डूबे सूरज मैं उठा लेता
हूँ भोर अपनी है बता देता हूँ
:::::::::::
“पूस की रात” पुआलों
पे बिछे बारदाने
चिलम के साथ निकल आते किस्से पुराने ..
पेड के पीछे छिपे भूत से
डरा था कल्लू
रोज़ स्कूल में हम सब लगे
उसको चिढाने
चीख चमरौटी की सुनके गाँव डरता था
पहन चप्पल जो निकला वही तो
मरता था
हमने झम्मन को चच्चा कहा
तो सब हँसने लगे
पीठ पीछे हमको ताने कसने
लगे ...!!
किसी को छूने से धर्म
टूटता या बचता है ...!
न जाने कौन ? भरमजाल ऐसा रचता है ?
कितने सूरज बिन ऊगे ही डूब
गए ...
दीप कितने कुछ पल में ही
रीत गए
आज़कल खोज रहा हूँ डूबते सूरज
कहीं मिल जाते हैं उनको
मैं उठा लेता हूँ
कभी कुरते के पाकिट में
छिपा लेता हूँ !
वक्त मिलते ही उनको मैं
उगा देता हूँ
भोर सूरज की है सबको मैं बता देता हूँ !!