यादों का कोई सिलेबस नहीं होता
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सच है यादें जीवन के अध्ययन के लिए ज़रूरी हैं पर इनका कोई पाठ्यक्रम तय नहीं होता । जब भी आतीं हैं कुछ न कुछ सिखा जनतीं हैं । कोई तयशुदा पाठ्यक्रम कहाँ है इनका । परीक्षाएं अवश्य ही होतीं हैं । पेपर भी हल करता हूँ । पास भी होता हूँ फेल भी । चलीं आतीं हैं पिछले दरवाज़ों से और कभी स्तब्ध करतीं हैं तो कभी हतप्रभ कब तक ज़ेहन में रुकतीं हैं किसी को मालूम नहीं होता ।
1984 में डी एन जैन कॉलेज में स्व राजमती दिवाकर ऐसी प्राध्यापक थीं कि स्लीपर पहन के भी आ जातीं थीं कॉलेज में .. साधारण से लिबास रहने वाली में शारदा माँ मुझे वादविवाद प्रतियोगिताओं में बहस के मुद्दों को समझातीं और विपक्ष को कैसे नेस्तनाबूद करना चाहिए बतातीं भी थीं । उन दिनों कॉलेजों में जितनी भीड़ वाद विवाद प्रतियोगिताओं को सुनने जमा होती थीं आजकल उससे एक तिहाई बच्चे भी जमा नहीं हो पाते होंगे । अख़बार भी समाचार पूरे रिफरेंस के साथ छापा करते थे कुछ ऐसे -
"लगातार तीसरी बार पन्नालाल बलदुआ ट्रॉफी डीएनजैन ने जीती"
या
अमुक के तर्क न काट पाने से फलाँ कॉलेज ने कब्जाई ट्रॉफी
वक्ता तो स्टार हुआ करते थे । तालियों की गूंज से पता चल जाता था कि हम सही जा रहे हैं । उन दिनों कृषि कॉलेज के अभिषेक शुक्ला ( Now Scientist ) , अतुल जैन {( Now Bank officer) , डीएनजैन से मैं और उषा त्रिपाठी ( Now HOD polytechnic College) , या उद्धव सिंह ,
महाकौशल कला महाविद्यालय के वीरेंद्र व्यास (Now Reader Chitrakoot University) Home Science collage se अंजू सांगवान , आभा शुक्ला IAS ( Now Principal Secretary Maharashtra Government ), रेखा शुक्ला आईपीएस तरुण गुहा नियोगी Tarun Guha Neogi ।
हम सब केवल अध्ययन के सहारे अपना अपना व्यक्त तैयार करते थे । टाउन हॉल लायब्रेरी , कॉलेज लायब्रेरी , और प्रोफेसर्स से विषय को समझना और खुद को वक्तव्यों के लिए तैयार करना हमारा शगल बन चुका था । सबको अपने अपने भाग्यानुकूल बेहतरीन नौकरी भी मिली । हम में से कोई भी गजेटेड ऑफिसर से कम नहीं । ऐसा नहीं कि उस दौर में प्रतिस्पर्धा कम थी वास्तव में तब पद कम थे मुझे खुद 10 हजारी भीड़ में सफलता मिली सिविल जज बनने का स्वप्न बस स्वप्न ही रह गया आकाशवाणी का प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव भी न बन सका ।
आज इस पोस्ट के साथ लगी तस्वीर देख कर याद आया कि तब तो न गूगल बाबा थे किताबें खरीद कर पढ़ने की आर्थिक योग्यता न थी । तो हमने कैसे पढ़ा फिर यादों ने बताया स्वर्गीय अरविंद जैन , डॉक्टर मगन भाई पटेल, स्व रामदयाल कोस्टा जी, स्व हनुमान प्रसाद वर्मा जी , स्व राजमती दिवाकर डॉक्टर पंकज शुक्ल DrPankaj Shukla जैसे प्रोफेसर्स हमारा निर्माण कर रहे थे । ये वो दौर था जब हम सिर्फ छात्र थे न कि फैकल्टीज या हिंदी इंग्लिश के कारण बटे लोग । मेरी वार्ता डॉ प्रभात मिश्र जी से ख़ूब होती थी जबकि वे सायन्स के प्रोफेसर थे । कुल मिला कर एक मिडियोकर शहर जबलपुर के वाशिंदे हम पता नहीं कितनी कीमती ज़िन्दगी जी रहे थे ।
सच कितने ज़रूरी हैं गुरुजन ये न हों तो युग आदिम युग ही रह जाता ।
डा स्व हरिकृष्ण त्रिपाठी ने एक बार मुझसे कहा था - अप्प दीपो भवः
जीवन की टैग लाइन सा चस्पा है आजतक । इस वाक्य को उनके कहने से पूर्व हज़ारों बार पढा सुना पर आत्मसात उनके कथन के बाद ही कर सका ।
सुधिजन जानिए गुरु के बिना सब नीरस है समझ से परे है ।
यादों ने ये भी बताया कि ज्ञान रटने से अर्जित नहीं होता बल्कि ज्ञान मंथन चिंतन और गुरुवाणी से ही स्थायी होता है ।