विकास हर पल होता है होना भी चाहिए ... पानी और समय को
रोकिये तो पाएंगें की पानी और समय दौनों में मलिनता आ ही जावेगी. अस्तु तो सनातन
से ही हम “चरैवेती चरैवेती” के उदघोषक हैं... जो न तो यवनों को हासिल है न ही
विश्व की किसी भी सामाजिक व्यवस्था में
शामिल रहा है. आप सोच रहे होंगे कि यहाँ यवन आए, ब्रिटिश आए तो क्या चल के न आये
होंगे....?
जी हाँ वे सब आए
चलकर ही आए थे... प्रवास के लिए पथसंचलन आवश्यक है . पर याद रखिये वे जटिल और स्थिर विचारों एवं मान्यताओं के साथ
आये थे ...सो उनको हर जगह से लौटना पडा कुछेक बातों को छोड़ दें तो वे सनातनी
व्यवस्था को समाज से प्रथक न कर पाए . दूसरी ओर ... जबकि हम सनातनी जब भी बाहर गए
तब समृद्ध और मौलिक चिंतन तथा विचारधारा के साथ गए हमारे प्रवास का कभी भी
उद्देश्य सत्ता का विस्तार न था. हम सदा मूल्यों की स्थापना के साथ गए . हमने हमारा
सनातनी व्यवस्थापन का मार्ग तद्समकालीन विश्व को सिखाया भी. यही है हमारी सनातनी-शक्ति
जो हमें वेदों ने दी निरंतर मिल रही है. यही सनातनी-शक्ति हमारे लिए रक्षाकवच है.
सुभाष बाबू विप्र थे एमिली से विवाह के संस्कार को सनातनी
ही रखा तो अशफाक के साथ विप्र चंद्रशेखर आज़ाद ने धार्मिक सहिष्णुता को सर्वोपरी रख
देश के लिए स्वाहुति दी.
उपरोक्त बातों का अर्थ क्या है..? यही न कि राष्ट्रधर्म
सर्वोपरी है .. विप्रों ने जब जब राष्ट्रधर्म को प्रथम माना तब तब राष्ट्र ने
श्रेष्ठता साबित की पर जब भी विप्र पक्षपाती हुए हैं देश को क्षति हुई है. विप्र
को न तो खुद के लिए न ही खुद के परिवार के लिए कार्य करना है बल्कि राष्ट्रहित में
वो करना है जो सर्वदा “सर्वजन हिताय” हो.
यद्यपि ब्राह्मण का जन्म सामंजस्य और समता के लिए होता है.
पर जब उसके इस हेतु में बाधा होती है तब किसी न किसी चाणक्य का प्रादुर्भाव होता
है. उदाहरण सर्वव्यापी है कि - जब नन्दराज़
ने चाणक्य को विदेशी आतंक के विरुद्ध एकजुटता एवं अखंड-भारत के आह्वान पर अपमानित
किया तो विप्र ने सही समय पर चन्द्रगुप्त के ज़रिये उस अपमान को महान ऐतिहासिक घटना में बदलने का “हेतु”
बना दिया. सनातनी ब्राह्मण सदा “अखंडता का हिमायती होता है” चाहे वो राष्ट्र की अखण्डता हो या राष्ट्र में अखण्डता हो .
सनातनी व्यवस्था में सब कुछ परिवर्तन शील है. ब्राह्मण कुलों
का दायित्व है कि वो राजा को भी आवश्यकता होने पर मुखर होकर सदाचरण का ज्ञान दे . किन्तु समकालीन परिस्थिति
में समाज का हर वर्ण बिखरा बिखरा सिगमेंट में जी रहा है. सबके उद्देश्य भी प्रथक
प्रथक हों ... तब जब मन ही खंडित हों तब अखंड-भारत का स्वप्न दिवा स्वप्न लगता है. न ही विप्रों में वो आत्मबल नज़र आ रहा है.
परन्तु इस विघटन से मुक्ति के मार्ग है कठिन हैं पर राष्ट्रहित में हैं...... लोक हित में हैं...
वो है खुद की जड़ों का सिंचन. खुद को श्रेष्ठ साबित करना नहीं बल्कि जिस वर्ण से हम
हैं उसे राष्ट्रोपयोगी बनाना.
वर्तमान में विप्र वर्ग की स्थिति दिनों दिन दयनीय हो रही है एक अदद चाणक्य की ज़रूरत से इनकार नहीं किया जा सकता .