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बुधवार, दिसंबर 02, 2015

विश्व विकलांग दिवस 03 दिसंबर 15 पर विशेष टिप्पणी


“आज भी सामाजिक बदलाव नज़र नहीं आया..!”
विशेष रूप से सक्षम लोंगों के मुद्दे पर आज भी सामाजिक बदलाव न आने से कल्याण कार्यक्रमों की प्रभावशीलता दिखाई नहीं दे रही है. साथ ही विकलागों की स्थिति में कोई ख़ास बदलाव दिखाई नहीं दे रहा.
सामाजिक सोच में कभी संवेदनाओं का अतिरेक होता है तो कहीं छद्म-घृणा भी दिखाई देती है. ऐसा नहीं है कि सम्पूर्ण वातावरण नकारात्मक है परन्तु सामाजिक नज़रिया जिस तेज़ी से सहज होना चाहिए वैसी दिखाई नहीं देती.
कारण जो भी हो सत्यता लाख आयोजन कर लीजिये छिपेगी नहीं कि विशेष-रूप से योग्य तबके के प्रति समानता वाली  सोच में सकारात्मक बदलाव अन्य मुद्दों पर हो रहे सामाजिक बदलाव से काफी धीमी  है.
अपने 52 वर्षीय जीवन में मुझे कई ऐसे लोंगों से भी मुलाक़ात करना पडा है जो मुझे बराबरी का दर्ज़ा देते काफी आहत हुए हैं . दरअसल इसी सामंती-वृत्ति से निजात की ज़रुरत है परन्तु संभावना नकारात्मक दौर में दूर दूर तक नज़र नहीं आती .
यद्यपि ऐसे लोगों का प्रतिशत कम ही रहा है परन्तु इस सत्य को अनदेखा करने से आने वाले समय में परिलक्षित हो  दुखद एवं नकारात्मक  परिणामों को नकारा नहीं जा सकता है .
इसका अर्थ ये है विकास गतिविधियों में लिए विकलांगों को अपनी योग्यताएं एवं क्षमताएं साबित करने के लिए अपेक्षाकृत अधिक यत्न-प्रयत्न करने होते हैं. मुझे यह कहते हर्ष है कि मुझे बहुधा  सफलताएं मिलीं हैं जिसके परिणाम स्वरुप  मेरे समकक्ष प्रतिस्पर्धी एवं घृणा करने वाले तक आ खड़े हुए जो सहज उपभोक्तावादी मानव-प्रवृत्ति है . विशेष रूप से योग्यता वाले नागरिकों के लिए बच्चों में जितनी सहजता मिलेगी उतनी मेरे समकालीनों में मैंने कम ही  देखी . एक बार तो मज़बूरन मुझे अपनी सोच के विपरीत किसी की शिकायत तक करनी पड़ी .
पर सबके साथ ऐसा नहीं हो रहा है यही चिंता का विषय है. मुझे तात्कालिक मदद  से बेहतर सामर्थ्य में वृद्धि की कोशिश  में सहायता देने वाले लोग बेहद आदर्श प्रतीत हुए. यहाँ चीनी कहावत मुझे सटीक लगती है जिसमें कहा गया है कि- मछली पकड़ के देने से बेहतर है मछली पकड़ना सिखाओ ताकि अकिंचन सामर्थ्यवान बने.
विकलांगों के प्रति सर्वाधिक मानसिक संत्रास देने वाली घटनाएं घटित होतीं हैं . विकलांग व्यक्ति उसे नियति मानकर चुप रहने मज़बूर है ये वर्तमान दौर की सच्चाई है. इसके लिए व्यवस्था के प्रावधान इतने प्रभावशाली तरीके से लागू नहीं किये जा सके हैं जिस तरह से महिलाओं, बच्चों , अनुसूचित जातियों जनजातियों एवं समाज के अन्य कमजोर तबकों के लिए लागू किये गए हैं.
साथ ही ग्रामीण क्षेत्र में विकलांग व्यक्तियों के सशक्तिकरण के प्रयासों की जवाब देही न तो परिवार न ही समाज न ही तथाकथित वे लोग जिनके सर ये जिम्मेदारी है .
हालांकि इसमें सरकार का दोष नहीं माना जा सकता बल्कि दोषी सम्पूर्ण नकारात्मक सामाजिक-सोच है .
बहरहाल विकलांगता को समर्पित इस दिवस को जो भी मना रहे हैं वे इसे आत्म प्रचार एवं सेवा विज्ञापन के रूप में न मनाएं बस आज से ये शपथ लें कि वे भीख न देकर समानता का अवसर देने के प्रयास करेंगें .


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