रीता विश्वकर्मा |
प्राणियों के जीवन हेतु तीन मूलभूत एवं जरूरी
आवश्यकताएँ हैं,
जिनमें आक्सीजन (वायु), जल एवं भोजन प्रमुख
है। इन तीनों में आक्सीजन शत प्रतिशत, जल 70 प्रतिशत और भोजन 30 प्रतिशत के अनुपात में आवश्यक
माने जाते हैं। साथ ही इन तीनों आवश्यकताओं का शुद्ध होना भी परम आवश्क है। अशुद्ध
व प्रदूषित प्राणवायु, जीवन जल व खाद्य पदार्थों को ग्र्रहण
करने से प्राणियों के शरीर में विभिन्न प्रकार की बीमारियों के फैलने की आशंका बनी
रहती है, और रोग ग्रस्त होने पर जीवन संकटमय बन जाता है।
यहाँ हम जल संरक्षण की बहस पर यदि किसी भी प्रकार की टिप्पणी करना चाहें, तो यही कहेंगे शुद्ध पेयजल की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उम्मीदें करना
बेमानी ही होगी।
जल ही जीवन है, इसे हम
मात्र एक स्लोगन के रूप में ही देखते हैं। जल की शुद्धता एवं संरक्षण, संचयन के प्रति हमारा ध्यान कम ही जाता है। मानव- इस प्राणी को जीने के
लिए जल की महत्ता का कितना आभास है, यह कह पाना मुुश्किल है।
मानवीय गतिविधियों से निकलने वाले विभिन्न प्रकार के खतरनाक व प्राणघातक रसायन
जीवन के लिए आवश्यक जल में जहर घोल रहे हैं। परिणाम स्वरूप भूगर्भ जल में संक्रामक
रोगों के साथ-साथ विभिन्न प्रकार की जानलेवा बीमारियाँ पनपने लगी हैं। गाँव से
लेकर कंकरीट के सघन जंगलों में रहने वाले मानवों के लिए वर्तमान में शुद्ध पेयजल
की उपलब्धता किसी निशक्त के लिए एवरेस्ट फतह करने के समान है।
मानव अपने जीने की प्रमुख आवश्यकता जल की
शुद्धता को बनाए रखने में स्वयं को जिम्मेदार नहीं मान रहा है, और न ही अपनी भूमिका तय कर पा रहा है। ग्लोबल सर्वे से पता चलता है कि
भूगर्भ जल को दूषित करने में औद्योगिक इकाइयों से लेकर सीवेज तथा अन्य गन्दगी व
रसायन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दूषित पेयजल का दायरा लगातार बढ़ता ही जा रहा
है। शहरों और गाँवों में सीवर प्लाण्टों व शौचालयों की व्यवस्था न होने से वहाँ से
निकलने वाली गन्दगी व दूषित जल नदी-नालों के रास्ते भूगर्भ में जाकर जल को दूषित
कर रही हैं। शहरों में घनी आबादी व कालोनियों का विकास तेजी से हो रहा है किन्तु
जल स्रोतों को दूषित होने से बचाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार शुद्ध जल दो भाग हाइड्रोजन
तथा एक भाग आक्सीजन के संयोग से बनता है। जिस जल में किसी भी प्रकार की भौतिक, रासायनिक अथवा जैविक अशुद्धियाँ न हो और उसका स्वाद अच्छा हो उसे शुद्ध जल
की परिभाषा दी जाती है। कुल मिलाकर शुद्ध जल वही कहा जाएगा जो रंगहीन, गंधहीन व स्वादहीन हो। जल के शुद्धीकरण की जाँच के लिए विश्व के समस्त
देशों में अनेकों संगठन बनाए गए हैं। जिनके द्वारा इसकी विभिन्न प्रकार से जाँचें
की जाती हैं। इसमें टी.डी.एस. (टोटल डिजॉल्ब्ड सॉल्ट्स) के जरिए जीवन जल में घुले
हुए ठोस पदार्थों की मात्रा तथा पी.एच. जाँच में जल की अम्लीय व क्षारीय प्रकृति
का परीक्षण किया जाता है। हार्ड वाटर यानि कठोर जल जो मानव शरीर के लिए कम आवश्यक
है, उसकी वजह है कैल्शियम, मैग्नीशियम,
क्लोराइड एवं सल्फेट जैसे तत्वों, यौगिकों का
जल में मिला होना।
कठोर
जल आम जीवन के साथ-साथ उद्योगों में उपयोग किए जाने योग्य नहीं होता है।
विज्ञानियों के अनुसार जल में सोडियम, व पोटैशियम
क्लोराइड जैसे सॉल्ट्स घुले हुए सामान्य तौर पर पाए जाते हैं। जल में विलेय इन
लवणों की मात्रा बढ़ने पर इसका स्वाद नमकीन हो जाता है। इसके अलावा जल में फ्लोराइड
की मात्रा हड्डियों तथा दाँतों की मजबूती तथा दाँत के रोगों से रक्षा प्रदान करती
है। जल में विलय इस लवण की निर्धारित मात्रा 1.5 मि.ग्रा.
