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मंगलवार, सितंबर 06, 2011

ऐसी वाणी बोलिए...

 प्रस्तुत है राकेश कुमार जी के ब्लॉग मनसा वाचा कर्मणा से एक पोस्ट




सुर और असुर समाज में हमेशा से ही होते आयें हैं.  सुर वे जन हैं जो अपने विचारों ,भावों
और कर्मो के माध्यम से खुद अपने में  व समाज में  सुर ,संगीत और हार्मोनी लाकर
आनन्द और शांति की स्थापना करने की कोशिश में लगे रहते हैं.  जबकि असुर  वे  हैं
जो इसके विपरीत, सुर और संगीत के बजाय अपने विचारों ,भावों और कर्मो के द्वारा
अप्रिय शोर  उत्पन्न करते रहते हैं और समाज में अशांति फैलाने में कोई कोर कसर
नहीं छोड़ते.   इसका मुख्य कारण तो यह ही समझ में आता है कि सुर जहाँ ज्ञान का
अनुसरण कर जीवन में 'श्रेय मार्गको   अपनाना अपना ध्येय  बनाते हैं वहीँ असुर अज्ञान
के कारण 'प्रेय मार्गपर ही अग्रसर रहना पसंद करते हैं और जीवन के अमूल्य वरदान को भी 
 निष्फल कर देते हैं. 
'प्रेय मार्गतब तक  जरूर अच्छा लगेगा जब तक यह हमें भटकन ,उलझन ,टूटन  व अनबन
आदि नहीं प्रदान कर देता.  जब मन विषाद से अत्यंत ग्रस्त हो जाता है तभी हम कुछ
सोचने  और समझने को मजबूर होते हैं. यदि हमारा सौभाग्य हो तो ऐसे में ही संत समाज
और सदग्रंथ हमे प्रेरणा प्रदान कर उचित मार्गदर्शन करते हैं.
वास्तव में तो चिर स्थाई चेतन आनन्द की खोज में हम सभी लगे हैं. जिसे शास्त्रों में
ईश्वर के नाम से पुकारा गया है. ईश्वर के बारें में हमारे शास्त्र बहुत स्पष्ट हैं.
यह कोई ऐसा .काल्पनिक  विचार नहीं कि जिसको पाया न जा सके. इसके लिए 
आईये  भगवद गीता अध्याय १० श्लोक ३२ (विभूति योग) में  ईश्वर के बारे में दिए गए
निम्न शब्दों पर विचार करते हैं .

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