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वन वन भटकते रहे कुछ योगियों ने अहर्निश प्रभू से साक्षात्कार की उम्मीद की थी । 20-25 बरस बीतते बीतते वे धीरे धीरे परिपक्व उम्र के हो गए !
कुछ तो मृत्यु की बाट जोह रहे थे । पर प्रभू नज़र न आए । नज़र आते कैसे उनके मन में सर्वज्ञ होने का जो भरम था । श्रेष्ठतम होने का कल्ट (लबादा) ओढ़कर घूम रहे थे । कोई योग में निष्णात था तो कोई अदृश्य होने की शक्ति से संपृक्त था । किसी को वेदोपनिषद का भयंकर ज्ञान था तो कोई बैठे बैठे धरा से सौर मंडल की यात्रा पर सहज ही निकल जाता था ।
परमज्ञानीयों में से एक ज्ञानी अंतिम सांस गिन रहा था । तभी आकाश से एक यान आया ।और योगियों के जत्थे के पास की आदिम जाति की बस्ती की एक झोपड़ी के सामने उतरा।
यान को देख सारे योगी सोचने लगे लगता है कि यान के चालक को भरम हुआ है। इंद्र के इस यान को कोई मूर्ख देवता चला रहा है शायद सब दौड़ चले यान के पास खड़े होकर बोले - है देव्, योगिराज तो कुटिया में अंतिम सांसे गिन रहे हैं । आप वहीं चलिए ।
देव् ने कहा- हे ऋषियों, मैं दीनू और उसकी अर्धांगिनी को लेने आया हूँ।
महायोगी के लिए यम ने कोई और व्यवस्था की होगी ।
ऋषियों के चेहरे उतरते देख देव् ने कहा - इस दम्पत्ति में पत्नि ने ता उम्र मातृत्व धर्म का पालन किया है । स्वयम विष्णु ने इसे देवत्व सम्मान के साथ आहूत किया ।
और दीनू..?
देव्- उसने सदा ही निज धर्म का पालन किया । मिल बांट कर कुटुंब के हर व्यक्ति को समान रूप से धन धान्य ही नहीं प्रेम का वितरण भी किया ।
अतः मैं देवराज इंद्र की यम से हुई चर्चानुसार आया हूँ ।
पूरी दुनिया भर का ज्ञात अज्ञात अध्यात्म एक पल में समझ में आ गया ऋषियों को ।
(टिप्पणी:- न स्वर्ग है नर्क है यहां केवल सांकेतिक रूप से मातृत्व और कौटुंबिक न्याय का महत्व समझाने के लिए कथा की रचना की गई है )