कुत्तों का बास अधीनस्त कुत्तों को एक तस्वीर दिखाते हुए बोला - मित्रो इसे देखा हैं.. ?
कुत्ते - (समवेत स्वरों में) अरे टामी सर फ़ोटू लेकर तलाशने की बीमारी कब से लग गई.. बास..?
बास - बास इज़ आल वेज़ राईट समझे जित्ता पूछा उत्ता बताओ.. इस तस्वीर की मैंने कापीयां कराई है.. सब ले जाओ इसकी पता साज़ी करके लेकर आओ .
सारे कुत्ते भुनभुनाते हुए निकले .. कोई उनकी भुनभुनाहट का सारांश था "बताओ भई, क्या ज़माना आ गया है.. हमारे बास को हमारी घ्राण-शक्ति पर से भरोसा जाता रहा. अरे हम एक बार सूंघ लेते तो आदमी की राख तक को सूंघ के बता देते कि किसकी भस्मी है... उफ़्फ़... बड़ा आया बास कहलाने के क़ाबिल नहीं है.. स्साला.. आदमियों के साथ रह के कुत्तव विहीन हो गया है. कुत्तों को इस क्रास बीट की बात वैसे भी न पसंद थी .बास था सो मज़बूरी थी सुनने की ... बास की सुनना संस्थागत मज़बूरी थी वरना देसी कुत्ते किसकी सुनते हैं. बहरहाल तस्वीर वाले आदमी की तलाश में निकले कि हमारा निकलना हुआ. हम निकले निकलते ही कुछ एक जो मुहल्ले के थे अनदेखा करके निकल गये . पराए मोहल्ले वाला घूर-घूर हमें तक रहा था.हम डरे डरे से कन्नी निकास लिए। खैर बच तो गए कुत्ते से पर सोच रहें है कि -
" कुत्तों को फोटो की का ज़रुरत आन पडी उनकी घ्राण शक्ति को का हुआ. ?"
सब अपने मूलगुण धर्म को छोड़ क्यों रहे हैं...?
शरद जोशी जी का वो सटायर याद ही होगा जिसका सारांश था - "हैं तो पर नहीं हैं..!" नल है पानी नहीं साहब हां हैं पर दौरे पर हैं आदि आदि. ठीक उसी तरह सबमें अपना गुणधर्म बदल लेने की होड़ लग गई है.. कुत्तों ने सूंघ के पहचानना छोड़ दिया. नेताजी ने सिद्धांत छोड़ दिये.. बाबा ने वेदांत तज़ा.. जैसे सरकारी दफ़्तर में बाबू सहित सब के सब काम छोड़ के वो सब करते हैं जो एक अभिनेता-अभिनेत्री करता या करती है. तो सरकारी गैर सरकारी स्कूल का मास्टर स्कूल में कम कोचिंग क्लास में खैर जो जैसा चाहें करें वैसा पर ये याद रखा जावे कि अगर प्रकृति में ऐसा बदलाव हो जाए तो ......?
कुत्ते - (समवेत स्वरों में) अरे टामी सर फ़ोटू लेकर तलाशने की बीमारी कब से लग गई.. बास..?
बास - बास इज़ आल वेज़ राईट समझे जित्ता पूछा उत्ता बताओ.. इस तस्वीर की मैंने कापीयां कराई है.. सब ले जाओ इसकी पता साज़ी करके लेकर आओ .
सारे कुत्ते भुनभुनाते हुए निकले .. कोई उनकी भुनभुनाहट का सारांश था "बताओ भई, क्या ज़माना आ गया है.. हमारे बास को हमारी घ्राण-शक्ति पर से भरोसा जाता रहा. अरे हम एक बार सूंघ लेते तो आदमी की राख तक को सूंघ के बता देते कि किसकी भस्मी है... उफ़्फ़... बड़ा आया बास कहलाने के क़ाबिल नहीं है.. स्साला.. आदमियों के साथ रह के कुत्तव विहीन हो गया है. कुत्तों को इस क्रास बीट की बात वैसे भी न पसंद थी .बास था सो मज़बूरी थी सुनने की ... बास की सुनना संस्थागत मज़बूरी थी वरना देसी कुत्ते किसकी सुनते हैं. बहरहाल तस्वीर वाले आदमी की तलाश में निकले कि हमारा निकलना हुआ. हम निकले निकलते ही कुछ एक जो मुहल्ले के थे अनदेखा करके निकल गये . पराए मोहल्ले वाला घूर-घूर हमें तक रहा था.हम डरे डरे से कन्नी निकास लिए। खैर बच तो गए कुत्ते से पर सोच रहें है कि -
" कुत्तों को फोटो की का ज़रुरत आन पडी उनकी घ्राण शक्ति को का हुआ. ?"
सब अपने मूलगुण धर्म को छोड़ क्यों रहे हैं...?
शरद जोशी जी का वो सटायर याद ही होगा जिसका सारांश था - "हैं तो पर नहीं हैं..!" नल है पानी नहीं साहब हां हैं पर दौरे पर हैं आदि आदि. ठीक उसी तरह सबमें अपना गुणधर्म बदल लेने की होड़ लग गई है.. कुत्तों ने सूंघ के पहचानना छोड़ दिया. नेताजी ने सिद्धांत छोड़ दिये.. बाबा ने वेदांत तज़ा.. जैसे सरकारी दफ़्तर में बाबू सहित सब के सब काम छोड़ के वो सब करते हैं जो एक अभिनेता-अभिनेत्री करता या करती है. तो सरकारी गैर सरकारी स्कूल का मास्टर स्कूल में कम कोचिंग क्लास में खैर जो जैसा चाहें करें वैसा पर ये याद रखा जावे कि अगर प्रकृति में ऐसा बदलाव हो जाए तो ......?