प्रति लीटर है। इससे अधिक होने पर फ्लोराइड युक्त जल मानव स्वास्थ्य को प्रभावित
करता है। इन्हीं जानकारों के अनुसार लौह तत्व की जल में अधिकता से उसका रंग लाल हो
जाता है साथ ही उससे दुर्गन्ध भी आने लगती है। ऐसे जल में खतरनाक रोग फैलाने वाले
वैक्टीरिया विकसित होने लगते हैं।
अवशेष क्लोरीन, नाईट्राइट व
क्षारीयता की अधिकता नुकसानदेह है। नाईट्राइट की अधिकता से बच्चों में ब्लूबेबी
बीमारी तथा महिलाओं में गर्भपात की स्थिति पैदा कर सकता है। विषाणुगत जल से हैजा,
टाइफाइड, पीलिया, पोलिया
तथा दस्त आदि रोगों के पनपने का खतरा बना रहता है। दूषित पानी त्वचा कैंसर से लेकर
हाजमा, हड्डियों को कमजोर करने समेत तमाम बीमारियों को जन्म
देता है। यहाँ बताना आवश्यक है कि अपने यहाँ जल की जाँच करने के लिए प्रमुख संगठन,
जल निगम सक्रिय हैं, जिनके द्वारा गाँवों व
शहरों में की गई जाँच से पता चला है कि अधिकांश इलाकों में भूगर्भ में 50 फीट तक स्थित पेयजल उपयोग करने लायक नहीं रह गया है। साथ ही 100 फीट तक की गहराई के जल में घुले रसायनों की अधिकता ने शुद्ध पानी में जहर
घोल दिया है।
ग्रामीणांचलों के भूगर्भ जल की जाँच में पता चला
है कि इसमें फ्लोराइड,
आयरन (लौह तत्व) की अधिकता है, जो एक तरह से
मानव जीवन के लिए खतरे की घण्टी है। प्रदूषण के रोकथाम से सम्बन्धित वार्ता करने
पर शहर/नगर पालिका के प्रभारियों व अन्य जिम्मेदार पदाधिकारियों का कहना है कि
दूषित जल निकासी के लिए प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल किया जा रहा है। छोटी नगर
पालिका व नगर पंचायतों में तो स्थिति यह है कि वहाँ आबाद लोगों के घरों के गन्दे
जल की निकासी के लिए सीवर प्लाण्ट की स्थापना तक नहीं है। कूड़ा निस्तारण की
प्रक्रिया भी माशा अल्लाह है। हालाँकि प्रदूषण अधिकारियों द्वारा स्पष्ट रूप से यह
कहा जाता है कि उनके विभाग/संगठन द्वारा औद्योगिक इकाइयों की जाँच कर नोटिस जारी
की जाती है। प्रदूषण फैलाने के मामले आने पर नियमानुसार वैधानिक कार्रवाई भी की
जाती है। कुछ भी हो जब जल ही जीवन है तब जल संरक्षण आवश्यक हो गया है।
मानव
शुद्ध पानी की बूँद-बूँद को न तरसे इसके लिए भूगर्भ जल की शुद्धता बनाये रखने के
साथ ही उसे संक्रामक रोगों व गम्भीर बीमारियाँ फैलाने वाले वैक्टीरिया, विषाणु आदि से मुक्त रखने की आवश्यकता है। आमजन, स्वयंसेवी
संस्थाओं (एन.जी.ओ.), सम्बन्धित संगठन और प्रशासनिक मशीनरी
को सम्यक् रूप से जल प्रदूषण को लेकर सचेत होना पड़ेगा, तभी
मानव शुद्ध जल प्राप्त कर अपना जीवन सुरक्षित रख सकेगा, साथ
ही साथ ‘जल ही जीवन है’ जैसा स्लोगन
अपने शाब्दिक अर्थ की सार्थकता को सिद्ध कर सकेगा।