सरकारी अफ़सर हो या उसकी
ज़िंदगी चौबीसों-घंटे के लिये सरकारी होते हैं जो भी
होता है सब कुछ सरकारी ही तो होता
है. दफ़्तर का चपरासी आफ़िस से ज़्यादा घर का
काम करे तो वफ़ादार , जो बाबू घर जाके चापलूसी करे पूरी निष्ठा और ईमानदारी चुगलखोरी करे वो निष्ठावान,
बाकी बाकियों को
“किसी काम के नहीं वाली श्रेणी में रखा जा सकता है..!”
ईमानदारी का दम भरने वाला साहब उसके कान में चुपके से कुछ कह देता
है और वो बस हो
जाता है हलाकान गिरी से न रहा गया उसने पूछा-राजेंद्र क्या बात है किस तनाव में हो भई..?
राजेंद्र –का बतावैं,साहब, सोचता हूं कि बीमार हो जाऊं..!
गिरी-बीमार हों
तुमाए दुश्मन तुम काए को..
राजेंद्र-अरे साहब,
दुश्मन ही बीमार हो जाए ससुरा !
गिरी ने पूछा- भई, हम भी तो जानें कौन है तुम्हारा दुश्मन..?
राजेंद्र- वही, जो अब रहने दो साहब, का करोगे जानकर..
गिरी-अरे बता
भी दो भाई.. हम कोई गै़र तो नहीं..
राजेंद्र-साहब, साठ मीटर पर्दे को एडजस्ट करने में कित्ती स्टेशनरी लगेगी.. गणित
में कमज़ोर हूं सा’ब..
गिरी समझ गया कि राजेंद्र
को उसके बास ने घरके
पर्दे बदलने का आदेश दिया है. एक दीर्घ
सांस छोड़ते हुए उसने बताया-“अरे,
हर सेक्शन से मांग पत्र ले ले स्टेशनरी का कमसे कम सात
हज़ार का इंतज़ाम करना होगा ”
राजेंद्र-सा’ब ये तो चार माह की खपत है.. बाप रे मर जाऊंगा
गिरी- न लाया
तो भी तो मरना है है न..?
हां साहब सच्ची बात है… राजेंद्र ने हर बाबू की तरफ़ नोटशीट बढ़ा दी की तीन
दिवस में सब अपनी शाखा की स्टेशनरी मांग ले.
सब कुछ वैसे ही हुआ. सब के
सब बिना कुछ बोले हज़ूर के आदेश की भाषा समझ गये थे गोया.
सबने बिना नानुकुर के स्टाक-रजिस्टर में
भी दस्तखत कर दिये राजेंद्र ने वही किया जो बास ने कहा था. घर के पर्दे बदल गए. बस सब कुछ सामान्य सा हो
गया
और इस
तरह एक अदृश्य किंतु अति महत्वपूर्ण कार्य निष्पादित हो गया.