमने करुण सजल नैनों से
अनुपम तुम आए थे आज प्राची आलोक में
अरुण वर्ण पारिजात पुष्प लिए हाथों में
सपने सुरभित हो उठे थे अनाहूत सुगंध से
गूंज उठी थी घर दीवार मुक्त्तक छंद आनंद से
धूल धूसरित निशब्द स्तब्ध मेरी वीणा 
बज उठी थी आज अनाहत के आघात से
कितनी ही बार सोचा मैंने उठ जाऊ त्वरित
सारे अवसाद त्याग दौड़ जाऊ देखू तुम्हे
पर यह हो ना सका कुंठा या आत्मग्लानि परिहास
मिल ना सका तुमसे पात्रता ना थी मेरी
अंततः रिक्त आभास 
अनुपम तथापि तुम आए थे आज प्राची आलोक में
अरुण वर्ण पारिजात पुष्प लिए हाथों में
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नयन बरस के सावन आये 

हेरित रही श्याम पुंज घटा घिरे 
नील गगन पर छाए
सजल सघन अनजन के बहते
कमल नयन भर आये
अरुण अधर सूख कम्पित भये
करुण वेदना झांके
नीरव वियोग के मूक वे प्रतिपल
कह गए नैना के धारे
स्तब्ध है सावन विदा के पलछिन
विरह कालिमा छाये
हेरित रही श्याम
कह गए थे पिया मेघ के संग संग
बरसन लेकर आये
एक वारी करे तृप्त धरा  को
एक जियरा आग लगाए
बिरह तपन कह देक्ज न पाए
असउण बहे जियरा जलाये
झरझर झरते बिजुरी दमकते
विरहिणी को आस जगाए
विलाप नयन मलय अब पथरा गए
नयन बरस के सावन आये ।
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पूर्ण धर्मयुद्ध की अभिलाषा में 

यहां प्रतिदिन एक कुरूछेत्र से गुजरना होता है
नित महाभारत सी द्वंद में रहना पड़ता है
सत्य की निष्ठा पर आशंकित रहते हुए 
किसी अप्रत्याशित का पूर्वाभास हो जाता है
काल चक्र यूहीं घूमता रहता है
अघटनविघटन के नित इतिहास रचता है
न्याय अन्याय सत्य असत्य एक ही तुला के दो दंड है
अब अस्तित्व का श्रेय बलवती होने पर जाता है
सर्वधर्म समभाव के असीम संभावना के रहते
रूढ़ीवादिता का शिकार होना पड़ता है।
परिधिगत उदारवादिता की परिपाटी में
संकीर्णता चरमोत्कर्ष का आभास देता है
तभी तो आज कई कर्ण तिरस्कृत हो जाते है
होते है दिशाहीन सारथी विहीन अर्जुन
अंगीकार से वंचित रह जाते कई भीष्म
मान्यता से परे रह जाते कई द्रोण यहां।
यह कैसा अधर्म था धर्म युद्ध में
क्या एक ही असत्य चिर अजेय सर्व सत्य में
कदाचित आज भी प्रायश्चितरत है "मलय"
धर्मराज के उद्देश्य में आव्हान में
तभी तो होती है पुनरावृत्ति महाभारत की
पुनः पुनः एक अंतहीन कड़ी में
पूर्ण धर्मयुद्ध की अपरिमित प्रत्याशा में
अपरिमित प्रत्याशा में
यहां प्रतिदिन एक कुरूछेत्र से गुजरना होता है
नित महाभारत सी द्वंद में रहना पड़ता है
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में सीढ़ी हूं 

मैं सीढ़ी हूं ----------
युग युगान्तर से सिर्फ एक सीढ़ी
सुन्दर परिमार्जित शब्दों में कही सफलता का सोपान हूं
कहीं क्रमवर्धक ज्ञान मंजिरी शब्दजाल में गुंफित मेरे अस्तित्व व कृतित्व अनेक परिचय से विभूषित किया इस सभ्यता ने
निर्लिप्त नेत्रों से अनवरत देखा है मैंने
सभ्यता के समसामयिक उतार चढ़ाव को
रखा है मैंने अपने मर्मस्थल में
इतिहास दर इतिहास की परतों में
दंभ ध्वनित पदशचापो की बर्बरता को
साक्षी स्वरूप मेरे अक्षत-क्षत जब कभी
उन परतों को विदीर्ण कर उनमुक्त हुए
उन्हें वेष्टित किया गया मखमली आवरण के अन्तराल में
मेरे अंतर का चीत्कार हाहाकार प्रतिगुंजित होती रही इस अवगुंठन में
क्षुब्ध हूं तथापि आश्वस्त हूं "मलय"
अंतर्मन की निशब्द विजय दुंदुभी के प्रति
अभी भी गुंजित होता है दर्पचूर पदस्थलित
"हुमायूं" का आर्तनाद
मुझसे होकर गिरते गुजरते एक एक पदशचाप में ।
में सीढ़ी हूं युग युगांतर से सिर्फ एक सीढ़ी ---------
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फासले कश्मकश के 

फासले हमारे बीच रहे
कुछ नजदीकियां चाहिए
करीब आने के लिए
कुछ दूरियां भी तो चाहिए
रिश्तों में ताजगी रहे
गर्मजोशी रहे जब भी मिले मिलते रहे
नज़रों की पहल कुछ ऐसी
आज तक कश्मकश में रहे
इन आँखों की कशिश कुछ ऐसी
वो छवि कभी ओझल ना हुई
सांझ की झुरमुट में देखा था
काजरारी नैना दो झुकी
आबो हवा वक़्त की ऐसी
वह फिजा पहेली सी लगी
नैनन की देखी आज तक
हृदय कभी भूला ही नहीं
तिष्नगी दिल की "मलय"
अनहद सी गूंजती रह गई
कमसिन प्रेम की मासूम कड़ी
कसक बन के रह गई, कसक बन के रह गई
फासले हमारे बीच रहे
कुछ नजदीकियां चाहिए ।
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सावन आयो 

सावन आयो पुलकित तन मन 
पवन मधुर बहे सुरभित उपवन
सावन आयो -----
रिमझिम बरसे नीर बहाए
पिया मिलन की आस जगाए 
कोयलिया की कूक है लागे
चिर विरह की अगन लगाए
चिर विरह की ------
श्याम मेघ जब घिर घिर आए
गिरी श्रृंग के रूप में छाए
बिजुरी चमके कुछ ऐसे जैसे
चंद्रचूड़ संग मेनका डोले
चंद्रचूड़ संग ------
रिक्त हृदय करे अति अभिलाषा
"मलय" आज कहे नहीं है दुराशा
पावस के हर पल रुत गाएं
पावन है आशा अभिलाषा
सावन आयो पुलकित तन मन 
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