नाना जी को विदा करने सारे कुटुम्ब के लोगों ने वही किया जो नानाजी तय कर चुके थे, उनके कहे और लिखे मुताबिक शवयात्रा के दौरान कोई रोयेगा नहीं सिर्फ़ और सिर्फ़ भजन गाये जावें . उन्हौने जैसा कहा वैसा हुआ. नाना जी ने कहा था ओर लिखा भी था - पुरुष की मृत-देह पर पत्नि के सिर से सौभाग्य चिन्ह मिटाना, चूडियां तुडवाना न केवल अशोभनीय है बल्कि नारी के लिये अपमान कारक भी .......मैं अपनी पत्नि को सौभाग्य चिन्ह मिटाने या न मिटाने के निर्णय का अधिकार सौंपने का पक्षधर हूं....ये बातें नाना जी ने अपनी लिखित वसीयत में कही . अपने सेवा काल में उन्हौने एक मकान खरीदा उसमें रहे किंतु अचानक सत्य-साई-सेवा संगठन जबलपुर के द्वारा निर्मित हो रहे साई-परिसर के निर्माण के लिये उसे बेच कर धन देना सबको चकित कर गया . एक बार मेरे मन में आया कि पूछूं कि आपने यह क्यों किया किंतु जब मुझे ध्यान आया कि लोभ मुक्त होने का सबक दे रहे हैं नाना जी तो मुंह से वो सवाल निकलता कैसे. ?
वन विभाग में नाकेदार के पद से भर्ति हुए न्यायिक सेवा में आये और फ़िर नाना जी ने विधि की परीक्षा स्वर्ण-पदक के साथ पास की. हाथों में पदक डिग्री, लिये घर आये किंतु शायद यह सवाल उनके दिमाग को परेशान कर रहा था कि पदक में सोने के नाम पर सोने का पालिश मात्र है सो कुलपति से पत्राचार कर सचाई का एहसास दिलाने की कोशिश की किंतु कोई उत्तर न मिलने पर नानाजी ने माननीय न्यायालय से अपील कर दी जो अभी फ़ैसले के इंतज़ार में है....?
नाना जी की अन्तिम इच्छा थी कि उनकी मृत्यु का स्वागत हो हिन्दू रीति रिवाज़ो का पालन हो शोक न मनाए मृत्यु के बाद घर का वातावरण अध्यात्म मय भक्ति मय हो मै ईश्वर से मिलने जा रहा हूं तब शोक क्यो करना .
उनकी इच्छा के अनुरूप एकादश गात्र के दिन सह-पिण्डी का कार्य क्रम किया गया. सहपिण्डी पूजन के समय वेद मंत्रोत्तचार के साथ शहनाई पर हिण्दू भजनों की धुने रमज़ान भाई ने गुंजाई.......साथ ही गरीबों को जिन्हैं ”साई-ने नारायण माना है” को पूरे कुटुम्ब ने उत्साह से सम्मान से भोज कराया .
रात में चुपचाप कम्बल उढाना,कु्ष्ठाश्रम,वृद्धाश्रम ,सरकारी अस्पतालों में ज़रूरत मंदों को तलाशते नानाजी अब हमारे बीच नहीं उनके किये कार्य कम से कम मुझे तो प्रेरणा देते रहेंगे