17.9.10

हां सोचती तो है कभी कभार छै: बरस की थी तब वो भी तो बन गई थी दुलहनियां

एक किताब
सखी  के साथ
बांचती बिटिया
पीछे से दादी देखती है गौर से
बिटिया को लगभग पढ़ती है
टकटकी लगाये उनको देखती
कभी पराई हो जाने का भाव
तो कभी
कन्यादान के ज़रिये पुण्य कमाने के लिये
मन में उसके बड़े हो जाने का इंतज़ार भी तो कर रही है ?
इसके आगे और क्या सोच सकती है मां
हां सोचती तो है कभी कभार
छै: बरस की थी तब वो भी तो बन गई थी दुलहनियां
तेरह की थी तो गरभ में कल्लू आ गया था
बाद वाली चार मरी संतानें भी गिन रही है
कुल आठ औलादों की जननी
पौत्रियों
के बारे में खूब सोचती हैं
दादियां उसकी ज़ल्द शादी के सपने
पर ख़त्म हो जाती है ये सोच

9 टिप्‍पणियां:

shikha varshney ने कहा…

चिंतनीय ....

Archana Chaoji ने कहा…

सोचने पर विवश करती रचना......क्यों होता है ऐसा ?

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

पौत्रियों
के बारे में खूब सोचती हैं
दादियां उसकी ज़ल्द शादी के सपने
पर ख़त्म हो जाती है ये सोच
---------------------------
बस यहीं तो समस्या है......
अच्छे विषय पर अच्छी रचना.....

रानीविशाल ने कहा…

Isi soch me parivartan ki nitant aavshyakta hai sab sampurn samaj ko yahi vakt ka takaza hai....badi gahan prastuti hai bhaisahab.
intzaar main hai
अनुष्का

शिवम् मिश्रा ने कहा…


बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !

आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।

आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आज भी बाल विवाह होते हैं कई जगह ...विचारणीय

निर्मला कपिला ने कहा…

उमदा विचारणीय रचना। शुभकामनायें

हमारीवाणी ने कहा…

कविता के भाव बहुत खूबसूरत हैं!





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हमारीवाणी पर ब्लॉग पंजीकृत करने की विधि

गिरिश बिल्लोरे मुकुल ने कहा…

आप सबका आभार

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